मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


और अल्लादी कबीरन बी बन गई।
कबीरन बनी तो ऐसी कि खुद भी अल्लादी को भूल गई। अब अल्लादी के नाम से सुनती थोड़े ही हैं।

मैं तो याद रख ही कैसे सकता था। अल्लादी नाम मुझे तो कथा-कहानियों में ही मिला था। जीती-जागती तो बस कबीरन बी थी। गाँव आता, तो कबीरन बी को राम-राम करने ज़रूर जाता। पिछले हफ़्ते भी गया था। राम-राम करते ही कबीरन चहक उठीं-
''कौन? छोटा चौधरी है क्या?''
''हाँ बी।''
''हये मेरा बच्चा।'' कबीरन ने अपनी बूढ़ी बाहों के झूले में लेकर झोंटा दे दिया।

कबीरन हमेशा उसे देखकर ऐसे ही चहक-महक उठतीं। साथ ही कहना कभी न भूलतीं- तेरी माँ से पहले कबीरन के हाथों ने ही तुझे नहलाया-खिलाया है बच्चे।
कबीरन पेशे से दाई थीं। यों पेशा कहें तो ठीक, पर कबीरन ने यह काम बतौर पेशा कभी किया नहीं। भीतर का सारा लाड़ उमेड़ कर कबीरन अनमोल लालों को माँओं की कोख के गहरे कुओं से हाथों में सहेज कर लाती और उजली दुनिया का पहला नज़ारा कराती। किसी-किसी से यों भी कहती,
''अरे जा कमनसीब! मैं ना होती तो अपनी जनती को ही लील गया होता। शुक्र कर तेरे जिबड़े में साँस फूँक दी मैंने।''

ये तो चिड़चिड़ाहट की बात है, वरना कबीरन कभी नहीं भूली कि ज़िंदगी देने वाला तो एक ही है, वो ऊपरवाला- सबका राखन हार।
चिढ़ी हुई आज भी थी कबीरन। सो चेहरे से चमक फ्लेश मार कर ग़ायब हो गई।
''छोटे चौधरी! गाँव का दो तिहाई हिस्सा इन्हीं हाथों ने जनाया। कितने ही सिलबिल्ले मिट्टी के लौंदे मेरे ही हाथों में आकर हँसना-रोना सीखे। पर वक्त-मारे आज तो मूँछों पर ताव देकर सीना मशक बनाए फिरते हैं। एक दूसरे की जान लेने पे आमादा हैं।''

बेशक गाँव का माहौल इस बार कतई अलग था। मंदिर-मस्जिद की लाग-डाँट की ऐसी ज़हरीली आँधी चली की गाँव की फिज़ा के साथ-साथ कबीरन की जुबान में भी मीठे बताशे की जगह धतूरा रख गई...
''बच्चा तू बता! कौन से गाँव में मंदर-मज्जत अगल-बगल नहीं खड़े हैं और किस इलाके में रिले-मिले मेले नहीं लगते?'' नौचंदी-फूलवाला-दीनदार दुर्गा... पर खुदा जाने आज के आदमी की कौन-सी कल टेढ़ी हो गई कि नासपीटों से हिल-गिल कर रहा ही नहीं जाता। हमारी तो उमर गुज़र गई महागाई की जोत और गजरदम बाबा की मज़ार पर लोबान जलाते- ना कभी धरम गया ना ईमान। मिलजुल कर मंदर-मज्जत बना लें तो क्या है? आखिर है तो सब कुछ एक ही ना?''

कबीरन बी कबीरन ना रहीं। दर्द की तस्वीर बन गई सारापा।
क्या कहा कबीरन ने? आख़िर है तो सब एक ही। अये कबीरन! क़िताबों से खोद-खोद कर जुमले उछाल रही हैं क्या? पर ना- कबीरन जैसी भीतर वैसी बाहर।

कुछ अरसा पहले तक सोलह आने खरी बात थी इस इलाके के लिए कि सब कुछ एक ही है। पर अब नहीं। मैं जान चुका था कि गाँव के कट्टरपंथी हिंदु भी कबीरन के ख़िलाफ़ थे और मुसलमान भी। उसके प्रेम-प्रीत के नुस्खे और जुबान का कड़वा सच दोनों में से किसी के गले नहीं उतरा।
धारण कर लिया तो धर्म बन गया परंतु इतना विधिरूप भी हो सकता है धरमा? ऐसा हो सकता है सोचा नहीं था। उस प्रीत की जोत और मुहब्बत की लोबान का ऐसा हश्र?
इस बार के दंगे कबीरन को लील गए। चश्मदीद कहते हैं कि कबीरन का झोंपड़ा दोनों कौगों के फिरकापरस्तों ने मिल कर जलाया।
जलो नेकी को ख़ाक़ करने के लिए तो दोनों एक हुए।
कबीरन की जली ठठरी जस की तस पड़ी मिल गईं।
हे राम! या अल्लाह!
मुझे ऐसा हिंदु होने पर अफ़सोस है तो तुझे भी ऐसा मुसलमान होने पर शर्म आनी चाहिए।

तुम कबीरन हमारे लिए बनी थीं अल्लादी?
जोत-लोबान किस के लिए जलाती फिरती थीं तुम? हमारे लिए?
तुम्हारे बोल अभी भी ज़िंदा होकर घन घन बोलते हैं कानों में...
''अरे बच्चा! माँओं की कोखों से निकाल कर माँस के जिन लोथड़ों को अपने लरजते हाथों में सँभाला वो तो हिंदू थे ना मुसलमान। बेड़ा गर्क हो इन कौम और फिरकापरस्तों का सच्चा हिंदू या नेक मुसलमान भी बनाते तो भला था। पर इन्होंने तो इंसान की औलाद को शैतान बना दिया।''

जुनूनी सैलाब उतर गया शायद, जनाज़े को तो हिंदू-मुसलमान दोनों कंधा दे रहे थे। पछतावे की चादर ओढ़े गहन सन्नाटा पसर गया पूरे गाँव में।
महामाई के थान और गजरदमबाबा के मज़ार पर अंधेरा है, कैसे दूर हो?
अचानक, जैसे कुछ कौंध-सा गया। लौ आपने जलाई थी, आपके बच्चे बुझाने थोड़े ही देंगे?
उन दोनों ठिकानों की भी देखी जाएगी। और हाँ, आला तो जैसा थान का या मज़ार का, वैसा ही नेक कबीरन के झोंपड़ें का।
चलूँ एक दिया जला आऊँ उना की राख पर।

गरज तो रोशनी से ही है ना कबीरन बी?

पृष्ठ : . . .

२५ मई २००९

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।