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‘पापा जी ही थे जिनके आँख-कान, अपने कमरे में बैठे-बैठे भी, बाहर लगे रहते। बेटे की गुसलखाने की तरफ जाने की आहट सुनी तो वह कमरे के बाहर आगये, कुछ इस तरह जैसे किसी काम से बाहर आये हों। बात शायद कुछ और करना चाहते थे पर बनियान पर नज़र पड़ गयी। उन्होंने अपनी बात दोहरायी। बेटे ने जवाब दिया– सिलाईवाली साइड बदन को चुभती है, और बनियान के ऊपर कमीज़ आ ही जाती है।
वह उसका मुँह देखते रह गये।
– आजकल बनियाने इतनी बढ़िया सिली होती है कि गले में लगा ‘टैग’ न देखो तो पता ही नहीं चलता कि कौन सी साइड बाहर की है और कौन सी अंदर की।
- तो ज़रूरी है कि टैगवाली साइड बाहर की तरफ हो ?
- आप ही कहते हो कि कपड़ा शरीर ढकने के लिये होता है। मुझे फर्क नहीं पड़ता बनियान सीधी है या उलटी।

पत्नी ने बीच – बचाव करना चाहा -- बनियान उसकी है शरीर उसका है, वह चाहे जैसे पहने आप देखते ही क्यों हो ?

वह बोले – बचपन से ही इसकी यह आदत है कि बाप का कहा नहीं मानना। जब दो साल का था, मैं सहगल का कोई गाना गुनगुनाऊं, तो रोने लगता था, और कहता था, गाना नई। मेरा गाना ही बंद करवा दिया। जो खिलौना लेकर आता था, तो कहता था, दूसरा वाला। बड़ा हुआ तो समझाया जल्दी सोना और जल्दी जागना सेहत के लिये अच्छा होता है। मैं सो जाता था पर यह जागा रहता था। उस वक्त मैं इसकी ऐसी बातों पर हंस देता था, सोच कर की सभी बच्चे ऐसा करते होंगे। क्या पता था कि यह पिछले जन्म का कोई हिसाब-किताब बराबर किया वही जा रहा है।

पत्नी बेटे से बोलीं – तू कमीज़ पहन कर ही इनके सामने आया कर।

वह बोला – पापा जी, क्या पहनते हैं, क्या मैंने कभी कुछ कहा है ?

पापा जी ने अपने पजामें और कमीज़ की तरफ देखा – क्यों क्या खराबी है मेरे कपड़ों में ?

सवाल करने के बाद वह सहसा चुप हो गये लेकिन भवें तन गयीं। वह जानते थे कि माँ-बेटे दोनों को ही उनके पहनावे पर आपत्ति रही है । सारी सर्दियाँ वही स्वेटर और उस पर वही बंड़ी, और गर्मियों में दो-दो और कभी-कभी तो तीन-तीन वही कुर्ता-पजामा, और धूल खाई, घीसी- पुरानी चप्पलें पहनकर दिनभर अंदर-बाहर आते-जाते रहना। उन्हें रिटायर हुए पाँच वर्ष हो चुके थे। वह सोचते थे कि उनके लिये अब रोज़-रोज़ कपड़े बदलना ज़रूरी नहीं रहा है। रोज़ कपड़े बदलें, रोज़ धुलें, फिर इस्तरी हों, अकारण काम क्यों बढ़ाएं अपने लिये और औरों के लिये।

तो भी पत्नी को सुनाते हुए बोले – सुन लिया तुमने ?

पत्नी बोलीं – अब बस भी करो। आप किन छोटी-छोटी बातों के पीछे पड़ जाते हैं।

सुबह के नौ बजे थे। बेटा ऑफिस जाने के लिये तैयार हो रहा था। उसने कमीज़ पहन ली थी, पर पापा जी को जैसे उसकी बनियान अब भी नज़र ही आती रही।

छोटी छोटी बातें। यह तीन शब्द उनके दिमाग़ में दस्तक देने लगे। अब छोटी बातें ही तो रह गयी हैं। धीरे-धीरे यह नौबत आ गयी कि बड़ी बातों पर कोई संवाद नहीं रहा। जो किताबें उन्हें पसंद है, वह पुत्रश्री भूल कर नहीं देखता। अगर कोई किताब पढ़ने के लिये सुझाते हैं, तो शीर्षक और अनुक्रम पर सरसरी नज़र डाल कर उन्हें ही थमा देता है। जो संगीत उन्हें पसंद है, उसे वह नहीं सुनता। जिस फिल्म की वह प्रशंसा करते हैं, जिस टीवी चैनल को वह देखना पसंद करते हैं, वे उनकी सिरे से ही खारिज कर देता है। मुँह बंद कर के यूँ बिटर-बिटर देखता है, जैसे वह बकवास कर रहे हों।

छोटी-छोटी बातें न करें, तो अबोला ही हो जाये। कभी पूछ लें – खाना खा लिया, या रात को कब आओगे, क्या शादी के लिये कोई लड़की पसंद आयी, तो या तो कोई जवाब नहीं देता, या फिर इतना मुख्तसर, कि समझ नहीं आता कि हाँ कह रहा है या न। उन्होंने सिर झटका। भले ही बोल नहीं रहा लेकिन बनियान उलटी पहन कर ‘स्टेटमेंट’ तो देता ही आ रहा है।

वह मन ही मन बुड़बुड़ाये - यह भी समझ कर नहीं देती कि बेटे की बात में कोई लॉजिक नहीं है।

जब बेटा अपनी कार में ऑफिस चला गया तो पत्नी ने आकर खुशी-खुशी बताया कि जाते-जाते कह गया है- पापा से कहना शाम को तैयार रहें, बाहर खाना खाने चलेंगे।

पापा जी खुश होने की बजाये बिफर गये – मुझे नहीं जाना।
--- आप भी हद करते हैं। बनियान न हुई, आफ़त हो गयी।
--- सीधे मुँह बात करनी नहीं, खाना खिलाने ले कर जायेंगे!
-- क्या बात करे ? जानता है बात करने से कुछ हासिल नहीं होगा। झगड़ा ही होगा।
-- मैं झगडा करता हूँ?
-- नहीं, वह करता है।

पत्नी का तंज उन्हे बरदाश्त नहीं हुआ। वह उसी पर सवार हो गये। - मैं जानता हूँ तुम भी उसी की तरह सोचती हो। तुम्हारी शह पर ही वह मुझ से ऐसा व्यवहार करता है।

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