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--- उसकी बात भी तो समझो, कहता है, पापा जी से जब तक किसी गंभीर टॉपिक पर बात न करो, उनसे बातचीत शुरू ही नहीं की जा सकती। हल्की-फुल्की बात हल्के-फुलके तरीके से वह करते नहीं। लाइफ़ में पहले ही क्या कम तनाव है ? पापा उसे और भी बोझिल बना देते हैं। बीच में बड़े-बड़े दर्शन बघारने लगते हैं, मार्क्सवाद को बीच में ले आते हैं। बेकार की भाषणबाज़ी। बात करूँ तो क्या ? जिसको मार्क्स का नहीं पता उससे तो उनकी बात ही नहीं हो सकती। हमें तेज़ भागना है, यह दार्शनिक ब्रेकें लगाते रहते हैं। आज कल का ज़माना हल्की-फुल्की बातें करने का है। अब बनियान को ही लो....।

---बात बनियान की नहीं, ‘एटीच्यूड’ की है।-- पापा जी बोलते-बोलते रुक गये। लगा कि बात बढ़ायेंगे तो मार्क्स को बीच में लाना ही पड़ेगा या वह खुद ही आ जायेंगे। फिर भी बोल दिया – बात दरअसल बाप को आदर – सम्मान देने की है।
--- आपके लिये नई से नई कमीज़ें, बढ़िया से बढ़िया स्वेटर, सूट का कपड़ा लाया फादर्स डे पर, आपने बड़ाई की उसकी कभी। जो लाया पहन के नहीं दिया।
--- चीज़ें ला कर देते रहो, पास न बैठो। यह नई तहज़ीब सीखी है।

पापा जी को याद आया जब वह छोटे थे, घर में जब कभी कोई विषय उठता था, तब बाबू जी मिर्ज़ा ग़ालिब और अम्मा जी राम चरित मानस से उद्धरण पर उद्धरण देने लगते। विचारों का मज़ेदार आदान-प्रदान होता। वह खुद भी जैसे ‘मार्क्स-ऐगल्स रीडर’ लेकर उनकी बातचीत में शामिल हुआ करते। वह जमाना जाने किधर गया। यह क्या ज़माना है ? उनका बेटा किस किताब को खोल रहा है यह उन्हें समझ नहीं आता। यह कैसी पौध है ? एक ही लक्ष्य है। ....पैसा। किताबों से तो जैसे वैर है इस कौम को। हल्की-फुल्की बातें करो, और हल्के-फुल्के अंदाज़ में।

प्यार से समझाता था, बेटे लेट कर मत पढ़ा कर, तो भी इसकी वही टेढ़ी चाल। बिस्तर पर लेट कर ही पढ़ता रहा। जो स्टडी-टेबल ला कर दी वह अलग ही पड़ी रही। एक बार यह भी कहा – सुबह पाँच बजे उठा करो, लेकिन क्या मजाल कि जनाब आठ बजे से पहले पलंग छोड़ें। मंसे फूटने लगीं तो इशारे से कहा –हम छोटे थे तो बाबू जी के सोने के बाद सोते थे और उनके जागने से पहले उठ बैठते थे। सोचा इशारा समझेगा। ... पर इसका जवाब? आप भी नौ बजे सो जाया करें और सुबह आठ बजे उठा करें, तो मैं भी आपके सोने के बाद सोया करूँगा और जागने से पहले जाग जाया करूँगा। अब आप को नींद नहीं आती तो क्या मैं जागे रहा करूँ ?

अपनी पत्नी को सुनाते हुए बोले – याद है जब कभी हम कहीं बाहर इक्ट्ठे घूमने जाते थे, वह हमारे साथ-साथ नहीं चलता था। अगर हम बांईं पटरी पर चलते थे, तो बरखुरदार हम से अलग, सड़क की दूसरी तरफ दाईं पटरी पर ही चलता। हम अगर इसकी पटरी पर आ जायें, यह जाने कब हमारीवाली पटरी पर पहुँच जाता था और आगे-आगे चल रहा होता था, बीच-बीच में पीछे मुड़कर देख लेता था कि माँ-बाप आ रहे हैं । कलयुग के श्रवणकुमार शायद ऐसे ही होते होंगे।

पत्नी बोलीं – दूसरी पटरी पर सही, पर चल तो उसी तरफ रहा होता था, जिस तरफ हम चल रहे होते थे।

पापा जी के पास इस बात का कोई जवाब न था। उन्हें ‘जन्मवाली’ बात याद आ गयी। बोले – जाने कौन से जन्म की दुश्मनी है।

अचानक पत्नी बोली- मैं आपकी किताबों में ही कही पढ़ रही थी कि वह युग दूर नहीं जब बच्चे अपनी पसंद के बाप चुना करेंगे। बच्चे तो पैदा होते रहेंगे, लेकिन उन्हे भी ‘फ्रीडम आफ चाएस होगी’ कि वह अपना बाप किसे चुने। तर्क यह है कि अगर स्त्री-पुरुष अपनी पसंद से अपनी जीवन साथी चुन सकते हैं, और अगर उनकी नहीं बनती, तो तलाक भी दे सकते हैं, औरत को गर्भधारण करने गर्भपात कराने का अधिकार है, तो संतान को भी यह अधिकार हो कि अपनी पसंद के माँ-बाप चुन सकें। अगर किसी को ठीक बाप नहीं मिला, यानी जो अपनी जिम्मेदारी ठीक ढंग से नहीं निभाता तो वह क्यों उसका खा-मियाज़ा भुगतते रहें आजीवन। उन्हें भी अपना बाप चुनने का अधिकार होना चाहिये।

पापा जी सकते में आ गये। उन्होंने यह तो पढ़ा था कि बुर्जुवा परिवार नहीं रहेगा। सम्पत्ति के संबंधों पर आधारित परिवार खत्म हो जायेगा। बच्चे केवल माँ-बाप के नहीं, वे समाज के भी हैं, ग़रीब बाप का बेटा उसकी गुरबत क्यों ढोए, और धनी बाप का बेटा, बिना काम-धाम किये, अपने बाप की जायदाद का वारिस क्यों हो जाये? लेकिन पत्नी ने उनकी अलमारी में से यह कौन सी किताब निकाल कर पढ़ ली, वह सोचते रहे। क्या वह मज़ाक तो नहीं कर रही? क्या उसने उन्हीं के दिये आख्यानों-व्याख्यानों को सुन अपने निष्कर्ष तो नहीं निकाले ?

वह बोल रही थीं - आप बहुत खुशकिस्मत हैं कि अभी वह युग नहीं आया है, और न ही बच्चों में उतनी जागृति आयी है, वरना बहुत से पिता – ‘फादरहुड’ की परीक्षा में फेल ही हो गये होते। बच्चे इन दिनों अपने माता-पिता को कभी आइ-पोड , कभी आई-फोन, ब्लू बेरी जैसे लेटैस्ट गैजेट ला कर भी देने लगे हैं..ताकि वे उनके साथ चलते रह सकें।

शाम को बेटे के घर लौटने से पहले वह नई कमीज़-पेंट पहने तैयार खड़े थे। पैरों में नये जूते चमचमा रहे थे। पत्नी ने देखा तो हैरान। बेटा आया तो वह भी भौंचक। वह सोचता आया था कि माँ जब उन्हें उसके लाये नये कपड़े पहनने के लिये कहेंगी तो ज़रूर बखेड़ा खड़ा होगा। ऐसा क्या हुआ कि पापा जी के जीवन में यह कायापलट हो गई। और वह भी एक ही दिन में। उसके लिये यह किसी क्रांति से कम नहीं था। लेकिन उसने इस विषय पर बहुत रगड़ना ठीक नहीं समझा। जहाँ तक पापा जी की बात थी, उनके लिये विचार का महत्व आर्थिक परिस्थितियों से कमतर नहीं था।

उसने पापा जी और अम्मा जी को कार में बिठाया और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर ले चला। रास्ते में पापा जी उससे हल्की-फुल्की बातें करने की कोशिश करते रहे। बॉलीवुड का बादशाह कौन है ? अमिताभ या शाहरूख ? सीरियल छोटी बहू के बारे में जानना चाहा। एक बार उनके वस्त्रों पर भी बात आती प्रतीत हुई। उनके मुँह से निकलते-निकलते रह गया- यह प्रतिगामी...।

खाने की मेज़ पर भी हल्की – फुल्की बातें करने की उनकी कोशिशें जारी रहीं। उनकी नज़र रह-रह कर बेटे की गर्दन के नीचे के हिस्से में भी उतर जाती। बेटे ने अपनी टाई ढीली कर के कमीज़ का ऊपर का बटन खोला तो कमीज़ के पीछे और भीतर गौर से देखने लगे क्या बेटे ने कमीज़ के नीचे बनियान उलटी पहन रखी है या सीधी ?

कभी-कभी उन्हें लगता कि कमीज़ के नीचे बनियान है ही नहीं ...।

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१६ मई २०११

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