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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.के. से कादंबरी मेहरा की कहानी जीटा जीत गया


सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बँटा हुआ था। उच्च श्रेणी में ' ओ ' लेवल (ऑर्डिनरी लेवल ), मध्य में सी० एस ० ई० (सर्टिफिकेट ऑफ़ सेकेंडरी एजुकेशन ) और निम्न श्रेणी में रेमेडिअल यानि कमजोर जिन्हें सुधार की जरूरत हो।
मुझे तीसरे दर्जे के छात्रों से निपटना था।

क्लासरूम क्या था- कबाडखाना! जितने शरारती, लफंगे, कम दिमाग छोकरे थे सब जमा थे। न उन्होंने कभी पढाई की थी, न उन्हें पढ़ना था। मर्जी से आते थे और मर्जी से उठ कर चले जाते थे। न समझ आए तो केवल शोर मचा कर, समय काट कर चले जाते थे। इनको इम्तिहान तो देना नहीं था। काम किया तो किया वरना परवाह नहीं। ऐसा नहीं था कि उनमे कोई काबिलियत नहीं थी। अगर थी तो स्कूल के लिए नहीं थी। फल तरकारी बेचने से लेकर जहाज पेंट करने तक, जमाने भर के धंधे वह गिना देते थे। हट्टे कट्टे चौदह से सोलह साल के लडके --अपने कामकाजी परिवारों की अर्थव्यवस्था की आवश्यक कड़ी।

कौन कहता है कि ब्रिटेन में बच्चों से काम नहीं लिया जाता? कुछेक शरीफ भी थे जो अपनी मूल अयोग्यता के कारण पिछड़े रहे। उनका मानसिक विकास मंद था। क्या करें!

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