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चीन से पाती


बुद्ध की करुणा और वाल्मीकि की संवेदना
-डॉ. गुणशेखर (चीन से)


मंगलवार -११-०३-१४
९:४९ रात्रि

पत्नी को बहुत तेज़ बुखार है। रास्ता नहीं सूझ रहा है कि किधर जाएँ। इस सम्बन्ध में किससे बात करें और किससे न करें। पराया देश, परायी भाषा, न समझने पर अर्थ के अनर्थ। वह भी ऐसे अनर्थ कि लेने के देने पड़ जाएँ। वह आव-बाव बक रही है। कभी सिद्धि विनायक की गुहार लगा रही है तो कभी देवी पाटन मैया की। कभी बच्चों से बात कराने की जिद कर रही तो कभी भारत वापसी की। न वह स्थिर मन है और न मैं। बहुत विकल हूँ। इतना कि शब्दों में बयाँ ही नहीं हो सकता।

परसों एक बड़े और महँगे सरकारी अस्पताल में उसे भरती भी कराया था। यहाँ दो तरह की भरती होती है। एक कुर्सी वाली और दूसरी बेड वाली। बेडवाली नहीं मिली। कुर्सी वाली मिली तो जब तक दवाएँ चढ़ीं उसका सारा शरीर ही अकड़ गया। इसके बाद घर आ गए। शायद दवाओं के बल से दो दिन तबीयत सामान्य रही तो लगा कि लाभ हो गया है। आज फिर चीन की रामबाण दवाओं को धता बताकर पूर्ववत नियत समय यानी आठ बजे रात्रि को बुखार चढ़ने लगा । इस समय तक उसने पत्नी के बदन को भट्टी बना दिया है।

अभी दवाएँ भी बची हैं और आशाएँ भी। आशाओं, आस्थाओं और विश्वासों के देश भारत से जो हूँ। यही हमारी गाढ़े के थाती हैं। लेकिन आज ऐसे विकट गाढ़े में फँसा हूँ कि यह थाती हाथ से सरकी जा रही है और थर्मामीटर के साथ-साथ बुद्धि भी फेल हो रही है। थर्मामीटर ३९ डिग्री सेंटीग्रेड तापमान बता रहा है । इतना हतबुद्धि हूँ कि यह मुझे फारेन हाईट में बदलने पर १०० के आस-पास ही लग रहा जो शरीर की वास्तविक गरमी से बहुत कम प्रतीत होता है। पछता रहा था कि भारत में घर में ही रखा था वही ले आता। फारेन हाईट में होने से कम से कम उसमें कुछ समझ में तो आता। ठंडे पानी की पट्टी रखते ही गर्म हो जा रही है। बराबर पट्टी पर पट्टी रख रहा हूँ। पर वह रखते ही गरम हो रही है। अस्पताल जाने-न जाने के द्वंद्व से उबरने की कोशिश भी कर रहा हूँ।

भारत से वापस आए हुए एक सप्ताह हो गया है। कभी लगता है कि पत्नी को लाकर गलती की है तो कभी लगता है कि नहीं, सही किया है। ज़रा से भी परिचित व्यक्ति को फोन लगा रहा हूँ कि कम से कम कहीं से तो कोई रास्ता निकले। पट्टी रखता हूँ फिर फोन करने दौड़ता हूँ फिर फोन छोड़कर पट्टी पर दौड़ता हूँ। जिस अकेलेपन को मिटाने के लिए दुकेला हुआ, वही आज महाकाल -सी आँखों से डरा रहा है। बुरे से बुरे परिणाम आँखों में नाच रहे हैं। ऐसे में कोढ़ में खाज यह, कि एक ने परसों यह कहकर डरा दिया था कि किसी को यह नहीं बताना कि नियत समय पर ठंड लगकर बुखार आता है। मलेरिया की आशंका होते ही भारत वापस भेज दिया जाएगा। वापस भेजे जाने का मतलब फिर से और तुरंत एक लाख का चूना। वह चूना लगवाने की स्थिति-परिस्थिति बिलकुल नहीं थी। जितना था सब घर बनाने के यज्ञ में हवन करके आया था। ये परिचित तथाकथित अपने थे जो मिलते ही जोंक की तरह लिपट जाते रहे हैं। ऐसे लोग मिथ्या तर्कों और भ्रमों के शिकार होकर जीवन में मिथकों व दंतकथाओं को ही प्रकाश स्तंभ मान बैठते हैं और उनसे न केवल स्वयं को बल्कि दूसरों को भी दिग्भ्रमित करते रहते हैं। लेकिन पहली बार के किसी मंज़िल के राही को क्या पता कि सामने वाला दिग्भ्रमित है या स्पष्ट दृष्टा।

भारत भेजे जाने की बात से भीतर-भीतर डर तो बहुत गया पर, क्या देश क्या परदेस कुछ भी छिपाना अपने स्वभाव में ही नहीं है। दूसरी बात यह कि छिपाना चाहूँ भी तो जीवन से ज्यादा कीमती इस दुनिया में कुछ भी नहीं है। जब तक जीवन है तभी तक संसार का आकर्षण है। इसके बाद तो सब मिट्टी है। शरीर भी और संसार भी। अतः किसी भी तरह के परिणाम को भोगने के लिए तैयार होकर ही पत्नी को अस्पताल ले गया था। लेकिन वहाँ उन परिचित महोदय के सारे मिथक पानी-पानी हो गए। सभी डाक्टरों ने मन लगाकर आनन-फानन आपातकालीन सेवाएँ देकर पत्नी को होश में लाकर मुझे भी पुनर्जीवन दिया था। यहाँ कदम-कदम पर भाषा की दिक्कत झेलनी पड़ती है। कहीं सैकड़ों में एकाध चिकित्सक ही थोड़ी-बहुत वह भी काम चलाऊ से भी कम अंग्रेज़ी का ज्ञान रखता है। इससे मुझे जहाँ इनकी स्वभाषा-धर्मिता पर नाज़ होता है वहीं व्यक्तिगत स्तर पर स्वार्थवश कोफ्त भी। यहाँ डाक्टरों को अपनी बात समझाने के लिए साथ में किसी न किसी चीनी सहायक को लाना ही पड़ता है। इस हेतु दो छात्राओं को साथ लाया था। स्नातक प्रथम वर्ष की इन दोनों छात्राओं ने न केवल मेरा मार्गदर्शन किया बल्कि पत्नी को जिस ममता से सँभाला वह शायद बिरले लोगों को ही अपनों से भी मिल पाता है। ये दोनों हिन्दी की छात्राएँ हैं।

इन दोनों को ही नहीं हिंदी पढ़ने वाले सभी विद्यार्थियों को हिंदी और हिंदियों से अटूट प्रेम है। इनका यह प्रेम मुझे उस समय भाव विह्वल कर गया जब इनमें से एक ने बुखार और ठंड के दुहरे प्रकोप से काँपती हुई मेरी पत्नी को आराम पहुँचाने के लिए शीतलहर को दरकिनार कर पत्नी के 'बेटा-बेटा' करके हाथ पकड़ कर मना करने के बावज़ूद फटाफट अपना जैकेट उसके पैरों में लपेटा और दोनों पैरों को आगे से छापते हुए चपचपाती नंगी फर्श पर उकड़ूँ बैठ गई। इस घटना से चीन और चीनियों के विषय में मेरी पत्नी की पूर्वनिर्मित सभी कुधारणाएँ धराशायी हो गईं। इन दोनों बेटियों और इनकी ममता को देखकर यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि बेटियाँ किसी की और कहीं की भी हों ममता में उनका कोई सानी नहीं होता। मुझे नहीं लगता है कि संकट की उस घड़ी, उस समय की सनसन चलती हवा के हाड़कँपाऊ बर्फीले झोंके और उसके दिए दर्द को कभी भूल पाऊँगा। इसके साथ यह भी तो नहीं भूल पाऊँगा कि इन बेटियों ने किस आशा, विश्वास और ममता से मेरी पत्नी को अपने प्रेम से बाँधे रखकर उसके असह्य दर्द को भी भुलाए रखा था।

इन्होंने पर-पीड़ा को जिस शिद्दत से महसूसा उसे बुद्ध की करुणा और वाल्मीकि की संवेदना का एक समन्वित मूर्त रूप कहा जा सकता है, जिनके उद्गम स्रोत तो भारत में हैं पर इन धाराओं का प्रवाह सारी दुनिया को अभी भी सींच-सींच कर तर किए हुए हुए है।

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१ जून २०१६

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