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चीन से पाती


क्रिसमस के कलंदर
-डॉ. गुणशेखर (चीन से)


मैं अपने आवास पर ऊपर लौट आया हूँ। नीचे अभी भी हो-हल्ला हो रहा है। इसका अर्थ है कि नाच-गाना अभी तक बराबर चल रहा है। जब मैं चला था, लोग बाँहों में बाहें डाले नाच रहे थे। बारी-बारी से अपनी एक बाँह दूसरे की बाँह में डालकर नाचते हुए दो लोगों की उठी बाँहों के बीच से होकर बाहर आते हैं। इस तरह हर कोई बाँहें जोड़कर खड़ा होता है और अपनी बारी पर हर कोई उसके घेरे से निकल कर बाहर भी आता है। वही मनोरम दृश्य अब भी होगा। लेकिन मैं इनमें क्यों नहीं रम पाता हूँ? यह प्रश्न पहली पार्टी से इस तीसरी पार्टी तक अनुत्तरित ही है।

आज क्रिसमस-पार्टी थी। शाम छह बजे से ही लोग जुटने लगे थे। सात बजते-बजते अमेरिकन प्रोफ़ेसर साहिबा की बैठक में बैठने की जगह ढूँढे से भी नहीं मिल रही थी। लोग सटे खड़े थे। मैं भी उन्हीं आमंत्रितों में से हूँ और शायद सबसे नया सदस्य हूँ। नया होने के नाते झेंप तो है ही। यह खुलते-खुलते खुलेगी। मनुष्य का ह्रदय कोई दूकान नहीं है कि जैसे खुले सारे ग्राहक बेझिझक जुट जाएँ। इस दर पर आमद बहुत धीरे-धीरे होती है। अच्छा भी है। जितनी देर से जुड़ेंगे उतनी मजबूती रहेगी। हिन्दी की यह कहावत भी इसी बात पर बल देती रही है कि, 'सोना जाने कसे, आदमी जाने बसे।' अभी-अभी बसे हैं। जानते-जानते जानेंगे। कोई नमक मिर्च तो माँगना नहीं है कि जल्दी से जल्दी परिचय कर लें।

ये प्रोफ़ेसर साहिबा और इनका बेटा दोनों उत्सवधर्मी हैं। इन्हें इकट्ठा होने का कोई न कोई बहाना भर चाहिए। ये इतने मिलनसार हैं कि जिसको पाते हैं उसी को न्योत लेते हैं। इनकी इसी मिलनसारिता ने इनके आवास को ही संकोची बना दिया है। हर पार्टी में यह लगता है कि इनकी फैली बाँहों के सामने अपने को बौना पाकर वह सकुच-सिकुड़ जाता है। वास्तव में इनका यही मोबाइल चरित्र इन्हें यूनिक बनाता है। अच्छा ही है कि ये इतने खुले हैं वरना यदि ऐसा न होता तो मैं अब तक एकाकी और इन लोगों से अपरिचित ही रहता।

पार्टी क्या थी? शानो-शौकत से लबरेज़। तरह-तरह की डिशें। तरह-तरह की मधुबालाएँ। कोई जापानी ला रहा है, कोई रूसी। कोई कनैडियन ला रहा है तो कोई मिश्री। लोग आते जा रहे हैं और तरह-तरह की अंगूरियाँ मेजों पर सजाते जा रहे हैं। कोई किसी महाद्वीप का है तो कोई किसी। लेकिन यहाँ सारे द्वीप-महाद्वीप एकाकार हो गए हैं। अगर कोई अकेला पड़ जाता है तो वह मैं ही हूँ। सभी गिफ्ट लाए थे और सभी को गिफ्ट मिले थे। पहली बार मैं भी गिफ्ट ले गया था। इस बार मैं भी सेंताक्लाज का कृपा पात्र बना। सेंताक्लाज का चरित्र निभाने वाली एक किशोरी ने सभी को ये गिफ्ट बेहद नाटकीय शैली में बाँटे। यह दृश्य भी बहुत मनोरंजक था। जब यह लड़की चली जाएगी तो मेरे अपने या यह कह लें कि नितांत निजी सेंटाक्लाज़ यही माँ-बेटे बचेंगे, जिन्हें सबकी तरह मेरा भी ध्यान रहता है।

दो-ढाई घंटे चली इस पार्टी में तरह-तरह के व्यंजनों के साथ-साथ हर एक के हिस्से लगभग एक-एक बोतल आई होगी। इतना खा-पीकर भी न 'माँ-बहन हुई' और न सिर फुटव्वल। यहाँ सिर फुटव्वल तो दूर किसी में मनमुटाव तक नहीं देखा। इनके इस व्यवहार को देखकर यही लगता है कि ये बिल्कुल वैसे नहीं हैं जैसा हम इन्हें कहते और कोसते आए हैं। औरों के कहने पर हम भी इन्हें धूर्त और चालू कहते रहे हैं। साथ में यह भी मानते रहे हैं कि इन गोरों ने आदि से लेकर आज तक केवल हमें चूसा ही है। लेकिन हमेशा यह भूल जाते रहे हैं कि ये गोरे ही हैं, जिन्होंने समुद्र की छाती चीर कर हमें सारी दुनिया का रास्ता दिखाया है। अपने साथ हमें भी हवाई जहाज़ में बिठाकर आसमान में उड़ाया है। जिस समय इनकी नावें तूफ़ानी लहरों पर सवार होकर भारत की खोज में निकली थीं, हमारे ऋषियों की लँगोटियाँ आसमान में सूख रही थीं। जिनके योगबल से लँगोटियाँ आसमान में सूखती थीं, वे पानी में पाँव रखते काँपने लगते थे। 'पानी में पाँव न पड़े बडका सौरा मेरा' वाली कहावत के नायक हमारे ऋषि-मुनि अपना ज़्यादातर गुप्त ज्ञान अपने साथ लिए चले गए। इसी वजह से अब इन्हीं गोरों के दिए ज्ञान-ध्यान से गुज़ारा चल रहा है।

इनके यहाँ की हर पार्टी में ऐसा देखा है कि प्रोफेसर साहिबा निरंतर चलती रहती हैं। सभी के पास जा-जा कर खाने-पीने के लिए ये उत्साहित भी करती रहती हैं। मेरे पास भी तीन-चार बार आईं। हर बार कुछ न कुछ लेने का आग्रह कर गईं। हर आइटम के बारे में बताती गईं कि यह बीफ वाला है, यह पोर्क वाला और यह प्योर वेज। मुझे इनके वेज पर हमेशा शक रहता है। इसलिए मैं प्रायः कुछ भी लेने से डरता रहता हूँ। लेकिन इस बार मिश्र के अरबी के प्रोफेसर साहब बड़े दावे के साथ एक वेज तक मुझे ले गए। वह वास्तव में वेज ही था। उन्हीं का बनाया हुआ भी था। बहुत ही स्वादिष्ट व्यंजन। कुछ-कुछ भारतीय उत्तपम और नमकीन हलवे के मिश्रण-सा। मेरे अलावा यह पार्टी जर्मन, फ्रेंच, इंग्लिश, अरबी, थाई, वियतानामी, सरनामी, बर्मी समेत पचास-साठ भाषाओं के प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसरों और उनके परिवारी जनों से भरी-पूरी थी।

इस बार दो लोग मेरे लिए खास थे। इनमें एक थीं कनाडा की योग शिक्षिका और दूसरे थे चीनी-जर्मन शब्द कोश के निर्माण में लगे अत्यंत बजुर्ग सज्जन। इतने रक्ताभ कि इन्हें देखकर किसी को भी ऐसा लगे कि अभी बस अभी खून छलकने ही वाला है। इनकी उम्र ८० के आस-पास थी फिर भी ऊर्जा में कहीं कोई कमी नहीं। अपनी धर्मपत्नी से कहकर कोई खास ब्रांड की वाइन खुजवा रहे थे। मुझे देखा तो आगे बढ़कर बड़ी गर्मजोशी से मिले। ये इस विश्वविद्यालय के शब्दकोश निर्माण विभाग से दो वर्ष पहले जुड़े हैं। आज पता चला कि इस विश्वविद्यालय का अपना स्वतंत्र शब्दकोश निर्माण विभाग भी है। आज सुबह ही कस्टम विभाग से वापस आते समय मैंने 'टीवी और रेडियो विश्वविद्यालय' भी देखा था। उसके बाहर दक्षिण अफ्रीकी महाद्वीपीय देशों के सैकड़ों घूम-टहल रहे थे। कितना समृद्ध है यह शहर। भाषा में भी और भाव में भी। निरीश्वरवादी होकर भी सारी दुनिया को अपनी बाँहों में समेटे बैठा यह शहर कितनी खुशी से क्रिसमस मना रहा है।

आज की दूसरी उपलब्धि 'योग शिक्षिका' हैं जो बैंकूवर, कनाडा के 'हिन्दू टेम्पल' में योग सिखाती हैं। इनका बेटा यहाँ प्रोफेसर है। वहू चीनी है। आज दोनों खूब झूम-झूम कर नाची हैं। इन दोनों को नृत्यरत देखकर कोई भी कह सकता था कि पक्का ये किसी न किसी भारतीय शास्त्रीय नृत्य की गुरु-शिष्या हैं। दोनों के कदमों की लय-ताल एकदम सधी हुई। दोनों झूमती-झूलती हुईं। दोनों पस्पर मिलते हुए ऎसी लग रही थीं कि जैसे बहुत दिनों बाद अभी-अभी माँ-बेटी मिली हों। सास-बहू के जोड़े का इस तरह नाचना कि सबकुछ भुला बैठना मैंने यहीं देखा। इन्हीं के साथ बिना किसी बहकाव के पुरुषों का नर्तन भी कम मोहक नहीं था। वैसे पीकर बहकते, बरातों में भोंडे नृत्य करते और बंदूकों की नालियों से आग बरसाते वीर अपने यहाँ बहुतेरे देखे हैं लेकिन इतना पीकर भी स्त्री-पुरुषों की एकलयता, मदिरा की मस्ती में भी थिरकते सधे कदम भी मैंने यहीं देखे। कई बार मेरा भी मन किया कि मैं भी क्रिसमस के इन कलंदरों के साथ नाचूँ। संकोच वश शरीर भले ही आगे नहीं बढ़ा लेकिन मन-मयूर बराबर नाचता रहा। मन के भीतर ही भीतर ये बोल भी गूँजते रहे 'दमादम मस्त कलंदर, अली का पहला नंबर।'

नृत्य से फुर्सत पाकर कनैडियन नृत्य शिक्षिका ने पुनः मुझमें रुचि ली। इन्होंने स्वामी शिवानन्द आश्रम ऋषिकेश में रहकर योग शिक्षा ग्रहण की थी। वहाँ की डिवाइन लाइफ सोसाइटी की सदस्या भी हैं। वहाँ की योग की एक पुस्तक 'डिवाइन योगा' की मेरे द्वारा हिंदी में अनूदित 'योगायन' नाम की पुस्तक भी ये बैंकूवर के 'हिन्दू टेम्पल' के लिए अपने साथ ले गई थीं। उस पुस्तक की चर्चा ये अपने सभी परिचितों से कर-कर के मेरा मान बढ़ा रही थीं। योग के लिए इनकी दीवानगी देखने लायक थी। ७०-७५ की उम्र में भी अपनी ३० साल की बहुरिया के साथ आधे घंटे से भी ऊपर नाचकर ये थकी नहीं थीं। शायद इसके पीछे योगबल ही था। इनपर योग, संस्कृत और भारतीय संस्कृति का बहुत गहरा असर देखकर अपने पर गर्व भी हुआ और गुमान भी। इन्होंने मुझसे संस्कृत के व्याकरण की किसी आसान पुस्तक की माँग की तो मैंने इनकी रुचि और संस्कृत के प्रति समर्पण देखकर संस्कृत के धातु रूपों, पाँचों परस्मैपदी लकारों, तीनों लिंगों के कुछ अकारांत, इकारांत और उकारांत शब्द रूपों के साथ तीनों कालों की वाक्य रचना के भी कुछ उदाहरण देने का इनसे वादा कर लिया है।

इनसे मिलकर एक और खुशी मुझे हुई कि मेरे बाद एक इन्हीं का परिवार था जो पूरी तरह शाकाहारी मिला। आज अपनी अहिंसक भारतीय संस्कृति की अनंत ऊर्जा और उसके अमिट प्रभाव का एक जीवंत उदाहरण इस परिवार के रूप में मिला, जिसने मांसाहार पूरी तरह से त्याग दिया है। इनके आहार में अंडा भी शामिल नहीं है। यह असर भी इनपर योग और अहिंसक भारतीय संस्कृति ने ही डाला है। भारतीय और यूरोपीय संस्कृति के इस सुखद संयोग से इनके साथ-साथ मुझे भी आज बहुत ऊर्जा मिली है। 

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१५ दिसंबर २०१६

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