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आत्मकथा (बारहवाँ भाग)

   — कृष्ण बिहारी

 

आखिर पहुँच ही गया मैं शीशों के शहर में


एयरपोर्ट की औपचारिकताओं से गुजरने की आखिरी कड़ी इमीग्रेशन से गुजरना था। लोग कई पंक्तियों में खड़े थे। स्थानीय लोगों के लिये अलग काउण्टर था। उसपर सिर पर गतरा बाँधे और अरबी पोशाक में लोग खड़े थे जिन्हें देखकर अनुमान लगाना कठिन था कि कौन कितना बड़ा अरबी है। मैंने जब काउण्टर से दृष्टि हटाकर चारों तरफ देखना शुरू किया तो सामने शीशे की एक दीवार दिखाई दी जिसके उस पार से कोई मुझे और बंगेरा को अपनी ओर आने का इशारा कर रहा था।

मैं लाइन से निकलकर उस दीवार के पास पहुँचा जिसमें छाती की ऊँचाई पर एक गोल छेद था। उसी छेद से उसने दो कागज पकड़ाए और कहा, “यह ओरिजनल एण्ट्री परमिट है, इसे काउण्टर पर देना होगा” मतलब यह कि हमने जिन कागजात पर सफर किया था वे छाया–प्रति थे।

सामान्य–सी पूछताछ और पॉसपोर्ट तथा ओरिजनल एण्ट्री परमिट को जाँच लेने के बाद पॉसपोर्ट पर एण्ट्री की मुहर लग गई।

जिस व्यक्ति ने शीशे की दीवार से कागजात थमाए थे वह स्कूल का सबसे पुराना कर्मचारी और ओहदे से चपरासी मोहम्मद था। आज वह स्कूल का पी आर ओ है और मिस्टर मोहम्मद है लेकिन अध्यापकों के लिये और खासतौर पर पुराने अध्यापकों के लिये उसके दिल में आज भी वही जज्बा है जो शुरू में दिखा था। असल में वह स्कूल के लिये एक समर्पित व्यक्तित्व है।

मुझे आश्चर्य हुआ कि अशोक और विजय, दोनों में से कोई एयरपोर्ट नहीं आया था।
मोहम्मद के साथ एयरपोर्ट से बाहर निकलते हुए मौसम के आगे आँख नहीं ठहरती थी। रेत के कणों से परावर्तित होती हुई सूर्य—रश्मियाँ चकाचौंध पैदा करती थीं। एक नीले रंग की माजदा वैन पॉर्किंग एरिया में खड़ी थी जिस पर सफेद रंग और अंग्रेजी में ‘अबूधाबी इण्डियन स्कूल’ लिखा था। वह भी वातानुकूलित थी। उसमें बैठकर शहर की ओर चलते हुए सड़क पर पानी का भरम होता रहा। कानपुर में बहुत गर्मी में कभी–कभी मरीचिका का दृश्य मई–जून के महीनों में तब दिखा था जब लू चल रही होती थी। फरवरी के महीने में ऐसे दृश्य की कल्पना कभी नहीं की थी। यह सन १९८६ की बात है। आज तो फरवरी के महीने में कभी–कभी स्वैटर डालना पड़ता है। प्रकृति भी अपने रूप बदलती है। इस बीच हरियाली भी खूब बढ़ी है। लेकिन उन दिनों फरवरी का महीना भी गर्म होता था।

कभी फिल्म अभिनेत्री जयप्रदा यहाँ आई थीं। प्रसंग तो याद नहीं किन्तु किसी अखबार में उनके साक्षात्कार में पढ़ा कि उन्होंने अपनी आँखों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए धूप का चश्मा पल भर के लिये भी नहीं उतारा। मैं अगर उनसे मिला होता तो कहता-
“जयाजी, यहाँ लाखों लोग ४७–४८ डिग्री तापमान में भी नंगी आँखों खुले में काम करते हैं और एक अच्छा चश्मा खरीदने की औकात नहीं रखते, वे अगर चश्मा खरीदते भी हैं तो अपनों को देने के लिये...वे हिन्दुस्तान में रहने वाले किसी अपने की फरमाईश पूरी करते हैं, अपनी आँखें तो वे कबकी खो चुके होते हैं।"  

एक और बात... जो मोहम्मद ने हमें बताई कि पाँच वर्ष बाद उस दिन सुबह पानी का एक छरका शहर के ऊपर से गुजर गया था, यानी कि बारिश हुई थी, बारिश होने की खुशी उसके चेहरे पर थी। वह बोल रहा था, “पाँच साल पहले भी इधर पानी बरसा था और बाढ़ आ गई थी फिर नहीं बरसा, आज बरसा है, जब आप आया...” वह कहना चाहता था कि मेरा आना इस जगह के लिये शुभ साबित हुआ है। वह सरल हृदय यह नहीं जानता कि इनसान के आगमन और गमन से मौसम नहीं बदला करते। प्रकृति का अपना चक्र है। मैंने आगे कई बरसों तक नोट किया कि हर साल सत्रह फरवरी को पानी जरूर बरसा। अब भी यह तारीख मेरे अस्तित्व का एक ऐसा हिस्सा बनी हुई है कि इसका इंतजार पूरे साल बना रहता है। हालाँकि, अब इस तारीख को बारिश कई बरसों से नहीं हुई, बात कहाँ चली जा रही है...

हमारी बातों के दौरान बंगेरा एक मूक श्रोता ही बना रहा। शहर की ओर तेज गति से भागती वैन के दोनों ओर सड़कों के बीच में डिवाइडर पर पेड़ लगे थे। भारत में मैंने कहीं ऐसा देखा नहीं था। सड़क के किनारे पेड़ तो समझ में आते थे मगर सड़क के बीचों-बीच डिवाइडर पर पेड़ समझ में नहीं आए। पेड़ों में मैं केवल खजूर को ही पहचान पाया। अन्य पेड़ झाड़ीनुमा थे। उन्हें नाम से मैं नहीं पहचान पाया। मैंने उन्हें पहले देखा भी नहीं था। बिना देखे किसी चीज का वर्णन मैं अपने लिखे में नहीं करता, नहीं कर सकता...यह काम बड़े लेखक करते हैं। मैं अभी इतना बड़ा नहीं हुआ कि सरेआम झूठ बोल सकूँ।

सड़क पर हमारी वैन के आगे–आगे मरीचिका चल रही थी और तब उन पलों में मुझे कानपुर के एक चर्चित गीतकार राम स्वरूप ‘सिन्दूर’ का एक गीत याद आ गया...
 
"तुम आए तो सावन आया
गये उठा तूफान
जल में...
जल में तैरे रेगिस्तान।
 
कुछ कहना हो कुछ कह जाऊँ
दिन–दिन भर घर में रह जाऊँ
ताजमहल जैसा लगता है
कलई पुता मकान।
जल में तैरे रेगिस्तान।"
 
जीवन में ऐसा ही तो होता है। कोई आकर अपना बन जाता है तो रेगिस्तान में नखलिस्तान पनप जाता है, कोई अपना निकल जाता है तो जिन्दगी श्मशान बन जाती है ।...‘सिन्दूर’ के इसी गीत का एक बंद है जो मुझे न जाने क्यों कहीं भी और किसी भी समय याद आता है-
 
सोने में चौंकूँ डर जाऊँ
साँस चले, लेकिन मर जाऊँ
सिरहाने रखने को खोजूँ
आधी रात कृपान
जल में तैरे...
जल में तैरे रेगिस्तान।
 
अबूधाबी के तीन ओर समुद्र और उसके बीच रेगिस्तान और, उस रेगिस्तान के बीच एक नखलिस्तान, आदमी के पुरूषार्थ से बनाया हुआ...
मेरे दाँतों को देखकर मोहम्मद ने अनुमान लगाया कि मैं पान खाता हूँ। उसने कहा “पान हो तो खाओ...”
“मैं लेकर नहीं आया, सिगरेट है”
“पियो, लेकिन गाड़ी से बाहर फेंकना नहीं मुखालफा है, पाँच सौ दिरहम”
मालूम हुआ कि मुखालफा माने जुरमाना। उसने ऐश-ट्रे दिखाई जो गियर के पास थी और कहा “इसमें डालने का...”

मैंने सिगरेट सुलगा ली। जैसे राहत की साँस ली हो। फ्लॉइट में तो कुछ सोचने का वक्त ही नहीं मिला था। पता चला कि सड़क पर कुछ फेंकना या थूकना मना है। सड़कें चाँदनी में धुली हुई ज्योत्सना को मात करती थीं। मैंने सोचा कि इतनी सफाई हिन्दुस्तानी क्यों नहीं रख सकते?

यह जानकारी भी उसी दिन मिली कि यहाँ हड़ताल जैसी कोई हरकत नाकाबिले बरदाश्त है। न कभी हुई है और न आगे आशंका है। नौकरी करने आए हो तो करो। नहीं करना है तो वापस जाओ। मुझे अपने देश में आए दिन होनेवाली ऐसी हड़तालें याद आईं जिनसे जन जीवन असामान्य हो उठता है। लोगों को तकलीफ होती है। यहाँ तक कि डॉक्टर भी हड़ताल पर चले जाते हैं और उनके इस कुकृत्य से ठीक हो सकने वाला मरीज भी चिकित्सा सुविधा न मिल पाने के कारण अकाल मृत्यु का शिकार हो जाता है। उस दिन सचमुच सरकार के कठोर रवैये पर संतोष जाहिर किया था मैंने। इंटक एटक लाल झण्डा और मजदूर यूनियनों को याद करके मन खिन्न हो गया था किन्तु बाद में धीरे-धीरे यहाँ रहते हुए अपने अनुभवजन्य जगत से जाना कि भारतीय लोकतंत्र की बराबरी दूसरे मुल्कों, खासतौर पर अरब दुनिया में संभव ही नहीं है। अपने हक की आवाज न उठा पाने के अधिकार के कारण मजदूरों की स्थिति बहुत खराब है। जिनके दम पर अरब दुनिया जगमगाती है उनके चेहरों पर मुर्दनी के सिवाय कुछ भी नहीं दिखता। कुछ भी नहीं होता। खैर, इस संबँध में जब मैं परिशिष्ट लिखूँगा तभी विस्तार से बताऊँगा। फिलहाल तो शीशों के शहर में पहुँचने की बात हो रही है।  

वैन की रफ्तार १२० से १४० किलोमीटर प्रति घण्टा थी लेकिन उसकी खिड़कियाँ बंद होने के कारण स्पीड का आतंक कतई नहीं था। आधे घण्टे से कम समय में ही वैन शहर में दाखिल हुई।

मेरे सामने एक लक–दक शहर था। शीशे का शहर। आकाश चूमती अद्भुत् इमारतें...

कभी स्वप्न में भी ऐसा शहर नहीं देखा था। इन्द्रपुरी की चर्चा जरूर सुनी थी मगर उसकी भी परिकल्पना अबूधाबी की सुन्दरता के आगे ध्वस्त हो गई। हिन्दी फिल्मों में कभी–कभी किसी विदेशी लोकेशन के टुकड़े देखे थे लेकिन तब यह तमीज नहीं थी कि उन टुकड़ों की भौगोलिक जानकारी भी मालूम की जाए।

अपना शहर याद आया जिससे मैं पागलपन की हद तक मोहब्बत आज भी करता हूँ। अपना गाँव याद आया जिसे मैं अपनी साँसों में जीता हूँ। सब कुछ स्लाइड्स की तरह आँखों के आगे से गुजर गया। रहा तो चमत्कृत करता दृश्य कि क्या कोई शहर इतना खूबसूरत भी हो सकता है? बाम्बे का नरीमन प्वाइंट भी खूबसूरत लगा था...लेकिन इतना नहीं। 

सड़क पर वाहनों के नाम पर सनन–सनन गुजरती कारें थीं। उनका तेज गति से गुजरना तभी पता चलता था जब उनके गुजरने से वैन हिल जाती थी।

एक और बात पहली बार देखी कि आवागमन दाहिने से था। भारत में जिस तरह लोग बाँए से चलते हैं उसके ठीक उलट यहाँ दाएँ से चल रहे थे। कारों में स्टेयरिंग बाँए लगे थे।

मोहम्मद ने शहर में जहाँ वैन खड़ी करवाई वहाँ ‘भावना’ रेस्तराँ का बोर्ड लगा था। वैन से बाहर निकलकर रेस्तराँ में पहुँचने तक फिर गर्मी का एहसास हुआ लेकिन अन्दर वातानुकूलित वातावरण था। अबूधाबी में सुबह का पहला नाश्ता मैंने और बंगेरा ने ‘भावना’ में किया। नाश्ते के दौरान बातें होती रहीं। मोहम्मद ने बताया कि ‘वृन्दावन’, ‘स्वागत’, ‘आनन्द’, ‘शारदा’ आदि कई रेस्तराँ हैं जिनमें शुद्ध शाकाहारी भोजन मिलता है। इसके अलावा भी कई रेस्तराँ हैं जो भारतीय लोगों द्वारा चलाए जाते हैं।

‘भावना’ से निकलने के बाद स्कूल पहुँचना ही हमारी मंजिल थी।   

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