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						मैं और बागेश्री शाम के वक़्त अपने घर के पास वाले पार्क 
						में टहलपट्टी का आनंद ले रहे थे। दो–तीन चक्कर लगाए, तो 
						अंधेरा सा घिर आया। पार्क में जितनी बैंचें पड़ी थीं, उन 
						पर जवान जोड़े खुसुर–पुसुर करने लगे। हम दोनों कनखियों से 
						बीच–बीच में जोड़ों को निहार लेते थे, पर टहलने की रफ़्तार 
						कम नहीं करते थे। तीन–चार चक्कर और लग गए तो बागेश्री कहने 
						लगीं, "पता नहीं घंटों तक क्या बातें करते रहते हैं!" मैंने 
						कहा, "अब से तीस साल पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी की रिज पर, 
						घंटों हम जो बात करते थे, वैसे ही ये करते होंगे।" बागेश्री 
						थोड़ी सहज हो गईं। पुराने दिनों की स्मृतियों में खोते हुए 
						बोलीं, "अच्छा बताओ, हम लोग क्या बातें करते थे?" 
						 
						पुरानी यादें 
						मैंने स्मृतियों पर ज़ोर डाला, "आधे से ज़्यादा वक्त तो 
						लड़ते थे, बाकी बचे आधे का आधा सुलह–सफ़ाई और निदान में 
						निकल जाता था। आधे के आधे का आधा घर बसाओ अभियान की रूपरेखा 
						बनाते थे। उसके भी आधे का समय खाने–पीने में बिताते थे। बचा, 
						समझो दो–ढ़ाई परसेंट, उसमें आप मुस्कुरा दीं, हम मुस्कुरा 
						दिए, हाथ थाम लिया, बस, उसी में जीवन सफल हो जाता था।" वे 
						इतरा के कहने लगीं, "अच्छा हम लड़ते किन मुद्दों पर थे?" 
						 
						मुझे याद आए कुछ मुद्दे। एक मुद्दा था शादी का कि कब की 
						जाए और दूसरा पीएच .डी .का कि पहले पीएच .डी .कौन करे। हम 
						दोनों ही विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बनना चाहते थे। मेरी 
						एम .लिट् .पूरी हो चुकी थी इसलिए बिना पीएच.डी. किए नौकरी 
						मिल सकती थी। इस आधार पर तैय हुआ कि पहले बागेश्री की 
						पीएच.डी.हो, बाद में मैं करूं। दूसरा व्यक्ति रिसर्च 
						असिस्टैंट का काम करे। 
						 
						बहरहाल, शादी वाला मसला सुलझ गया। मुझे जामिआ में सन पचहतर 
						में नौकरी मिल गई। घर में दो बच्चे आ गए। मैं बाहर की 
						दुनिया में व्यस्त होता गया और वे घर–संसार में घिर गईं। 
						मुझे विश्वविद्यालय के दबाव के रहते पीएच .डी .करनी पड़ी 
						और बागेश्री जी सहायता भी करती रहीं और उलाहने भी देती रहीं। 
						पीएच.डी. वाला हमारा झगड़ा लगभग पच्चीस साल तक चला। उनकी 
						पीएच.डी. सन दो हज़ार में पूरी हुई। मैंने रिसर्च 
						असिस्टैंट की भूमिका को निष्ठापूर्वक निर्वाह किया। 
						विभिन्न पुस्तकालयों से उपयोगी पुस्तकें लाना और सामग्री 
						संकलन में हाथ बंटाना। विषय था – 'हिंदी कविता की 
						शुक्लपूर्व व्यावहारिक समीक्षा'। उनके शोध के चक्कर में 
						भारत यायावर द्वारा संपादित 'महावीर प्रसाद द्विवेदी 
						रचनावली' हाथ लगी। यह रचनावली पंद्रह भागों में विभक्त थी। 
						 
						वे नाक–भौं नहीं सिकोड़ते थे 
						रचनावली के दूसरे भाग में 'कविसम्मेलन' शीर्षक से एक निबंध 
						नज़र में आया। यह निबंध द्विवेदी जी ने श्रीयुत कविकिंकर 
						नाम से लिखा था। इसका प्रथम प्रकाशन उन्नीस सौ छब्बीस की 
						सरस्वती के जनवरी अंक में हुआ था। निबंध पढ़कर खूब आनंद आया। 
						यह जानकर अच्छा लगा कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी आजकल 
						के साहित्य–समीक्षकों के समान कविसम्मेलनों और कविसम्मेलनी 
						कवियों के नाम पर नाक–भौं नहीं सिकोड़ते थे। वे कविता की 
						वाचिक परंपरा के विरोधी नहीं थे बल्कि प्रबल समर्थक थे। वे 
						चाहते थे कि कविसम्मेलन की कविता को भी तथाकथित 'शिष्ट 
						साहित्य' में यथोचित स्थान मिले। वे मंचीय कवि की सामाजिक 
						सामर्थ्य से परिचित थे। अनेक कविसम्मेलनी कवियों के बारे 
						में उन्होंने कहा कि भले ही इनका पुस्तक अध्ययन–ज्ञान कम 
						हो लेकिन ये जीवन–ज्ञान अधिक रखते हैं। 
						 
						ऐसे कवियों को उन्होंने प्रकृत कवि कहा और उनकी महिमा बताते 
						हुए लिखा– 'प्रकृत कवि क्या नहीं कर सकता? वह रोते हुओं को 
						हंसा सकता है और हंसते हुओं को रूला सकता है। कायरों की रगों 
						में वह वीरता का संचार कर सकता है। सोते हुओं को जगा सकता 
						है, देशद्रोहियों को देशभक्त बना सकता है और मार्गभ्रष्टों 
						को सुमार्ग में ला सकता है। जो मदोन्मत नर या नरेश किसी को 
						कुछ समझते ही नहीं उनके दर्प को कवि ही चूर्ण कर सकता है। 
						वह चाहे तो जगद्विजयी भूपालों के कीर्तिकलाप को कलंकित कर 
						दे। वह चाहे तो अज्ञात या अल्प–प्रसिद्ध नरपालों के 
						यशःशरीर को सदा के लिए नहीं तो चिरकाल के लिए अवश्य ही अमर 
						कर दे। ऐसे विश्ववंद्य कवि की महता को सभी बुधवर स्वीकार 
						करते हैं।' 
						 
						सरस्वती के अन्य अंकों से भी समस्यापूर्ति गोष्ठियों और 
						कविसम्मेलनों की जानकारी मिली। गोष्ठियों–सम्मेलनों का चलन 
						तो भारतेंदु युग में भी था किंतु कविता की भाषा मुख्यरूप 
						से ब्रजभाषा थी। कैसे मजे़दार दिन थे, गद्य लिखो तो खड़ी 
						बोली में, पद्य कहो तो ब्रजभाषा में। या यों भी कह सकते 
						हैं कि जीवन की समस्याओं की भाषा तो बोलचाल की खड़ी बोली 
						और समस्यापूर्ती के लिए ब्रजभाषा की पड़ी बोली। पड़ी बोली 
						इसलिए कहा क्योंकि ब्रजभाषा के काव्य में श्रृंगार का ही 
						अधिक्य रहता था। जनमानस नवजागरण की बेला में आंख खोलकर 
						आधुनिकता की अंगड़ाई ले रहा था, इसलिए कविता अपने लिए 
						ज़िंदगी की भाषा तलाशने लगी। वाचिक परंपरा की कविता का 
						विधिवत कोई इतिहास नहीं लिखा गया, लेकिन एक बात, भले ही 
						अनुमान से सही, पर दावे से कही जा सकती है कि कविता में खड़ी 
						बोली का प्रवेश कविसम्मेलन के मंचों के माध्यम से ही हुआ। 
						 
						कविसम्मेलन की कसौटी 
						कविसम्मेलन की कसौटी है संप्रेषण। बात तत्काल समझ में आनी 
						चाहिए। ब्रजभाषा की कविता का प्राण अलंकारिकता, शब्द–चमत्कार 
						और अप्रत्यक्ष–विधन में था। उस कविता को साहित्य के 
						मर्मज्ञ तो समझ सकते थे लेकिन आम जन के सिर के ऊपर से 
						गुज़र जाती थी। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में कविता 
						समस्यापूर्ति और ब्रजभाषा के खोल से निकलकर बोलचाल के 
						प्लेग्राउंड में आने लगी। कविसम्मेलन यदि बैसवारा अंचल में 
						हो रहा है तो बोलचाल की खड़ी बोली में बैसवारी के शब्द आ 
						जाते थे। बुंदेलखंड अंचल में हो रहा हो तो खड़ी बोली का 
						अंदाज़ बुंदेलखंडी हो जाता था। इसी प्रकार मिथिलांचल में 
						मैथिली और मारवाड़ के आंचल में मारवाडी के संस्पर्श के साथ 
						खड़ी बोली अपनी सुदूरवर्ती व्यावहारिक यात्रा करने लगी। 
						द्विवेदी जी और उनके कुछ अंतरंग समकालीन इस बात को स्वीकार 
						करते थे कि कविता की शर्त मात्र ब्रजभाषा अथवा अवधी नहीं 
						है। कविता सभी भाषाओं और सभी बोलियों में हो सकती है। 
						द्विवेदी जी ने उस निबंध में लिखा– 'देहात में अपढ़, 
						अशिक्षित और गंवार आदमियों के मुंह से, उनकी बोली में, 
						कविता सुनने को मिलती है। उनके गीतों में कवित्व की झलक और 
						सुंदर भावों को सम्मिश्रण देख या सुनकर हृदय आनंद से 
						पुलकित हो जाता है।' बीसवीं सदी की शुरूआत में भाषाओं और 
						बोलियों की कविता के प्रति यह खुला और उदारवादी दृष्टिकोण 
						था। 
						 
						ब्रजभाषा का कोई विरोध नहीं था, न ब्रजभाषा कविता पर कोई 
						पाबंदी थी, लेकिन इतना ज्ञान अवश्य था कि अब ब्रजभाषा में 
						कविता लिखने से केवल ब्रजवासियों को ही प्रसन्नता होगी। 
						अगर बहुसंख्यक लोगों तक जाना है और अन्यान्य प्रांतों के 
						निवासियों को भी अपने हृदयोद्गारों का लाभ देना है तो 
						बोलचाल की हिंदी ही संप्रेषण के लिए अनुकूल रहेगी। इस तरह 
						कविसम्मेलनों ने बोलचाल की सरल भाषा की राह पकड़ी। 
						 
						द्विवेदी जी वस्तुतः लोकप्रिय संस्कृति के हिमायती थे। एक 
						और मज़े की बात, वे रीतिकाल के श्रृंगार–काव्य का घनघोर 
						विरोध करते थे, लेकिन कविसम्मेलनों में पढ़े जाने वाले 
						श्रृंगारिक गीतों का समर्थन करते थे। मैं समझता हूं इसके 
						दो कारण रहे होंगे। एक तो ये कि जिस भाषा में वे साहित्य 
						देखना चाहते थे, कविसम्मेलनों में वह विकसित हो रही थी और 
						दूसरा यह कि उस समय के कविसम्मेलनी कवियों की श्रृंगार 
						कविता जीवन से जुड़ी हुई थी न कि राजा–महाराजाओं से। अब से 
						सौ सवा सौ साल पहले भी जो कविसम्मेलन हुआ करते थे, उनकी 
						बुनियादी समस्याएं वही थीं जो आज के कविसम्मेलन की हैं। 
						यानि, स्तरहीनता, ताली और लिफ़ाफ़ा। 
						 
						अश्लील कविता पर बवंडर 
						उस ज़माने के एक कविसम्मेलन का ज़िक्र मिलता है जिसमें किसी 
						कवि ने ऐसी कविता सुना दी कि बवंडर मच गया। अख़बार में छप 
						गया कि अमुक कवि ने कोई अश्लील कविता पढ़ दी जिससे कुछ 
						श्रोता उद्विग्न हो उठे और उपस्थित महिलाएं सभास्थल छोड़कर 
						चली गईं। मुझे ये पढ़कर सुखद आश्चर्य हुआ कि आचार्य महावीर 
						प्रसाद द्विवेदी ने अख़बार की टिप्पणियों का नहीं बल्कि कवि 
						का ही समर्थन किया। लगभग समर्थन में उन्होंने लिखा– 'विश्वास 
						नहीं होता कि इतने बड़े सभ्य समाज में कोई कवि अश्लील 
						कविताएं सुनाने का साहस करेगा, फिर चाहे उसकी रूचि कितनी 
						ही बुरी क्यों न हो। कवियों में आजकल दलबंदियां खूब हो रही 
						हैं। संभव है, किसी विपक्षी दल के एक या अनेक कवियों ने 
						किसी श्रृंगाररसपूर्ण कविता को अश्लील कह दिया हो, जिसे 
						सुनकर महिलाएं उठ गई हों। उठकर उनके चले जाने के और भी तो 
						कारण हो सकते हैं। संभव है, कविताएं उनकी समझ ही में न आती 
						हों। अश्लीलता के समाचार तो लोगों ने उड़ा दिए पर किसी ने 
						उस अश्लील कविता या उसके भावों का प्रकाशन इशारे से भी नहीं 
						किया।' इस उद्धरण से साफ़–साफ़ झलक रहा है कि वे कविसम्मेलन 
						के उस निरीह कवि को संरक्षण प्रदान करना चाहते हैं। 
						उन्होंने माना कि कविसम्मेलनों में उपहार और पुरस्कार का 
						लालच रहता है। शाबाशी मिलने की कामना रहती है। भले ही 
						गुटबंदी और दलबंदी भी हैं, लेकिन कविसम्मेलनों से व्यापक 
						कविता–प्रेमियों के अंदर नये–नये शब्दों और मनोभावों को 
						समझने और स्वयं भी चुस्त–दुरूस्त भाषा में खुद को व्यक्त 
						करने की शक्ति बढ़ती है। 
						 
						उस ज़माने के कविसम्मेलनों की कुछ झलकियां कभी आगे भी 
						दिखाऊंगा, फिलहाल तीस साल पहले बागेश्री जी के साथ बिताए 
						कुछ लमहों का इतिहास पेशे ख़िदमत है, जिसे आप बैंच पर बैठे 
						जोड़ों का वर्तमान भी मान सकते हैं। 
						 
						चलती रहीं, चलती रहीं, चलती रहीं बातें 
						यहां की, वहां की, इधर की, उधर की 
						इसकी, उसकी, जाने किस–किस की, 
						कि एकाएक 
						सिर्फ़ उसकी आंखों को देखा मैंने 
						उसने देखा मेरा देखना। 
						और . . .तो फिर . . . 
						किधर गईं बातें 
						कहां गई बातें? 
						 
						9 मई 2005  |