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						देश में, और इन दिनों विदेशों में भी, आफ्टर सो मैनी विश्व 
						हिंदी सम्मेलन्स, पढ़ाया जाता है– हिंदी साहित्य। पढ़ाने 
						के लिए मिल गए अनेक हिंदी साहित्य के इतिहास। हिंदी 
						साहित्य के इतिहासों में किया गया काल विभाजन – द आदिकाला, 
						द भक्तिकाला, द रीतिकाला एण्ड द आधुनिककाला। 
						 
						हमारी वाचिक परंपरा तो बहुत पुरानी है लेकिन कविसम्मेलन–मुशायरे 
						के बीज हिंदी साहित्य के इतिहासों में वर्णित रीतिकाल में 
						पड़े होंगे। 'होंगे' इसलिए कह रहा हूं चूंकि हिंदी साहित्य 
						के इतिहासकारों ने 'फुटकर कवि' के अंतर्गत भी मंचीय–कवियों 
						को स्थान नहीं दिया। क्यों? क्योंकि, इतिहास राजाओं के लिखे 
						जाते हैं, प्रजाओं के नहीं। कवियों में जो राजा थे उनकी 
						जयजयकार हुई। प्रजा के कवि, प्रजा में, प्रजा के लिए, प्रजा 
						के द्वारा, कभी ससम्मान कभी उपेक्षा के साथ प्रज्ज्वलित कर 
						दिए गए अथवा इतिहास के बाहर के कब्रिस्तान में दफ़्न कर 
						दिए गए। 
						 
						तीन तरह के कवि 
						तो जी जनाब! वो जो था रीतिकाल, उसमें तीन तरह के कवि गिनाए 
						गए– रीतिसिद्ध, रीतिबद्ध और रीतिमुक्त। और जी, साब जी! ये 
						जो है आधुनिक कविसम्मेलनों का कुरीतिकाल, इसमें भी तीन 
						प्रकार के कवि पाए गए और पाए जाते हैं – कुरीतिसिद्ध, 
						कुरीतिबद्ध और कुरीतिमुक्त। 
						 
						विमर्श सोदाहरण किया जाए तो अच्छा रहता है, लेकिन जीवितों 
						को उदाहरण बनाने में मामला उल्टा भी पड़ सकता है। यह सोचकर, 
						अपने समकालीनों के श्रेणी–विभाजन का कार्य, मैं आगे आने 
						वाले हास्येतिहासकारों पर छोड़ता हूं और पिछली बार बात 
						चूंकि हाथरस पर छोड़ी थी, इसलिए वहीं से उदाहरण उठाता हूं। 
						 
						कुरीतिमुक्त कवि काका 
						हाथरस में एक कुरीतिमुक्त कवि हुए हैं– काका हाथरसी। काकाजी 
						का जन्म 18 सितंबर 1906 को हुआ था। 1995 में इसी दिनांक को 
						वे इस दुनिया को अलविदा कह गए। मैं दावे के साथ कह सकता 
						हूं कि बीसवीं सदी में भारतवर्ष में किसी कवि की ऐसी भव्य 
						अंतिम–यात्रा न निकली होगी, जैसी काकाजी की निकली। अपनी 
						अंतिम–यात्रा के बारे में काकाजी की तीन कामनाएं थीं, जो 
						उन्होंने मुझे भी बताईं। उनकी उस मौखिक वसीयत के अनुसार 
						पहली कामना थी कि उनकी शवयात्रा ऊंटगाड़ी पर निकाली जाए, 
						दूसरी– उनकी शवयात्रा में सब हंसते हुए सम्मिलित हों, रोने 
						पर पाबंदी रहे, और तीसरी– जब उनकी अंत्येष्टि हो तो श्मशान–भूमि 
						में चिता–दहन के समय एक हास्य–कविसम्मेलन आयोजित किया जाए। 
						काकाजी के उतराधिकारियों और हाथरस की जनता ने ऐसा ही किया। 
						 
						अब ज़रा इस कुरीतिमुक्त कवि के बारे में थोड़ा सा जान लिया 
						जाए। बचपन में वे हाथरस से पंद्रह किलोमीटर दूर इगलास नाम 
						की तहसील में अपने नाना के पास रहते थे। प्रारंभ से ही 
						उन्हें संगीत और चित्रकारी का शौक था। 
						 
						काका की क्या ख़ूबियां थीं? काका, काका कैसे बने? यह सब 
						उनकी शताधिक पुस्तकों और विशेष रूप से 'मेरा जीवन ए–वन' 
						नामक उनकी आत्मकथा में मिल जाएगा, पर वे कहते थे– 'हम तौ 
						भइया दर्जा चार पास हैं, इसलिए लोकप्रिय हैं। ज़्यादा पढ़–लिख 
						जाते तो अज्ञेय जैसी कविता लिखने लगते। अच्छौ है हम नायं 
						पढ़े।' अपनी इसी सहजता के साथ काकाजी ने पहली बार हिंदी 
						कविसम्मेलनों को विदेशों तक पहुंचाया। 
						 
						काकाजी की औपचारिक शिक्षा भले ही अधूरी रही हो, पर मैं 
						जानता हूं कि राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का 
						उन्हें गहरा ज्ञान था। भक्तिकाल, रीतिकाल का साहित्य वे 
						बेहद चाव से पढ़ते थे। समझ में आने वाले आधुनिक साहित्य से 
						उनें लगाव था। छंदों पर, खासकर कुंडलियां छंद पर तो उनका 
						पूरा अधिकार था। यह छंद मंच पर उनकी पहचान बना। इसके अलावा 
						निराला से चली आ रही अतुकांत प्रवाह की कविता का अनुसरण 
						करते हुए उन्होंने कथा–सूत्रबद्ध हास्य को जन्म दिया। काका 
						ने अगर कोई कथानक लिया, जैसे, 'बैठते ही विमान में, सन्न–सन्न 
						होने लगी कान में' या 'जा दिन एक बरात कौ मिल्यौ निमंत्रण–पत्र' 
						में, तो उन्होंने स्थितियों की पूरी एक सहज–बोधगम्य गाथा 
						गढ़ी। हिंदी हास्य कविता में कथासूत्रबद्धता को उनके आगे 
						आने वाले कवियों ने बख़ूबी अपनाया। 
						 
						काका की विकास–गाड़ी 
						कविसम्मेलनों में आने से पहले काका ने मुनीमाई की। नौकरी 
						छूटी तो अपने अंदर छिपी कलाओं को जीविकोपार्जन का ज़रिया 
						बनाया। चित्रकारी जानते थे, साइनबोर्ड और पोर्टेट बनाने लगे। 
						अपने सुख के लिए शास्त्रीय संगीतकारों के चित्र बनाते थे। 
						संगीत उनके प्राणों में बसता था। बचपन से ही बांसुरी बजाते 
						थे। फिर संगीत लेखक बने, 'संगीत' नामक मासिक पत्रिका 
						निकालने लगे, जिसके वे स्वयं मुद्रक और प्रकाशक थे। कविताएं 
						तो बचपन से लिखते ही थे, मंच पर आए सन् 1940 के करीब और 
						राष्ट्रीय ख्याति मिली 1957 के दिल्ली लालकिला कविसम्मेलन 
						से। 
						 
						निर्भय माने दांव–पेच 
						हाथरस में ही एक और कवि हुए– निर्भय हाथरसी। निर्भयजी आए 
						थे हाथरस की रसिया–अखाड़े वाली परंपरा से, जहां कविताओं की 
						कुश्तियां हुआ करती थीं। सामने वाले दल को तत्काल नीचा 
						दिखाना है। कौन सा दांव मारा जाए। धोबी–पछाड़, दर्जी–पछाड़, 
						सुनार–पछाड़, लुहार–पछाड़, वे सारे दांव जानते थे। 
						 
						निर्भयजी आशु कवि थे। अगर उनके सोच में नकारात्मकता न होती 
						तो वे महाकवि होते। तुकें उनके बौद्धिक इशारे पर नाचती 
						थीं। वे चमत्कारी शब्द–शोधी थे। एक ओर उनकी ट्रेनिंग रसिया 
						की थी, दूसरी ओर वे तांत्रिक, अघोरभैरवी साधना, श्मशान–सिद्धि 
						जैसी वाममार्गी पूजा–पद्धतियों से जुड़े रहे। उन्होंने 
						काकाजी के बाद दाढ़ी रखी थी और भारतीय जनता की हिंदू 
						भावनाओं को ध्यान में रखते हुए उन्होंने गेरूआ वस्त्र धारण 
						किए। वे मंच पर अपनी आशु–कविता के दौरान उपस्थित कवियों और 
						कवियित्रियों की बखिया उधेड़ते हुए स्वयं कहा करते थे– 'मेरे 
						साधु वेष को देखकर भ्रामित न होना, मैं तो उस वेष में हूं 
						जिस वेष में रावण सीता का हरण करने गया था।' 
						 
						बीसवीं सदी के उतरार्ध के सबसे बड़े कुरीतिसिद्ध कवि 
						निर्भय हाथरसी थे और सबसे बड़े कुरीतिमुक्त कवि थे– काका 
						हाथरसी। कुरीतिबद्ध तो अधिकांशतः सभी मंचीय कवि हैं। 
						बहरहाल, जैसे–जैसे काका की प्रसिद्धि बढ़ी, निर्भय के अंदर 
						का अघोरी परेशान रहने लगा। काकाजी ने सौमनस्य नहीं छोड़ा। 
						वे कहते थे– 'भइया निर्भय सिद्ध कवि है, हम प्रसिद्ध कवि 
						हैं।' काका दिल के कवि थे, निर्भय दिमाग़ के। 
						 
						दोनों का प्रणाम 
						निसंदेह निर्भयजी एक गुरू–कवि थे। गुरूपूर्णिमा के दिन ही 
						उनका पर्यावसान हुआ। कवि राकेश शरद ने बताया कि उनकी अंतिम–यात्रा 
						में उन्होंने चालीस लोग गिने थे। अगर मुझे समय पर समाचार 
						मिला होता तो मैं निश्चित रूप से उनकी अंतिम–यात्रा में 
						शामिल होता और इकतालीसवां व्यक्ति बन जाता। बरसात के कारण 
						शहर के लोग आ नहीं पाए या उनके दिल में उस आदमी के प्रति 
						भावनाओं की बरसात नहीं हो पाई। जो भी हो, निर्भयजी के रोचक 
						किस्से कभी विस्तार से बताऊंगा। अभी तो बात अंतिम यात्राओं 
						की चल रही है। 
						 
						विदाई हो तो ऐसी 
						अंतिम यात्रा के मामले में काकाजी की तीनों कामनाएं पूरी 
						हुईं और अभूतपूर्व ढंग से हुईं। मैं उस महायात्रा में 
						सम्मिलित था जिसमें काकाजी को ऊंट गाड़ी पर लिटाया गया। 
						पूरे हाथरस की मुख्य गलियों और बाज़ारों से यह महायात्रा 
						निकली। हाथरस के अलावा आसपास के गांव–देहात के लगभग एक लाख 
						लोग रहे होंगे जो गाते–बजाते काका को अंतिम विदाई दे रहे 
						थे। महिलाएं छत से फूल बरसा रही थीं। कोई इमरती की माला 
						पहना रहा था, कोई समोसे की, कोई कपास की। जिसका जो व्यापार 
						था, उसने वैसी माला चढ़ाई। ढोलक–मंजीरे के साथ तत्काल रसिया 
						बनाए जा रहे थे और गाए जा रहे थे– 'सुरपुर सिधारौ हमारौ 
						काका, सुरपुर कूं।' कितने ही लाउडस्पीकरों पर कितने ही तरह 
						का गायन–वादन चल रहा था। यह व्यवस्था काका परिवार ने नहीं 
						की थी। पता नहीं कौन बैंड–बाजे ले आया, कहां से ढोलक मंजीरे 
						आ गए। कवियों का एक जत्था काका की कविताएं सुनाते हुए 
						महायात्रा में शामिल था। बेहद रोमांचकारी अनुभव। सब 
						अंतर्मन से काकामय थे। काका की ऊंटगाड़ी पर लिखा था– 'हिंदू 
						मुस्लिम सिख ईसाई, हर पल हंसते रहना भाई।' जब हम श्मशान 
						पहुंचे तो वहां माइक और बिछावन की व्यवस्था पहले से थी। 
						श्मशान में जहां पर शव को रखा जाता है वहां कवियों के लिए 
						मंच बना दिया गया। उधर काका पंचतत्वों में विलीन हो रहे 
						थे, इधर मरघट में कवि काव्यपाठ में तल्लीन थे। काका की 
						कामना थी कि अंतिम यात्रा में कोई रोएगा नहीं, सचमुच लोगों 
						ने अपने आंसुओं पर नियंत्रण रखा। सिर्फ़ एक को मैंने आंसुओं 
						से रोते देखा, वह थीं काकी। 
						 
						लगाव ऊंट–गाड़ी से 
						लोग रोएं नहीं, हंसते–गाते विदा करें, ये कामनाएं तो ठीक 
						हैं, पर काका को ऊंट–गाड़ी से प्यार क्यों था? ऊंट और ऊंट–गाड़ी 
						पर उनकी अनेक कविताएं मिलती हैं। एक यात्रा में उन्होंने 
						मुझे बताया कि इगलास में दरजा चार पास करने के बाद मन्नी 
						मामा ने उन्हें लखमीचंद वकील साहब के पास अंग्रोज़ी सीखने 
						भेजा। वकील साहब भारी भरकम और गोल–मटोल डील–डौल के स्वामी 
						थे। उनके व्यक्तित्व के बेडौलत्व ने उनके अंदर कविता के 
						कीटाणु सक्रिय कर दिए। चटपट एक कविता लिख डाली। लिखते ही 
						अपने बालसखा को सुनाई। बालसखा दग़ाबाज़ निकला काग़ज़ छीनकर 
						वकील साहब को दे आया। पढ़ते ही वकील साहब आग–बबूला हो गए। 
						काकाजी की वह पहली कविता इस प्रकार थी– 
						 
						'एक पुलिंदा बांधकर कर दी उस पर सील, 
						खोला तो निकले वहां लखमीचंद वकील। 
						लखमीचंद वकील, बदन में इतने भारी, 
						बैठ जायं तो पंचर हो जाती है लारी। 
						अगर कभी श्रीमान् ऊंट गाड़ी में जाएं, 
						पहिए चूं–चूं करें ऊंट को मिर्गी आएं।' 
						 
						9 अगस्त 2005  |