गजाधर
बाबू खुश थे, बहुत खुश। पैंतीस साल की नौकरी के बाद वह रिटायर
हो कर जा रहे थे। इन वर्षों में अधिकांश समय उन्होंने अकेले रह
कर काटा था। उन अकेले क्षणों में उन्होंने इसी समय की कल्पना
की थी, जब वह अपने परिवार के साथ रह सकेंगे। इसी आशा के सहारे
वह अपने अभाव का बोझ ढो रहे थे। संसार की दृष्टि से उनका जीवन
सफल कहा जा सकता था। उन्होंने शहर में एक मकान बनवा लिया था,
बड़े लड़के अमर और लड़की कान्ति की शादियाँ कर दी थीं, दो
बच्चे ऊँची कक्षाओं में पढ़ रहे थे। गजाधर बाबू नौकरी के कारण
प्राय: छोटे स्टेशनों पर रहे और उनके बच्चे तथा पत्नी शहर में,
जिससे पढ़ाई में बाधा न हो। गजाधर बाबू स्वभाव से बहुत स्नेही
व्यक्ति थे और स्नेह के आकांक्षी भी। जब परिवार साथ था, डयूटी
से लौट कर बच्चों से हँसते-खेलते, पत्नी से कुछ मनोविनोद करते
- उन सबके चले जाने से उनके जीवन में गहन सूनापन भर उठा। खाली
क्षणों में उनसे घरमें टिका न जाता। कवि प्रकृति के न होने पर
भी उन्हें पत्नी की स्नेहपूर्ण बातें याद आती रहतीं। दोपहर में
गर्मी होने पर भी दो बजे तक आग जलाए रहती और मना करने पर भी
थोड़ा-सा कुछ और थाली में परोस देती और बड़े प्यार से आग्रह
करती। जब वह थके-हारे बाहर से आते, तो उनकी आहट पा वह रसोई के
द्वार पर निकल आती और उनकी सलज्ज आँखे मुस्करा उठतीं। गजाधर
बाबू को तब हर छोटी बात भी याद आती और उदास हो उठते। अब कितने
वर्षों बाद वह अवसर आया था जब वह फिर उसी स्नेह और आदर के मध्य
रहने जा रहे थे। टोपी
उतार कर गजाधर बाबू ने चारपाई पर रख दी, जूते खोल कर नीचे
खिसका दिए, अन्दर से रह-रह कर कहकहों की आवाज़ आ रही थी, इतवार
का दिन था और उनके सब बच्चे इकठ्ठे हो कर नाश्ता कर रहे थे।
गजाधर बाबू के सूखे होठों पर स्निग्ध मुस्कान आ गई, उसी तरह
मुस्कुराते हुए वह बिना खाँसे अन्दर चले आए। उन्होंने देखा कि
नरेन्द्र कमर पर हाथ रखे शायद रात की फिल्म में देखे गए किसी
नृत्य की नकल कर रहा था और बसन्ती हँस-हँस कर दुहरी हो रही थी।
अमर की बहू को अपने तन-बदन, आँचल या घूंघट का कोई होश न था और
वह उन्मुक्त रूप से हँस रही थी। गजाधर बाबू को देखते ही
नरेंद्र धप-से बैठ गया और चाय का प्याला उठा कर मुँह से लगा
लिया। बहू को होश आया और उसने झट से माथा ढक लिया, केवल बसन्ती
का शरीर रह-रह कर हँसी दबाने के प्रयत्न में हिलता रहा।
गजाधर बाबू ने मुस्कराते हुए
उन लोगों को देखा। फिर कहा, ''क्यों नरेन्द्र, क्या नकल हो रही
थी?''
''कुछ नहीं बाबू जी।'' नरेन्द्रने सिर फिराकर कहा। गजाधर बाबू
ने चाहा था कि वह भी इस मनो-विनोद में भाग लेते, पर उनके आते
ही जैसे सब कुण्ठित हो चुप हो गए, उसे उनके मनमें थोड़ी-सी
खिन्नता उपज आई। बैठते हुए बोले, ''बसन्ती, चाय मुझे भी देना।
तुम्हारी अम्मा की पूजा अभी चल रही है क्या?''
बसन्ती ने माँ की कोठरी की ओर देखा, ''अभी आती ही होंगी'' और
प्याले में उनके लिए चाय छानने लगी। बहू चुपचाप पहले ही चली गई
थी, अब नरेन्द्र भी चाय का आखिरी घूँट पी कर उठ खड़ा हुआ। केवल
बसन्ती पिता के लिहाज में, चौके में बैठी माँ की राह देखने
लगी। गजाधर बाबू ने एक घूँट चाय पी, फिर कहा, ''बिट्टी - चाय
तो फीकी है।''
''लाइए, चीनी और डाल दूँ।'' बसन्ती बोली।
''रहने दो, तुम्हारी अम्मा जब आएगी, तभी पी लूँगा।''
थोड़ी देर में उनकी पत्नी हाथ
में अर्घ्य का लोटा लिए निकली और अशुद्ध स्तुति कहते हुए तुलसी
को डाल दिया। उन्हें देखते ही बसन्ती भी उठ गई। पत्नी ने आकर
गजाधर बाबू को देखा और कहा, ''अरे आप अकेले बैंठें हैं - ये सब
कहाँ गए?'' गजाधर बाबू के मन में फाँस-सी करक उठी, ''अपने-अपने
काम में लग गए हैं - आखिर बच्चे ही हैं।''
पत्नी आकर चौके में बैठ गई, उन्होनें नाक-भौं चढ़ाकर चारों ओर
जूठे बर्तनों को देखा। फिर कहा, ''सारे में जूठे बर्तन पड़े
हैं। इस घर में धरम-करम कुछ है नहीं। पूजा करके सीधे चौंके में
घुसो।'' फिर उन्होंने नौकर को पुकारा, जब उत्तर न मिला तो एक
बार और उच्च स्वर में फिर पति की ओर देख कर बोलीं, ''बहू ने
भेजा होगा बाज़ार।'' और एक लम्बी साँस ले कर चुप हो रहीं।
गजाधर बाबू बैठ कर चाय और
नाश्ते का इन्तज़ार करते रहे। उन्हें अचानक गनेशी की याद आ गई।
रोज़ सुबह, पॅसेंजर आने से पहले यह गरम-गरम पूरियाँ और
जलेबियाँ और चाय लाकर रख देता था। चाय भी कितनी बढ़िया, काँच
के गिलास में उपर तक भरी लबालब, पूरे ढ़ाई चम्मच चीनी और गाढ़ी
मलाई। पैसेंजर भले ही रानीपुर लेट पहुँचे, गनेशी ने चाय
पहुँचाने में कभी देर नहीं की। क्या मजाल कि कभी उससे कुछ कहना
पड़े।
पत्नी का शिकायत भरा स्वर सुन
उनके विचारों में व्याघात पहुँचा। वह कह रही थी, ''सारा दिन
इसी खिच-खिच में निकल जाता है। इस गृहस्थी का धन्धा
पीटते-पीटते उमर बीत गई। कोई ज़रा हाथ भी नहीं बटाता।''
''बहू क्या किया करती हैं?'' गजाधर बाबू ने पूछा।
''पड़ी रहती है। बसन्ती को तो, फिर कहो कि कॉलेज जाना होता
हैं।''
गजाधर बाबू ने जोश में आकर बसन्ती को आवाज़ दी। बसन्ती भाभी के
कमरे से निकली तो गजाधर बाबू ने कहा, ''बसन्ती, आज से शाम का
खाना बनाने की ज़िम्मेदारी तुम पर है। सुबह का भोजन तुम्हारी
भाभी बनाएगी।'' बसन्ती मुँह लटका कर बोली, ''बाबू जी, पढ़ना भी
तो होता है।''
गजाधर बाबू ने प्यार से समझाया, ''तुम सुबह पढ़ लिया करो।
तुम्हारी माँ बूढ़ी हुई, अब वह शक्ति नहीं बची हैं। तुम हो,
तुम्हारी भाभी हैं, दोनों को मिलकर काम में हाथ बँटाना
चाहिए।''
बसन्ती चुप रह गई। उसके जाने के बाद उसकी माँ ने धीरे से कहा,
''पढ़ने का तो बहाना है। कभी जी ही नहीं लगता, लगे कैसे? शीला
से ही फुरसत नहीं, बड़े बड़े लड़के है उस घर में, हर वक्त वहाँ
घुसा रहना मुझे नहीं सुहाता। मना करू तो सुनती नहीं।''
नाश्ता कर गजाधर बाबू बैठक
में चले गए। घर लौटा था और ऐसी व्यवस्था हो चुकी थी कि उसमें
गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्थान न बचा था। जैसे किसी
मेहमान के लिए कुछ अस्थायी प्रबन्ध कर दिया जाता है, उसी
प्रकार बैठक में कुरसियों को दीवार से सटाकर बीच में गजाधर
बाबू के लिए पतली-सी चारपाई डाल दी गई थी। गजाधर बाबू उस कमरे
में पड़े पड़े कभी-कभी अनायास ही इस अस्थायित्व का अनुभव करने
लगते। उन्हें याद आती उन रेलगाडियों की जो आती और थोड़ी देर
रुक कर किसी और लक्ष की ओर चली जाती।
घर छोटा होने के कारण बैठक
में ही अब अपना प्रबन्ध किया था। उनकी पत्नी के पास अन्दर एक
छोटा कमरा अवश्य था, पर वह एक ओर अचारों के मर्तबान, दाल, चावल
के कनस्तर और घी के डिब्बों से घिरा था, दूसरी ओर पुरानी
रजाइयाँ, दरियों में लिपटी और रस्सी से बाँध रखी थी, उनके पास
एक बड़े से टीन के बक्स में घर-भर के गरम कपड़े थे। बींच में
एक अलगनी बँधी हुई थी, जिस पर प्राय: बसन्ती के कपड़े लापरवाही
से पड़े रहते थे। वह भरसक उस कमरे में नहीं जाते थे। घर का
दूसरा कमरा अमर और उसकी बहू के पास था, तीसरा कमरा, जो सामने
की ओर था। गजाधर बाबू के आने से पहले उसमें अमर के ससुराल से
आया बेंत का तीन कुरसियों का सेट पड़ा था, कुरसियों पर नीली
गद्दियाँ और बहू के हाथों के कढ़े कुशन थे।
जब कभी उनकी पत्नी को कोई
लम्बी शिकायता करनी होती, तो अपनी चटाई बैढ़क में डाल पड़ जाती
थीं। वह एक दिन चटाई ले कर आ गई। गजाधर बाबू ने घर-गृहस्थी की
बातें छेड़ी, वह घर का रवय्या देख रहे थे। बहुत हलके से
उन्होंने कहा कि अब हाथ में पैसा कम रहेगा, कुछ खर्चा कम करना
चाहिए।
''सभी खर्च तो वाजिब-वाजिब है, न मन का पहना, न ओढ़ा।''
गजाधर बाबू ने आहत, विस्मित
दृष्टि से पत्नी को देखा। उनसे अपनी हैसियत छिपी न थी। उनकी
पत्नी तंगी का अनुभव कर उसका उल्लेख करतीं। यह स्वाभाविक था,
लेकिन उनमें सहानुभूति का पूर्ण अभाव गजाधर बाबू को बहुत खटका।
उनसे यदि राय-बात की जाती कि प्रबन्ध कैसे हो, तो उन्हें
चिन्ता कम, संतोष अधिक होता लेकिन उनसे तो केवल शिकायत की जाती
थी, जैसे परिवार की सब परेशानियों के लिए वही जिम्मेदार थे।
''तुम्हे कमी किस बात की है अमर की माँ - घर में बहू है,
लड़के-बच्चे हैं, सिर्फ़ रुपए से ही आदमी अमीर नहीं होता।''
गजाधर बाबू ने कहा और कहने के साथ ही अनुभव किया। यह उनकी
आन्तरिक अभिव्यक्ति थी - ऐसी कि उनकी पत्नी नहीं समझ सकती।
''हाँ, बड़ा सुख है न बहू से। आज रसोई करने गई है, देखो क्या
होता हैं?'' कहकर पत्नी ने आँखे मूँदी और सो गई। गजाधर बाबू
बैठे हुए पत्नी को देखते रह गए। यही थी क्या उनकी पत्नी, जिसके
हाथों के कोमल स्पर्श, जिसकी मुस्कान की याद में उन्होंने
सम्पूर्ण जीवन काट दिया था? उन्हें लगा कि वह लावण्यमयी युवती
जीवन की राह में कहीं खो गई और उसकी जगह आज जो स्त्री है, वह
उनके मन और प्राणों के लिए नितान्त अपरिचिता है। गाढ़ी नींद
में डूबी उनकी पत्नी का भारी शरीर बहुत बेडौल और कुरूप लग रहा
था, श्रीहीन और रूखा था। गजाधर बाबू देर तक निस्वंग दृष्टि से
पत्नी को देखते रहें और फिर लेट कर छत की ओर ताकने लगे।
अन्दर कुछ गिरा दिया शायद, और
वह अन्दर भागी। थोड़ी देर में लौट कर आई तो उनका मुँह फूला हुआ
था। ''देखा बहू को, चौका खुला छोड़ आई, बिल्ली ने दाल की पतीली
गिरा दी। सभी खाने को है, अब क्या खिलाऊँगी?'' वह साँस लेने को
रुकी और बोली, ''एक तरकारी और चार पराठे बनाने में सारा डिब्बा
घी उंडेल रख दिया। ज़रा-सा दर्द नहीं हैं, कमानेवाला हाड़ तोडे
और यहाँ चीज़ें लुटें। मुझे तो मालूम था कि यह सब काम किसी के
बस का नहीं हैं।'' गजाधर बाबू को लगा कि पत्नी कुछ और रात का
भोजन बसन्ती ने जान बूझ कर ऐसे बनाया था कि कौर तक निगला न जा
सके। |