गजाधर बाबू चुपचाप खा कर उठ गए
पर नरेन्द्र थाली सरका कर उठ खड़ा हुआ और बोला, ''मैं ऐसा खाना
नहीं खा सकता।''
बसन्ती तुनककर बोली, ''तो न खाओ, कौन तुम्हारी खुशामद कर रहा
है।''
''तुमसे खाना बनाने को किसने कहा था?'' नरेंद्र चिल्लाया।
''बाबू जी ने।''
''बाबू जी को बैठे-बैठे यही सूझता है।''
बसन्ती को उठा कर माँ ने नरेंद्र को मनाया और अपने हाथ से कुछ
बना कर खिलाया। गजाधर बाबू ने बाद में पत्नी से कहा, ''इतनी
बड़ी लड़की हो गई और उसे खाना बनाने तक का सहूर नहीं आया।''
''अरे आता सब कुछ है, करना नहीं चाहती।'' पत्नी ने उत्तर दिया।
अगली शाम माँ को रसोई में देख कपड़े बदल कर बसन्ती बाहर आई तो
बैठक में गजाधर बाबू ने टोंक दिया, ''कहाँ जा रही हो?''
''पड़ोस में शीला के घर।'' बसन्ती ने कहा।
''कोई ज़रूरत नहीं हैं, अन्दर जा कर पढ़ो।'' गजाधर बाबू ने
कड़े स्वर में कहा। कुछ देर अनिश्चित खड़े रह कर बसन्ती अन्दर
चली गई। गजाधर बाबू शाम को रोज़ टहलने चले जाते थे, लौट कर आए
तो पत्नी ने कहा, ''क्या कह दिया बसन्ती से? शाम से मुँह लपेटे
पड़ी है। खाना भी नहीं खाया।''
गजाधर बाबू खिन्न हो आए।
पत्नी की बात का उन्होंने उत्तर नहीं दिया। उन्होंने मन में
निश्चय कर लिया कि बसन्ती की शादी जल्दी ही कर देनी है। उस दिन
के बाद बसन्ती पिता से बची-बची रहने लगी। जाना हो तो पिछवाड़े
से जाती। गजाधर बाबू ने दो-एक बार पत्नी से पूछा तो उत्तर
मिला, ''रूठी हुई हैं।'' गजाधर बाबू को और रोष हुआ। लड़की के
इतने मिज़ाज, जाने को रोक दिया तो पिता से बोलेगी नहीं। फिर
उनकी पत्नी ने ही सूचना दी कि अमर अलग होने की सोच रहा हैं।
''क्यों?'' गजाधर बाबू ने चकित हो कर पूछा।
पत्नी ने साफ़-साफ़ उत्तर
नहीं दिया। अमर और उसकी बहू की शिकायतें बहुत थी। उनका कहना था
कि गजाधर बाबू हमेशा बैठक में ही पड़े रहते हैं, कोई
आने-जानेवाला हो तो कहीं बिठाने की जगह नहीं। अमर को अब भी वह
छोटा-सा समझते थे और मौके-बेमौके टोक देते थे। बहू को काम करना
पड़ता था और सास जब-तब फूहड़पन पर ताने देती रहती थीं।
''हमारे आने के पहले भी कभी ऐसी बात हुई थी?'' गजाधर बाबू ने
पूछा।
पत्नी ने सिर हिलाकर जताया कि
नहीं, पहले अमर घर का मालिक बन कर रहता था, बहू को कोई रोक-टोक
न थी, अमर के दोस्तों का प्राय: यहीं अड्डा जमा रहता था और
अन्दर से चाय नाश्ता तैयार हो कर जाता था। बसन्ती को भी वही
अच्छा लगता था।
गजाधर बाबू ने बहुत धीरे से कहा, ''अमर से कहो, जल्दबाज़ी की
कोई ज़रूरत नहीं हैं।''
अगले दिन सुबह घूम कर लौटे तो
उन्होंने पाया कि बैठक में उनकी चारपाई नहीं हैं। अन्दर आकर
पूछने वाले ही थे कि उनकी दृष्टि रसोई के अन्दर बैठी पत्नी पर
पड़ी। उन्होंने यह कहने को मुँह खोला कि बहू कहाँ है, पर कुछ
याद कर चुप हो गए। पत्नी की कोठरी में झाँका तो अचार, रजाइयों
और कनस्तरों के मध्य अपनी चारपाई लगी पाई। गजाधर बाबू ने कोट
उतारा और कहीं टाँगने के लिए दीवार पर नज़र दौड़ाई। फिर उसपर
मोड़ कर अलगनी के कुछ कपड़े खिसका कर एक किनारे टाँग दिया। कुछ
खाए बिना ही अपनी चारपाई पर लेट गए। कुछ भी हो, तन आखिरकार
बूढ़ा ही था। सुबह शाम कुछ दूर टहलने अवश्य चले जाते, पर
आते-आते थक उठते थे। गजाधर बाबू को अपना बड़ा-सा, खुला हुआ
क्वार्टर याद आ गया। निश्चित जीवन - सुबह पॅसेंजर ट्रेन आने पर
स्टेशन पर की चहल-पहल, चिर-परिचित चेहरे और पटरी पर रेल के
पहियों की खट्-खट् जो उनके लिए मधुर संगीत की तरह था। तूफ़ान
और डाक गाडी के इंजिनों की चिंघाड उनकी अकेली रातों की साथी
थी। सेठ रामजीमल की मिल के कुछ लोग कभी-कभी पास आ बैठते, वह
उनका दायरा था, वही उनके साथी। वह जीवन अब उन्हें खोई विधि-सा
प्रतीत हुआ। उन्हें लगा कि वह ज़िन्दगी द्वारा ठगे गए हैं।
उन्होंने जो कुछ चाहा उसमें से उन्हें एक बूँद भी न मिली।
लेटे हुए वह घर के अन्दर से
आते विविध स्वरों को सुनते रहे। बहू और सास की छोटी-सी झड़प,
बाल्टी पर खुले नल की आवाज़, रसोई के बर्तनों की खटपट और उसी
में गौरैयों का वार्तालाप - और अचानक ही उन्होंने निश्चय कर
लिया कि अब घर की किसी बात में दखल न देंगे। यदि गृहस्वामी के
लिए पूरे घर में एक चारपाई की जगह यहीं हैं, तो यहीं पड़े
रहेंगे। अगर कहीं और डाल दी गई तो वहाँ चले जाएँगे।
यदि बच्चों के जीवन में उनके लिए कहीं स्थान नहीं, तो अपने ही
घर में परदेसी की तरह पड़े रहेंगे। और उस दिन के बाद सचमुच
गजाधर बाबू कुछ नहीं बोले। नरेंद्र माँगने आया तो उसे बिना
कारण पूछे रुपए दे दिए बसन्ती काफी अंधेरा हो जाने के बाद भी
पड़ोस में रही तो भी उन्होंने कुछ नहीं कहा - पर उन्हें सबसे
बड़ा गम़ यह था कि उनकी पत्नी ने भी उनमें कुछ परिवर्तन लक्ष्य
नहीं किया। वह मन ही मन कितना भार ढो रहे हैं, इससे वह अनजान
बनी रहीं। बल्कि उन्हें पति के घर के मामले में हस्तक्षेप न
करने के कारण शान्ति ही थी। कभी-कभी कह भी उठती, ''ठीक ही हैं,
आप बीच में न पड़ा कीजिए, बच्चे बड़े हो गए हैं, हमारा जो
कर्तव्य था, कर रहें हैं। पढ़ा रहें हैं, शादी कर देंगे।''
गजाधर बाबू ने आहत दृष्टि से पत्नी को देखा। उन्होंने अनुभव
किया कि वह पत्नी व बच्चों के लिए केवल धनोपार्जन के
निमित्तमात्र हैं।
जिस व्यक्ति के अस्तित्व से
पत्नी माँग में सिन्दूर डालने की अधिकारी हैं, समाज में उसकी
प्रतिष्ठा है, उसके सामने वह दो वक्त का भोजन की थाली रख देने
से सारे कर्तव्यों से छुट्टी पा जाती हैं। वह घी और चीनी के
डब्बों में इतना रमी हुई हैं कि अब वही उनकी सम्पूर्ण दुनिया
बन गई हैं। गजाधर बाबू उनके जीवन के केंद्र नहीं हो सकते,
उन्हें तो अब बेटी की शादी के लिए भी उत्साह बुझ गया। किसी बात
में हस्तक्षेप न करने के निश्चय के बाद भी उनका अस्तित्व उस
वातावरण का एक भाग न बन सका। उनकी उपस्थिति उस घर में ऐसी
असंगत लगने लगी थी, जैसे सजी हुई बैठक में उनकी चारपाई थी।
उनकी सारी खुशी एक गहरी उदासीनता में डूब गई।
इतने सब निश्चयों के बावजूद भी गजाधर बाबू एक दिन बीच में दखल
दे बैठे। पत्नी स्वभावानुसार नौकर की शिकायत कर रही थी,
''कितना कामचोर है, बाज़ार की हर चीज़ में पैसा बनाता है, खाना
खाने बैठता है तो खाता ही चला जाता हैं। ''गजाधर बाबू को बराबर
यह महसूस होता रहता था कि उनके रहन सहन और खर्च उनकी हैसियत से
कहीं ज्यादा हैं। पत्नी की बात सुन कर लगा कि नौकर का खर्च
बिलकुल बेकार हैं। छोटा-मोटा काम हैं, घर में तीन मर्द हैं,
कोई-न-कोई कर ही देगा। उन्होंने उसी दिन नौकर का हिसाब कर
दिया। अमर दफ्तर से आया तो नौकर को पुकारने लगा। अमर की बहू
बोली, ''बाबू जी ने नौकर छुड़ा दिया हैं।''
''क्यों?''
''कहते हैं, खर्च बहुत है।''
यह वार्तालाप बहुत सीधा-सा था, पर जिस टोन में बहू बोली, गजाधर
बाबू को खटक गया। उस दिन जी भारी होने के कारण गजाधर बाबू
टहलने नहीं गए थे। आलस्य में उठ कर बत्ती भी नहीं जलाई - इस
बात से बेखबर नरेंद्र माँ से कहने लगा, ''अम्मा, तुम बाबू जी
से कहती क्यों नहीं? बैठे-बिठाए कुछ नहीं तो नौकर ही छुड़ा
दिया। अगर बाबू जी यह समझें कि मैं साइकिल पर गेंहूँ रख आटा
पिसाने जाऊँगा तो मुझसे यह नहीं होगा।''
''हाँ अम्मा,'' बसन्ती का स्वर था, ''मैं कॉलेज भी जाऊँ और लौट
कर घर में झाड़ू भी लगाऊँ, यह मेरे बस की बात नहीं हैं।''
''बूढ़े आदमी हैं'' अमर भुनभुनाया, ''चुपचाप पड़े रहें। हर
चीज़ में दखल क्यों देते हैं?'' पत्नी ने बड़े व्यंग से कहा,
''और कुछ नहीं सूझा तो तुम्हारी बहू को ही चौके में भेज दिया।
वह गई तो पंद्रह दिन का राशन पाँच दिन में बना कर रख दिया।''
बहू कुछ कहे, इससे पहले वह चौके में घुस गई। कुछ देर में अपनी
कोठरी में आई और बिजली जलाई तो गजाधर बाबू को लेटे देख बड़ी
सिटपिटाई। गजाधर बाबू की मुखमुद्रा से वह उनके भावों का अनुमान
न लगा सकी। वह चुप, आँखे बंद किए लेटे रहे।
गजाधर बाबू चिठ्ठी हाथ में
लिए अन्दर आए और पत्नी को पुकारा। वह भीगे हाथ लिए निकलीं और
आँचल से पोंछती हुई पास आ खड़ी हुई। गजाधर बाबू ने बिना किसी
भूमिका के कहा, ''मुझे सेठ रामजीमल की चीनी मिल में नौकरी मिल
गई हैं। खाली बैठे रहने से तो चार पैसे घर में आएँ, वहीं अच्छा
हैं। उन्होंने तो पहले ही कहा था, मैंने मना कर दिया था।'' फिर
कुछ रुक कर, जैसी बुझी हुई आग में एक चिनगारी चमक उठे,
उन्होंने धीमे स्वर में कहा, ''मैंने सोचा था, बरसों तुम सबसे
अलग रहने के बाद, अवकाश पा कर परिवार के साथ रहूँगा। खैर,
परसों जाना हैं। तुम भी चलोगी?'' ''मैं?'' पत्नी ने सकपकाकर
कहा, ''मैं चलूंगी तो यहाँ क्या होग? इतनी बड़ी गृहस्थी, फिर
सयानी लड़की।"
बात बीच में काट कर गजाधर बाबू ने हताश स्वर में कहा, ''ठीक
हैं, तुम यहीं रहो। मैंने तो ऐसे ही कहा था।'' और गहरे मौन में
डूब गए।
नरेंद्र ने बड़ी तत्परता से
बिस्तर बाँधा और रिक्शा बुला लाया। गजाधर बाबू का टीन का बक्स
और पतला-सा बिस्तर उस पर रख दिया गया। नाश्ते के लिए लड्डू और
मठरी की डलिया हाथ में लिए गजाधर बाबू रिक्शे में बैठ गए। एक
दृष्टि उन्होंने अपने परिवार पर डाली और फिर दूसरी ओर देखने
लगे और रिक्शा चल पड़ा। उनके जाने के बाद सब अन्दर लौट आए, बहू
ने अमर से पूछा, ''सिनेमा चलिएगा न?''
बसन्ती ने उछल कर कहा, ''भैया, हमें भी।''
गजाधर बाबू की पत्नी सीधे
चौके में चली गई। बची हुई मठरियों को कटोरदान में रखकर अपने
कमरे में लाई और कनस्तरों के पास रख दिया। फिर बाहर आ कर कहा,
''अरे नरेन्द्र, बाबू जी की चारपाई कमरे से निकाल दे, उसमें
चलने तक को जगह नहीं हैं।'' |