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कहानियाँ

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस माह प्रस्तुत है, भारत से
चंद्रकांता की कहानी- "रसूल अहमद बल्द महदजू उर्फ ऋषि परंपरा का दुखांत"।


इधर जम्मू में दो घटनाएँ ऐसी घटीं, जो अप्रत्याशित न होते हुए भी रैना परिवार को कुछ आश्चर्यजनक लगीं, यों विचारों के दौर में देखा जाए तो, अप्रत्याशित-असंभव, और आश्चर्यजनक जैसे शब्द काफी छीज गये थे। अब विश्व में कहीं भी कुछ हो सकता था। आकाश में छेद हो सकता था, समुद्र सूख सकता था। मनचाहे क्लोन बन सकते थे, लोग मार्स पर बसने की सोच सकते थे।

वादी में तो लोगों ने आश्चर्य करना कब का छोड़ दिया था। वहाँ किसी के दरवाजे पर मेहंदी का पैकेट रखा मिलता, तो घर वाले समझ लेते कि "जेहादी" उनकी बेटी से विवाह रचाना चाहते हैं।

वहाँ कमला-बिमला के वक्ष काट कर, कान में डेजहोरू की तरह लटकाए जा रहे थे, बांडीपुर के टुक्कर गाँव की युवती को भोगने के बाद, जिंदा ही आरी से दो हिस्सों में काटा जा रहा था।

वहाँ अपने ही "दोस्त को काफिर" कह कर कोंच-कोंच कर जख्मी किया जा रहा था और उसका जाता खून बोतलों में भर कर इसलिए इकठ्ठा किया जाता कि वक्ते जरूरत, मुजाहिदों के काम आ सके।

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