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कहानियाँ

समकालीन हिन्दी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
सुधा अरोड़ा की कहानी—"औरतः दो चेहरे"।


पहला चेहरा–(शादी के पाँच साल बाद)–रहोगी तुम वही

'क्या यह जरूरी है कि तीन बार घंटी बजने से पहले दरवाजा खोला ही न जाए? ऐसा भी कौन सा पहाड़ काट रही होती हो। आदमी थका–माँदा ऑफिस से आए और पाँच मिनट दरवाजे पर ही खड़ा रहे...
'इसे घर कहते हैं? यहाँ कपड़ों का ढेर, वहाँ खिलौनों का ढेर। इस घर में कोई चीज़
सलीके से रखी नहीं जा सकती?
.......
'उफ! इस बिस्तर पर तो बैठना मुश्किल है, चादर से पेशाब की गंध आ रही है। यहाँ–वहाँ पोतड़े सुखाती रहोगी तो गंध तो आएगी ही... कभी गद्दे को धूप ही लगवा लिया करो, पर तुम्हारा तो बारह महीने नाक ही बन्द रहता है, तुम्हें कोई गंध–दुर्गन्ध नहीं आती।
.......

'अच्छा, तुम सारा दिन यही करती रहती हो क्या? जब देखो तो लिथड़ी बैठी हो बच्चों में। मेरी माँ ने सात–सात बच्चे पाले थे, फिर भी घर साफ–सुथरा रहता था। तुमने तो दो बच्चों में ही घर की वह दुर्दशा कर रखी है जैसे घर में क्रिकेट की पूरी टीम पल रही है।

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