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                    मादकता जब कण-कण में समाने लगे, 
                    ऊँच-नीच, छोटे-बड़े के सारे भेद मिटाकर सबको एक धरातल पर ला 
                    पटके, फिर सबके सिर पर सवार हो जाए, तो उसी को होली कहते हैं। 
                    और वह होली की एक ऐसी ही पूर्वसंध्या थी। मन कुलबुलाने लगा तो 
                    मैं निकल गया यार-दोस्तों की तरफ़। पर ज़्यादातर किसी न किसी 
                    नशे में मस्त थे। एक दोस्त ने मेरा मुँह सूँघा फिर बड़ी मायूसी 
                    से बोला - "तुम्हारा तो जीवन ही व्यर्थ है!"
					मैंने आश्चर्य से पूछा - "पर क्यों?"
 वह बोला - "जिसने ज़िंदगी में कोई नशा न किया, वह आदमी नहीं, 
                    मुर्दा है, और जिसने कभी शराब न पी, वह तो आदमी ही नहीं!"
 मैं बिना किसी हुज़्ज़त के तपाक से उसकी बातों से सहमत हो गया 
                    क्यों कि एक तो संसद होली की थी, दूसरे वह प्रचंड बहुमत में था 
                    क्यों कि बिना नशा-पानी का तो कोई दिखता ही न था।
 
                    अंधेरा होने लगा तो मैं घर को 
                    लौट पड़ा। रास्ते में उस संसद के तमाम सदस्य दिखे। कोई झूम रहा 
                    था, कोई लड़खड़ा रहा था, कोई हँस रहा था तो कोई रो रहा था। 
                    कहीं-कहीं तो वे सदस्य सड़कों पर वीर और रौद्र रस का 
                    खुल्लमखुल्ला प्रदर्शन करने पर आमादा थे। वीभत्स होती अश्लीलता 
                    को वे मज़ाक का दर्जा दे रहे थे और लज्जा को आँखों से निकालकर 
                    मुट्ठी में मसल रहे थे। 
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