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कुछ ही देर में शर्मा जी का दरवाज़ा सामने था। मैंने कुंडी खटका दी तो मिसेज शर्मा निकलकर बाहर आ गई। मुझे अजीब भाव से देखा और देखती ही रह गई।
मैंने कहा - "मैं यह सामान ले आया हूँ, आप रख लो।"
वह कुछ सहमी-सी लगीं। बड़ी मुश्किल से बोल पाई - "पर मैंने तो आपको मना किया था। मैं वैसे ही परेशान हूँ, आप मुझे नाहक तंग क्यों कर रहे हैं?"
अचानक मुझे कोई जवाब न सूझा। बस इतना ही कह पाया - "मैंने सोचा, होली है और आप परेशान हो। बच्चे भी दुखी हैं। यह जानकर मैं यह सामान ले आया हूँ।"
वह खीझ पड़ीं - "मैं होली मनाऊँ न मनाऊँ, आपसे क्या मतलब! आप मेरे होते कौन हो! शर्मा जी वैसे भी शक्की स्वभाव के हैं। बेसिर-पैर का शक करते-करते नशेड़ी तक बन गए। मैं सामान ले लूँगी तो आग में घी पड़ जाएगा। होली की आग हमारा घर जला डालेगी। आप ही बताओ, उन्हें सफ़ाई देने के लिए मेरे पास क्या है! आपने उन्हें घर तक पहुँचाया, इसके लिए मैं आपकी अहसानमंद हूँ, पर आपके हाथ जोड़ती हूँ कि सामान लेकर आप चले जाओ, फिर कभी लौटकर न आना।"

उनकी बात भी सही थी। जान न पहचान, दुआ न सलाम - फिर सहायता या सहानुभूति का कारण क्या! या तो इन्होंने मुझे कोई ठग समझा होगा या आवारा या चरित्रहीन! बड़ा धर्मसंकट है! गिरते चित्र ने समाज की चूलें हिला दी हैं। चरित्र का बोझ अब उसके सम्हाले नहीं सम्हलता। परहित सरिस धरम नहिं मोरे त़ुलसीदास होते और आज का वक्त देखते, तो ऐसा कभी न लिखते। बुराई तो सामान्य है, पर भलाई करने में कष्ट है, त्याग है और सामाजिक लांछन भी।

बात कुछ भी न थी, पर बढ़ती-बढ़ती मेरे स्वाभिमान पर भी पड़ गई थीं। अपमान जब अकारण हो तो सहा नहीं जाता। उद्विग्न मन क्षुब्ध हो उठा और मैं निर्भीकता से बोल पड़ा -
"भाभी जी, बस करो! मैंने न कोई भूल की है न अपराध! बच्चों की व्यथा मुझसे देखी नहीं गई। दिल है तो दर्द होगा ही। सामान तो मैं ले ही आया हूँ, आप रखौ या फेंक दो। कर सकना तो धीरे-धीरे रुपए वापस कर देना, वरना मुझे संतोष है, मान लूँगा कि मैंने रुपए कमाए ही न थे।"
मेरी बात सुनकर वह सिसकने लगीं। उनका रोना मेरे प्रति उनकी सहानुभूति थी या क्रोध, कह नहीं सकता, पर उसकी आड़ में मैंने सारा सामान लाकर उनके कमरे में ज़रूर रख दिया था।

मैं उठकर जाने लगा तो उन्होंने मुझे रोक दिया। बोली - "घर में कुछ था ही नहीं, और कुछ न बना सकी तो चाय ही सही, बनाती हूँ, पीकर जाना, भाईसाहब!"
मैं बैठ गया था। मैं चाय पीने लगा तो वह बोलीं - "आप बुरा न मानना, ज़माना बड़ा खराब है। हो सकता है, आपके मन में कोई पाप न हो, पर देखने-सुनने में यह सब महापाप जैसा लगता है। कोई अजनबी किसी ग़ैर के लिए!"
वह अपना वाक्य भी पूरा न कर पाई थीं कि तख्त पर लेटे शर्मा जी ने करवट ली, आँखें खोलकर मुझे देखा और बड़बड़ाए - "अच्छा! तो तुम अभी तक यहीं हो! मेरी बीवी को पटाने में लगे हो! निकल जाओ मेरे घर से!"

मुझे लगा, जैसे वह गरम चाय मेरे मुँह में न जाकर खौलती हुई कानों में जा घुसी हो। जब तक मैं कुछ कहता तब तक भाभी बोल पड़ीं - "भाईसाहब, देखा आपने! पर इनकी बातों का बुरा न मानना। ये अभी नशे में हैं। आदमी देखे न देखे पर भगवान तो सब देखते ही हैं।"
उनकी बात से मेरे कान की जलन कुछ ठंडी पड़ गई थी। तो मैं बोल पड़ा - "भाभी, एक हज़ार ये भी रखो! कर्ज़ तो कर्ज़ है, कुल हिसाब बाइस सौ का है।"
मेरी इस बात पर जब तक वह कुछ बोल पातीं कि मैं पलटकर वापस लौट पड़ा था।

दिमाग गुब्बारे-सा हल्का होकर उड़ने लगा था और कदम लड़खड़ा रहे थे तो लगा, शायद मैं भी नशे में हूँ। एक ऐसा नशा जो कभी ईसामसीह के सिर जा बैठा था। गौतम बुद्ध भी उसकी चपेट में आकर राजपाट और घर-परिवार तक छोड़ बैठे थे। उसी की मादकता में गांधी जी बैरिस्टरी छोड़-छाड़कर मरते दम तक घूमते रहे थे। वह कोई मामूली नशा नहीं, वह तो सारे नशों का राजा लगता है जो एक बार चढ़ जाने के बाद फिर कभी उतरने का नाम ही नहीं लेता। कहीं उसी का नाम हमदर्दी तो नहीं।

जाने भी दो। जैसे होली के तमाम रंग, वैसे ही इस समाज के भी हज़ारों रंग! पर खूबी यह कि वह दिखाई उसी रंग का पड़ता है जैसा खुद की पुतलियों का रंग हो। समाज खुद को पढ़ता ही नहीं, उसकी व्याख्या भी कर लेता है - पर एक नहीं, अनगिनत ढंग से। तभी तो सबकी मंज़िलें एक पर रास्ते अलग-अलग! शरीर एक, आत्मा एक, पर बाहर से जो एक है, अंदर से अनेक हैं।

न कुछ खोया था, न पाया था फिर भी लगता था जैसे सारा संसार मिल गया हो। दो मासूम बच्चे और एक बेबस स्त्री - तीनों की खुशियों ने मिलकर मुझे किसी दूसरे लोक में पहुँचा दिया था जिसमें झूमता हुआ मैं जाने कब अपने घर के दरवाज़े पर आ पहुँचा। सफ़र और रास्ते, दोनों याददाश्त के बाहर थे तो लगा, मैं नशे में हूँ।

ज़िंदगी भी एक चलती गाड़ी है जो ताउम्र चला करती है। उसके रास्ते में पड़ने वाली कोई भी वारदात, चाहे वह संयोग हो या वियोग, घटना हो या दुर्घटना - सब पीछे छूटता जाता है और जीवन आगे बढता जाता है। अगर घटना ज़्यादा दमदार हुई तो कुछ दूर तक ज़िंदगी का पीछा करती है पर अंत में थककर चूर हो जाती है और हारकर ठहर जाती है। जीवन जीत जाता है और वक्त के पहियों में नाचता बड़ी दूर निकल जाता है।

एक-एक कर महीने बीतने लगे। हर महीने के पहले हफ्ते की कोई शाम मुझे शर्मा जी के घर तक खींच लाती थी और बदले में दे जाती थी कुछ सौ रुपए, एक कप चाय और भाभी जी की मुलाक़ात। मगर उनसे रुपए लेते मन तड़प जाता और आत्मा टीस उठती। जी में आता, रुपए फेंककर उनसे साफ़-साफ़ कह दूँ कि आप मेरी कर्ज़दार नहीं। जिसे आप कर्ज़ समझती हैं, वे आप ही के रूपयें हैं पर जाने क्यों, मैं विवश-सा रुपए ले लेता। मन कहता, पति-पत्नी दोनों कर्ज़ के प्रति कितने संवेदनशील हैं। शराब लाख बुरी हो पर किसी को बदनीयत नहीं बनाती। बदनीयती का इल्ज़ाम किसी और के सिर है, चाहे वे कुसंस्कार हों या कुसंगति। तो जब तक ये रुपए इकठ्ठे होते रहें, उतना ही अच्छा। जहाँ आगे चलकर उनके काम आएँगे, वहीं मन से या बेमन से, देनदारी के दबाव में शर्मा जी का शराब से नाता टूटता जाएगा।

एक बार जनवरी में मैंने उनसे कहा था - "भाभी जी, इस बार रुपए रखो। ठंड बहुत है। परिवार के लिए गरम कपड़े ले लेना।"
उन्होंने कहा था - "मेरी ताकत को कमज़ोर न करो, भाईसाहब! आठ-दस महीनों से अभावों से लड़ते-लड़ते अब मैं काफ़ी मज़बूत हो चुकी हूँ। भगवान ने चाहा तो इस होली के आते-आते पूरा कर्ज चुका दूँगी।"
मुझे मन ही मन रोना आ गया था, पर मैं चुप रह गया था।
मगर उनकी बात बिल्कुल सही निकली। अगले दो ही महीनों बाद बाइस सौ रुपयों की वह फर्ज़ी उधारी अपनी आखिरी किश्त भी पा चुकी थी जबकि होली आने में अभी एक हफ्ता बाकी था।

धीरे-धीरे करके जब साल कटने को था तो उस हफ्ते की क्या बिसात थी? वह बेचारा पराभूत होता हुआ आज होली की उस शाम की शक्ल में तब्दील हो गया, जिसका मुझे पूरे साल से इंतज़ार था।

सुबह के रंग का सुरूर और टूटते बदन की थकावट, दोनों मिलकर एक नशा-सा पैदा कर रहे थे। उसी में झूमता हुआ मैं शर्मा जी के घर तक जा पहुँचा। शर्मा जी ने मुझे देखा, तो दौड़कर गले लग गए और कुछ देर तक बेसुध लिपटे रह गए। शायद हम दोनों की दोस्ती अपनी पहली वर्षगाँठ मनाने में मशगूल हो गई थी। मस्ती के उसी आलम में दोनों बच्चे भी आकर मुझसे लिपट गए तो मुझे लगा, औपचारिकता को तोड़ता-लाँघता कोई मिलन जब आकर सीने से लग जाए तो लिपटता हुआ खुशियों में डूब जाए तो उसी को होली कहते हैं।

मैं उसी मस्ती में खोया था कि भाभी आ पहुँचीं और शरारती लहजे में बोलीं - "भाईसाहब, लगता है, आपने इस होली में कहीं दोस्तों में पड़कर पी ली है। आप ही देखो न, आपकी आँखें चढ़ी हैं!"
मैंने मुस्कुराते हुए कहा - "मैं अपनी आँखें खुद कैसे देखूँ भाभी, पर लगता है, मैंने दोस्ती ही पी ली है। उसका भी एक नशा है जिसका सुरूर तो देखो। यह नशा किसी नशे से निजात का है और यह सुरूर उस पर शानदार जीत का है जिसे मेरे दोस्त ने हासिल करके दिखा दिया है। देखो भाभी, आज होली है। फिर भी शर्मा जी ने पी नहीं। यह कोई मामूली जीत है क्या!"
भाभी बोलीं - "सब आपकी बदौलत है, भाईसाहब! न आप पिछली होली में बाइस सौ का कर्ज़ चढ़ाते, न ये उसे उतारने के दबाव में पीना छोड़ते। दरअसल, बात यह है कि जो कुछ किसी तरह बचता था वह आपकी उधारी में खप जाता था। फिर ये पीते कहाँ से!"
यह सुनकर शर्मा जी कुछ झेंप-से गए। तो मैंने उन्हें छेड़ा - "याद है शर्मा जी, पिछली होली में आपने कहा था - मेरी बीवी को पटाने में लगे हो! निकल जाओ मेरे घर से!"

उन्होंने नहले पर दहला डाल दिया - "मुझे क्या पता था कि आप बीबी से ज़्यादा मियाँ को पटाने में माहिर हो।"
तो मैंने कहा - "मज़ाक छोड़ो, शर्मा जी! आज मैं वाकई में भाभी को पटाने आया हूँ। ज़रा कुछ देर के लिए आप कमरे से बाहर तो निकल जाओ!"
वह मुस्कराते हुए बाहर निकल गए थे।
भाभी भौचक्की थीं। मैंने उनसे कहा - "आँखें बंद करके हथेली फैला दो, भाभी!"
उन्होंने वैसा ही किया तो मैंने जेब से बाइस सौ रुपए निकालकर उनकी हथेली पर रख दिए। उन्होंने जिज्ञासा में आँखें खोल दीं और रुपए देखते ही बुरी तरह चौंक गईं।
बोलीं- "ये क्या! ये रुपए कैसे?"
मैंने कहा - "ये आप ही के हैं!"
वह उलझ गई - "मेरे कैसे? मैंने आपको कब दिए रुपए? आप क्यों मुझे बेवकूफ़ बनाते हो, भाईसाहब! रुपए वापस ले लो। उतना ही अहसान क्या कम था, जो आपने कभी मुझ पर और मेरे बच्चों पर किया था!"

जब उन्होंने मेरी एक न मानी तो मजबूर होकर मैंने पिछली होली में रिक्शे वाले से लेकर बाद तक का सारा वृत्तांत उन्हें सुना डाला। उन्होंने मेरी बातें सुनीं तो हक्की-बक्की रह गईं। मुँह खुला का खुला रह गया, कंठ से एक शब्द तक न निकल सका, पर अचानक उनकी आँखें बहने लगीं और बहती ही गईं।
उन्हें इस तरह रोते देखकर मैं विचलित हो उठा और जब तक कुछ बोलता तब तक वही बोल पड़ीं - "भाईसाहब, जरा इन आँसुओं को देखो! ये भी कैसे अजीब हैं! दुख में तो निकलते ही हैं, सुख में भी बरसने लगते हैं! कितना फ़र्क है पिछली होली और आज की होली के आँसुओं में!"

कुछ देर तक आत्मविभोर-सी वह बैठी रह गई तो मैंने कहा - "अब मुझे जाने दो, भाभी!"
मैं उठ खड़ा हुआ तो वह भी उठ गई और मेरे अत्यंत निकट आकर बोलीं - "इतनी खुशी के मौके पर आप ऐसे कैसे चले जाओगे! अब बारी मेरी है। मैं कहती हूँ, आप आँखें बंद करके अपना मुँह खोल दो!"
मैंने किसी आज्ञाकारी सेवक की भाँति वैसा ही किया तो उन्होंने एक-एक करके चार गुझिया मेरे मुँह के हवाले कर दीं। मुझे लगा, मैं अचानक बच्चा बन गया हूँ और कोई माँ मुझे खेल-खेल में खिलाए जा रही है।
आँखें खोल दीं। बोला - "बस करो, भाभी, कुछ शर्मा जी के लिए भी बचाकर रखो! बेचारे बाहर खड़े-खड़े जाने क्या सोच रहे होंगे!"
वह बोली - "भाईसाहब, वे दिन तो कब के लद चुके जब शर्मा जी मुझ पर अकारण शक किया करते थे। जब से आपसे संपर्क हुआ, मैं तो नहीं बदली, पर ये बिल्कुल बदल गए हैं। न शक न शराब!"

उनकी बातों से मेरा मन प्रफुल्लित हो उठा। तृप्त आत्मा लिए जब मैं चलने लगा तो मुझे रोककर बोलीं - "एक बात पूछूँ, भाईसाहब! आपको मेरी कसम, सच-सच बताना कि कहीं रिक्शे वाले की रुपयों वाली कहानी मनगढंत तो नहीं है? मेरी मदद के बहाने आपने यह सब गढ़ डाला हो। मुझे तो अब भी यही लगता है कि मैं आपकी कर्ज़दार थी और जो कुछ मैं आपको साल भर तक अदा करती रही, वह मेरा कर्ज़ था!"
तो मैंने दृढ़ता से प्रतिवाद किया - "नहीं, भाभी, नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है। अब आपको मदद की ज़रूरत भी कहाँ रही, जब आप दोनों ने मिलकर इतने सारे रुपए बचा लिए। वह तो मेरा कर्ज़ था जो मैं हर महीने आकर अपने सिर चढ़ा लेता था। आज मैं वही कर्ज़ तो उतारने आया हूँ। यकीन करो, भाभी, ये आपके दिए हुए वही रुपए हैं। अच्छा, तो अब चलता हूँ। आप सबको होली और नया संवत दोनों मंगलमय हों।"
पीछे से भाभी जी की आवाज गूँजती हुई मेरे कानों में तैर गई - "जैसी मुझे मंगलमय हुई वैसी आपको भी हो, और मैं तो कहती हूँ, वैसी ही सबको हो, भाईसाहब!"

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