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यह तो गनीमत हुई कि शादी के समय ही मक्खन की बीवी उसके घर रहने के लिए नहीं आ गई, अन्यथा मक्खन की ज़िंदगी में जो घमासान तीन साल बाद शुरू हुआ, वह शादी के दिन से ही शुरू हो गया होता। हुआ यह कि तीसरे साल जब मक्खन का गौना आया तब वह एम।ए। के पहले साल में था। मक्खन कोई बहुत खूबसूरत किस्म का तो लड़का था नहीं लेकिन ऐसा भी नहीं था कि उसे बदसूरत कहा जा सके। लेकिन जब उसकी बीवी आई तो पता चला कि वह पक्के रंग की कुछ-कुछ मोटी-सी है और उम्र भी मक्खन से कुछ ज़्यादा नहीं तो कम भी नहीं है। उसके दो-तीन दरजे तक पढ़े होने की बात का पता तो शादी के समय ही चल चुका था। लड़की का नाम लाली था लेकिन शारीरिक सुंदरता की बहुत ही क्षीण लालिमा ही उसके अंदर दिखाई देती थी। अत: मुँह दिखाई के समय ही मक्खन की माँ बिफर पड़ी, "हाय रे, ख़राब कर दई मेरे फूल जैसे बालक की ज़िंदगी। किस जन्म को बदलो चुकायो रे रमनथवा? फिर तो क्या गौने का उत्साह और क्या खुशी- सब ठप हो गया जैसे किसी ने टेप रिकार्डर का स्विच बंद कर दिया हो।

लाली के साथ आई सगुन की मिठाई जिसमें से मक्खन की माँ ने गाँव वालों को बाँटने के लिए एक थाली में निकाला था आँगन में ही लाली की आँखो के सामने कुत्तों को डाल दी गई। सारा माजरा सुनकर मक्खन सकते में आ गया। उसकी कल्पना में खूबसूरती की जो सीमाएँ थी उसमें लाली कहीं फिट नहीं हो रही थी। लेकिन अब क्या हो सकता था यह तो शादी से पहले देखी जाने वाली बातें थीं। सुहागरात जैसी कोई उत्सुकता मक्खन में नहीं रह गई थी लेकिन मन के एक कोने में एक बात ज़रूर थी कि स्त्री विधाता की सबसे खूबसूरत सृष्टि है तो लाली में भी कुछ न कुछ खूबसूरती तो होनी ही चाहिए। वह इस प्रतीक्षा में था कि कोई उसे किसी बहाने बुलाकर बहू के कमरे में ढकेल देगा और बाहर से कुंडी चढ़ा देगा। लेकिन पूरी रात वह यह प्र्रतीक्षा ही करता रह गया। कोई भी उसे बुलाने नहीं आया। मक्खन मन मसोसकर रह गया बल्कि उसके अंदर एक अपराध-बोध सा भी भर गया कि दूसरे घर से आई लड़की उसके बारे में क्या-क्या सोच रही होगी।

अगले दिन गाँव की एक भाभी से पता चला कि मक्खन की मां ने ही मक्खन को नहीं आने दिया था। यही नहीं उसने बहू को कोसते हुए कहा भी था, "ऐसी कुलच्छनी की घर में कोई ज़रूरत नाय है, वह कल जानों चाय रही होय तो आज-इ चली जाय बाप के घर"।
ताज़ा 'ज़ख़्म' है तो आज ज़्यादा टीस है। कल से धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा यही सोचकर मक्खन चुप रहा। लेकिन एक-एक करके तीन दिन बीत गए और मक्खन की मुलाक़ात लाली से नहीं हो सकी। धीरे-धीरे सब रिश्तेदार भी चले गए। आखिर में चौथे दिन मक्खन ने खुद ही लाली से मिलने का निश्चय किया और खाना खा लेने के बाद खुद ही लाली के कमरे की ओर चल पड़ा।
चौकस पहरेदारी में लगी मक्खन की माँ झपटते हुए उसके सामने खड़ी होती हुई बोली, "लल्ला, उस भूतनी के पास जाने की कोई ज़रूरत नॉय। शादी हो गई सो हो गई। एक गल़ती के बाद दूसरी गल़ती ना करौ। जे चाहै तो बाप को बुलाकर अपने घर चली जावै। मैं तुम्हारी दूसरी शादी कराय दूँगी।"
"लेकिन अम्मा, शादी में लाली का क्या कसूर है? यही न कि वह खूबसूरत नहीं है- बदसूरत है। तो इससे तुम्हें क्या। लाली के साथ ब्याह मेरा हुआ है, मैं अपने साथ रखूँगा।" मक्खन को अपनी तरफ़ से सख्ती ज़रूरी लगी।
"लेकिन जग हँसाई तो हमारी है रही है लल्ला। जिसे देखो वई ताने मार रिया है कि इकलौती बहू वह भी भूतनी जैसी।"मक्खन की माँ ने लड़का हाथ से जाते देख कहा।
"तो इसमें लाली की क्या ग़लती है? क्या लाली जान बूझकर बदसूरत पैदा हो गई? पूछना है तो जाकर भगवान से पूछो कि वह किसी को खूबसूरत और किसी को बदसूरत क्यों बना देता है?"

मक्खन की माँ अपने बेटे के मुँह से पहली बार ऐसी ढिठाई भरी बातें सुन रही थी। वह खीझती ही खड़ी रह गई और मक्खन ने लाली के कमरे के अंदर से कुंडी चढ़ा दी।
मक्खन को अपने कमरे में अकेला पाकर लाली उसके पैरों पर भहरा पड़ी। मक्खन ने लाली को उठाकर अपने गले लगा लिया तो देर से रुकी लाली की आँखों से आँसुओं की लड़ी फूट पड़ी।
मक्खन ने लाली को समझा-बुझाकर शांत किया तो वह बोली, "आपने मेरे लिए अम्मा से इस तरह झगड़ा क्यों कर लिया? मैं तो जन्म से ही अभागन हूँ, नहीं तो जन्म के साथ ही माँ थोड़े मर जाती। आपने मुझे समझने की कोशिश की, यही क्या कम है। मैं तो स्वयं आपके जोग नहीं हूँ।" लाली फिर सुबकने लगी थी।
"नहीं लाली, ऐसा नहीं कहते। ठीक है शरीर की सुंदरता भी कोई चीज़ होती है लेकिन मन की सुंदरता के बिना वह भी बेकार हो जाती है। मैं जानता हूँ तुम्हारा मन सुंदर है। धीरे-धीरे मन की सुंदरता ही तन की सुंदरता बन जाएगी।"

तो कुछ इस तरह शुरुआत हुई थी मेरे दोस्त के दांपत्य जीवन की जिसके बारे में उसने गौने के बाद मुझसे हुई मुलाक़ात में विस्तार से बताया था।
फिर प्रतियोगी परीक्षा में बैठने का सिलसिला प्रारंभ हुआ था। अंतत: संयोगवश हम दोनों को एक ही नौकरी मिली। आस-पास के इलाको में राजपत्रित अधिकारी बनने वाले हम दोनों पहले थे। फिर तो ट्रेनिंग भी हम दोनों की साथ-साथ ही हुई। ट्रेनिंग के बाद मुझे दिल्ली में पोस्टिंग मिली और मक्खन को कानपुर भेजा गया।

उसके बाद दो-ढ़ाई साल का वक्त कब बीत गया, इसका पता ही नहीं चला। इस बीच मेरी भी शादी हो गई। एक बच्चा भी हो गया। शादी में मक्खन से बातचीत का अवसर ही नहीं मिल पाया था व्यस्तता के कारण। उसके बाद मुलाक़ात का यह अवसर मिल पाया है। कानपुर में औद्योगिक प्रदूषण के अध्ययन का एक प्रोजेक्ट मुझे मिला है। अध्ययन की प्रारंभिक रूपरेखा प्रस्तुत करने के लिए सात दिन का समय मुझे दिया गया है, जिसके लिए इस यात्रा का अचानक कार्यक्रम बना।
ट्रेन अब तक लगभग पाँच घंटे का सफ़र तय कर चुकी है। सामने काफ़ी दूरी पर एक ऊँची चिमनी धुआँ उगलती हुई दिखाई देती है। ध्यान आया कि पनकी पावर हाउस है। इसी बीच ट्रेन में मधुर ध्वनि गूँजती है- "अब से कुछ ही देर में शताब्दी एक्सप्रेस ट्रेन उत्तर प्रदेश क़ी औद्योगिक नगरी कानपुर पहुँचने वाली है। गंगा के पावन तट पर बसी यह नगरी अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी की कर्मभूमि रही है। यहाँ से कुछ दूरी पर स्थित बिठूर "उदघोषणा पूरी हुई नहीं कि लोग-बाग अपना सामान ठीक करने में लग गए। इस ट्रेन में ज़्यादातर यात्री कानपुर के ही होते हैं। मैं भी अपना सामान सहेजने लग गया। ट्रेन की गति मंद पड़ने लगी थी।

प्लेटफ़ार्म पर मैंने ही मक्खन को देखा था। यानी मेरी चिठ्ठी मक्खन को मिल गई थी।
मक्खन अपनी सरकारी गाड़ी ले आया था अर्दली भी साथ था। अर्दली ने लपक कर मेरा सामान ले लिया था। मुझसे हाथ मिलाते-मिलाते मक्खन ने कुछ इस तरह से गले लगाकर बाहों में कस लिया कि कुछ क्षण के लिए मैं कसमसाकर रह गया। दोहरी काठी के मक्खन की इस 'परपीड़ा' में उसकी आत्मीयता रची-बसी थी। "पी।के। मैं यह नहीं पूछूँगा कि तुम्हारी यात्रा कैसी रही।" गाड़ी की सीट पर बैठते हुए उसने एक ख़ास अंदाज़ में यह बात कही। "लगता है गाँव का असर अभी बाकी है। पी।के। नहीं प्रवीण कुमार कहो।" हम दोनों का समवेत ठहाका एक साथ गूँजा।

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