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विभु को लगता है कि अगर वो अमेरिका नहीं आता तो उसका जीवन कैसे चलता। शायद उसी ढर्रे पर चलता रहता, एकाध बच्चा हो जाता। हिंदुस्तान में शायद नब्बे प्रतिशत शादियाँ ऐसे ही चलती हैं। बुरा नहीं था तो बहुत अच्छा भी नहीं। एक ढील-ढाल, सामान्य-सा रिश्ता। कोई बनावट नहीं पर मानसिक सामंजस्यता भी नहीं। पर कुल मिलाकर शायद सब कुछ अच्छा ही रहता। पारिवारिक सुख शांति, अम्मा, बाबा की खुशी। यही तो है खुशहाल परिवार की परिभाषा पर नियति ने कुछ और ही सोच रखा था उसके लिए।

फेलोशिप मिला था और विभु को अचानक अमेरिका आ जाना पड़ा था। शुरू में घर परिवार से कट कर अपने को बेहद अकेला महसूस करता। मनु की भी बेतरह याद आती। रात को अकेले सोने की आदत ख़त्म हो गई थीं। कितनी रातें बीतती, कल्पना में मनु को अपने से सटाए, उसके बालों को सहलाते हुए। पर धीरे-धीरे नए जीवन का अभ्यास होने लगा था। मनु की यादें भी धुँधली पड़ी थीं। जीवन यहाँ बहुत कठिन था, सोचने की फ़ुरसत नहीं होती।
महीने बीत गए थे। इसी बीच कैरी से मुलाकात हुई थी। दोस्ती धीरे-धीरे बढते हुए दूसरे रंग लेने लगे थी। कैरी ने ही उसे वेस्टर्न क्लासिकल संगीत से परिचय कराया था। बाख, बीथोवन, शोंपा, मोजार्ट। वो साथ ओपेरा देखने जाते, नाटक में एक-सी रुचि थी। कितनी शामें बिताई थीं आँखे बंद कर बैठे-बैठे, वाइन की चुस्कियों के साथ का रसास्वादन करते कभी भारतीय, कभी पश्चिमी।

कैरी का रुझान भारतीय आध्यात्मिकता की ओर भी था। वेद, पुराण, गीता, योग से लेकर आर्ट ऑफ लिविंग तक। कई बार इस्कान के मंदिर में भी साथ जाते। किसी के साथ से इतना सुकून, इतना सुख मिल सकता है ये विभु ने अब जाना था। एक ही बात की गहरी तसल्ली थी कि कैरी को मनु के बारे में अंधेरे में नहीं रखा था, विभु ने।
दोनों ने बेतरह कोशिश की थी, इस प्रगाढ़ता को नकारने की। कैरी खुद टूटे परिवार से आई थी और विभु के परिवार के टूटने का कारण नहीं बनना चाहती थी।
पर ऐसा कहाँ हो पाया था। भावनाओं का ज्वार इतना गहरा था कि कब दोनों इसमें बह गए ये पता नहीं चला। जब होश आया तो देर हो चुकी थी। जो रिश्ता उनमें जन्मा था उसकी जड़े इतनी मज़बूत हो गई थी कि उखाड़ना मुश्किल था। दिन सप्ताह बीत गए थे, दुविधा में। विभु भी क्या करे उसकी समझ में नहीं आता।

मन कड़ा किया था आख़िर और घर चिठ्ठी लिखी थी, सब कुछ बताते हुए। फिर फ़ोन किया था पर वहाँ से सर्द सन्नाटा ही हाथ आया था। उन लोगों ने उसके कैरी के साथ के रिश्ते को ही नहीं नकारा था, बल्कि उसे भी नकार दिया था। उसके वजूद को काट दिया था अपनी ज़िंदगी से। फिर बाद में आया था, मनु की बचकानी लिखावट में पत्र, एक लाइन "मैं तुम्हें तलाक दे रही हूँ।"
एक अध्याय समाप्त हो गया था। अपनी ओर से संपर्क नही तोड़ा था विभु ने। पत्रों और फ़ोन का सिलसिला जारी था। पर एकतरफ़ा। उठकर विभु ने दराज़ को खोला। फ़ोटो का एक पैकेट था। उसे याद आया, बाबा एकबार एक ट्रेनिंग के सिलसिले में कनाड़ा गए थे। वहाँ से वे एक पोलारायड कैमरा लाए थे। विभु ने ढेर सारी तस्वीरें खींची थी। अम्मा और बाबा की, बरामदे में केन की कुर्सियों पर चाय पीते। अम्मा हँसते हुए बाबा को देख रही हैं। तस्वीर के रंग भी अब धूमिल हो गए हैं, सीपिया रंगो में। एक और तस्वीर है उसकी और अम्मा की, गाल सटाए, हँसी चेहरे पर फूटती हुई। मनु की भी तस्वीरें हैं। एक दुल्हन के वेश में उसके साथ। दूसरे में जीन्स और उसकी एक टी शर्ट पहने हुए। विभु ने तस्वीरें सहेजकर दराज में बंद कर दी।

अब उसका जीवन यहीं है। एक खूबसूरत प्यार करने वाली बीबी, प्यारा-सा बेटा, अच्छी-सी नौकरी। खुशी और सफलता, सब कुछ तो है। जो नहीं है उसके पीछे नहीं भागेगा विभु। उसके परेशान रहने से कैरी भी परेशान हो जाती है। उसने कैरी को अपनी बाहों में समेट लिया। नींद इस बार आ गई।
एक सप्ताह ही बीता था कि अम्मा की मौत की ख़बर आ गई थी। इतना बड़ा दुख, विभु अकेला कैसे झेलेगा। जब तक वे लोग भारत पहुँचे थे, अम्मा का अंतिम संस्कार हो गया था। घर एकदम शांत, निर्जीव था। बाबा एकदम बूढ़े लग रहे थे। बाहों में उसे भरकर एकदम से रो पड़े थे। और विभु, इतने बरसों का दबा हुआ दुख, सब एक साथ फट पड़ा था। एक लावे की तरह रुलाई उमड़ पड़ी थी अपने पूरे दुख के साथ।
मनु लौट गई थी अपने कमरे में, अपनी रुलाई और अपने दुख के साथ।
घर में एक अजीब माहौल व्याप्त था। विभु को लगता कि वो अब इस घर में अपरिचित है। दिन भर अम्मा के कमरे में उनके बिस्तर पर मुँह गड़ा कर पड़ा रहता। मनन पूछता, "डैडी आप हर समय सोते क्यों रहते हैं?"
विभु फीकी हँसी हँसता, "मै सो नहीं रहा मैनी, अपनी माँ की सुगंध लेने की कोशिश कर रहा हूँ, यह उसका बिस्तर था मेरे बच्चे मुझे उसकी याद जो आती है।"
मनु घर की व्यवस्था में, रसोई की व्यवस्था में व्यस्त रखती अपने को। एक रुखेपन का कवच अपने चारों ओर ओढ़ रखा था जिसे कोई भेद नहीं पाता, न विभु, न कैरी और नहीं मनन। काम के बाद अपने को कमरे में बंद रखती। कैरी ने कोशिश की पर नाकाम। बाबा आजकल मनन के साथ व्यस्त हैं।
अम्मा की तेहरवीं हो गई। रिश्तेदारों की भीड़ छँट गई थी। विभु को मनु के बारे में सोच होती है। कैसे उसने सबों की दया भरी दृष्टि झेली होगी। ताने, छीटा-कशी उसके कानों में भी पड़े थे। मनु की रुखी, कसी हुई शक्ल देखकर उसका दिल कचोट गया था।

मनु ने बैंक ज्वाइन किया है। ट्रेनिंग कुछ दिनों पहले ही समाप्त हुई है। इसी शहर में पोस्टिंग। खुद गाड़ी चला कर जाती है दफ़्तर। वो शोख, चुलबुली मनु जो ज़िद करती थी, फ़रमाइशें करती और पूरी न होने पर रूठ जाती, कहाँ विलीन हो गई?
चेहरे पर भोलेपन के बजाय एक कसाव आ गया है। आँखें उदास ठहरी हुई। एकदम चुप-सी हो गई है। कम बोलती है। अपने कमरे में बंद। बाबा का लेकिन पूरी तरह से ख़्याल रखती है। विभु ने एक बार उसे अकेले में मनन को छाती से सटा कर रोते हुए भी देखा है। वह शोख मनु भी उसकी बनाई हुई थी और अब ये मनु भी उसके दिए हुए दुख से उसी की बनाई हुई थी।
उनके जाने का दिन आ गया है। बाबा यहीं मनु के साथ रहेंगे। इतने दिनों बाद आज विभु मनु से बात कर पाया था।
"तुमने मुझे बहुत तकलीफ़ें दी। मैने तुम्हें माफ़ किया ये नहीं कह सकूँगी। तुम्हारे दुख की पीड़ा अब भी गहरी है। लेकिन एक दिन वो टीस हल्का होगा ही। उसी दिन का इंतज़ार है। तब शायद तुम्हें तहे दिल से माफ़ कर सकूँ। अम्मा मेरे लिए सब कुछ थीं। आज जो मैं जीने की कोशिश कर रही हूँ, उन्हीं की बदौलत।"
"कैरी", मनु की आवाज़ लड़खड़ाई थी, "अच्छी है। संवेदनशील है। आज मैं समझने की कोशिश कर सकती हूँ कि कहाँ मैं पूरी नहीं पड़ी।"
"एक दिन तुम्हें लिखा था, तलाक दे रही हूँ, पर तब तुम्हें मन से मुक्त नहीं किया था। आज तुम्हें मेरे लिए चिंता करने से, मेरी फ़िक्र करने से और मेरे बारे में अपराधी अनुभव करने से, मुक्ति देती हूँ।"
पर क्या ये विभु के लिए मुक्ति है। उसे भी उस दिन का इंतज़ार रहेगा जब मनु उसे सच्चे मन से माफ़ करेगी। तब तक के लिए इतना ही काफ़ी है।

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२४ जून २००५

 
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