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मैंने सोचा कि बुढ़ापे में धीरज बहुत जल्दी छूट जाता है शायद उनकी बेचैनी की यही वजह होगी।
"तो बताइए, मैं इसमें क्या कर सकता हूँ?" मैं भी तो उन्हीं की तरह एक खातेदार था, भला मैं क्या कर सकता था,'' सोच कर मैंने कहा।
"आप मेरी मदद कर दो। वहाँ किसी से कह कर मुझे चेकबुक दिलवा दो।" उन्होंने मुझे लेकर जाने किस तरह का विश्वास पाल लिया था।
"आपकी पासबुक देखूँ ज़रा।" उनके हाथ में पासबुक देखकर मैंने उनसे कहा।
"मैं बहुत जल्दी में हूँ। आप मेरा काम जल्दी करवा दो।" उन्होंने मुझे पासबुक देते हुए कहा। आवाज़ की बेचैनी के साथ आंखों में चौकन्नापन भी आ गया था।
"यह सुखविंदर कौन है?" मैंने पासबुक देखकर पूछा।
"मैं हूँ जी।"
"और ये मनजीत?"
"बेटी है।" उन्होंने मेरे सवालों के जवाब जल्दी-जल्दी इस उम्मीद में दिए कि मैं आश्वस्त हो जाऊंगा तो उनको चेकबुक दिलवाने के काम में स्र्चि लेने लगंूगा।
"आपका तो नौ साल पुराना खाता है। सिऱ्फ एक बार बीस हज़ार स्र्पया आपने निकाला है, विदड्राल भरा था आपने," मैंने पासबुक देखते हुए उनके खाते का विवरण उन्हें सुनाया।
"यही तो मैं भी कह रही हूँ कि चेकबुक मुझे कभी मिली ही नहीं," उन्होंने छटपटाते हुए दोहराया।
"लेकिन बहिन जी, आप क्यों परेशानी उठा रही हैं? बेटी को कहिए वही ये सारे काम किया करे, आप कहां बुढ़ापे में।" मैंने उन्हें काउंटर का सहारा लेकर खड़े होते हुए कुछ-कुछ कराहते-सा सुना।
"यह सब मुझसे मत बोल। मैं ग़रीब बहुत परेशान हूँ। अभी मेरे को टटि्टयाँ लग जाएँगी, मेरा काम जल्दी से करवा दे।" वह रोने लगीं।
"अच्छा-अच्छा आप परेशान मत होइए। चलिए बात करके देखता हूँ," मैंने उनको रोने से रोकते हुए कहा और उनके साथ चेकबुक वाले काउंटर की तरफ़ बढ़ गया।

वहाँ बैठा अधिकारी मेरा कुछ परिचित था। उसने अन्यमसस्क भाव से मेरी बात सुनी और बहुत समझाने पर चेकबुक देने पर राज़ी हो गया।
"मेरा काम जल्दी करवा दो भाई," उन्होंने अपनी बेबस आवाज़ में फिर कहा।
"अब ज़रा देर तो लगेगी, आप आराम से बैठ जाइए।" मैंने उन्हें समझाया।
"मैं गुस्र्द्वारे का बहाना करके घर से निकली हूँ। मुझे जल्दी घर लौटना है," उन्होंने अपनी छटपटाहट की वजह बताई ताकि मैं और जल्दी उनका काम करवाने की कोशिश करूँ।
"घर में कौन-कौन हैं?" मुझे उनसे बात करने और उनके बारे में और जानने की इच्छा हुई।
"यह सब मुझसे मत पूछो भाईजी, मेरा काम करवा दो। मैं किसी तरह जल्दी घर पहुँच जाऊँ," वह फिर रोने लगी।
"आप क्यों घबरा रही हैं? आपका काम हो तो रहा है," इस बार मैंने कुछ झुँझला कर कहा।
"क्यों घबरा रही हूँ? कहीं मेरे बैंक में आने का पता पड़ गया तो सब मुझसे उगलवा लेंगे कि मेरे पास कितना पैसा है? बेटी को पता लग जाएगा तो उसके आदमी को तुरंत रुपयों की ऐसी ज़रूरत आ पड़ेगी जो पूरी न हुई तो उसे जेल हो जाएगी। दारजी को मालूम पड़ जाएगा तो उन्हें महँगी-महँगी शराबों के नाम याद आने लग पड़ेंगे, और जो कहीं बेटे को पता लग गया तो वो जुआरी बंदा तो मार-मार कर मेरी जान ही ले लेगा कि उसके माँगने पर मैंने मना करके इतने पैसे क्या सीने पर रखकर ले जाने के लिए जमा किए हैं?" मेरी झुँझलाहट ने उन्हें खिजा-सा दिया था।
"कहीं काके को पता लग गया कि मेरे पास रुपया हैं तो,"जमा रुपए उनके लिए एक आफ़त बन गए थे जिन्हें याद करके वह काँप उठी थीं।
"अरे," मैं इतना ही बोल सका।
"सौ धारों से दूध पिलाकर. . ." उन्होंने सीने पर मुक्के मारते हुए कहा। अंदर से फूटी पड़ रही रूलाई में बाकी के शब्द डूब गए। जैसे पूरे शब्द न बोले जाने के कारण उनकी दलील कमज़ोर पड़ रही हो और वह सीने पर दोहत्थड़ मार-मार कर अपनी बात में वज़न पैदा करती हों।

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