''अरे अपने बच्चों के लिए तुमने इतना सब किया। यह तो बड़ी
अच्छी बात है। इसमें अफ़सोस करने की क्या बात है?'' मैंने उसे
ढाढस बँधाने के लिहाज से कहा।
''हजूर क्या अच्छा बात रहेगा। आपे बताइए कौन
रिक्शावाला अपना
बेटा को पढ़ाता-लिखाता, अफ़सर बनाता है?''
''. . .हम अपना देह को देह नहीं समझे। हम भोरे अन्हारे से लेकर
के रात तक गाड़ी चलाते थे जा हमारा बच्चा किताब-कापी कीने,
टूसन पढ़े। ऐसा करके हम ऊ सबका खर्चा जुटाते थे। मैट्रीक पास
करके एही पोलटेकनीक में बड़कवा बेटा ओसियरी पढ़ीस. . .ऊ पढ़ने
में खब्बे तेज़ था. . .पास किया कि तुरते नौकरी ले लिया।''
''और छोटा बेटा?''
''छोटका लड़का रामबाघ कॉलेज से बी.ए. किया। मगर बहुत्ते दिन तक
बेरोज़गार रहा। हम नहीं चाहते थे जो ऊ रिक्सा चलाए। उसका मन तो
ख़ैर रिक्सा चलाने का नहिये था। ऊ एकदम हतास हो गया था। मगर हम
हिम्मत नहीं हारे।. . .उसी बखत स्टेट बैंक का बड़ा साहब मुखरजी
बाबू पुरनिया बदली होकर आए। हम रोज़ भोरे उनको घर से ऑफ़िस
अपना गाड़ी से पहुँचाते थे। साम में तो ख़ैर ज़्यादा टैम हमको
फुरसत नहीं रहता था। धीरे-धीरे उनको हमसे बहुत लगाव हो गया।
एतने सोचिए जो ओतना बड़ा साहब का बीवी होकर भी मेम साहब रोज़
भोर में हमको चाय पिलाते थे। कब्बो-कब्बो जिद्द करके नास्तो
करा देते थे। हमारा घर-परिवार बाल-बच्चा के बारे में साहब हरदम
पूछते थे। एक दिन बेटवा के बारे में हम उनसे बोले। बात सुनकर ऊ
उससे भेंट कराने के लिए कहे। जब उसको लेकर हम उनका पास गए तो ऊ
उससे बात किए और बोले आदमी का काम तो हमको हइये हैं, इसको
हमारा पास रहने दो। फिर अपना पास रख लिए। तीन बरस तक छौंड़वा
उनका औफ़िस और घर का देखभाल करता था। जाते-जाते सर्भिस
परमामेंट कर दिहिन। आज आप लोग का आसिरबाद से ऊ भी अच्छा कमाता
है। बीबी है, दू ठो बेटी है. . .सहरसा में रहता है।''
''और बड़ा बेटा?''
''ऊ तो ख़ैर बड़का साहब हो गया है। खाली जीपे पर घुमता है. . .दू
साल से पटना में पोस्टिंग है। खाली एक बेटे है उसको. . .सेंट
माईकेल में पढ़ता है।'' यह सब बातें कहते हुए बूढ़े की आवाज़
में ग़ज़ब का उत्साह था। किंतु मेरे एक सवाल ने जैसे उसके
उत्साह पर पानी उड़ेल दिया। मैं उससे पूछ बैठा, ''तुम्हारे
बेटे तथा पोते-पोतिया इतने फल-फूल रहे हैं। क्या तुम्हें उनसे
मिलने उन्हें देखने की इच्छा नहीं होती?''
''हमको ऊ सबसे क्या?'' वह कुछ देर रुकने के बाद बोला। उसका
स्वर बिल्कुल उदास, निरुत्साह हो चुका था। कहने लगा, ''दोनों
बेटा हमसे मुँह मो़ड़ लिया है। दोनों को इस बात से लाज लगता है
कि उसका बाप रिक्सा चलाता है। आपे बताइये हम कि कौनों सौख से
रिक्सा चलाते हैं? हम न ऊ सबसे कुछ माँगते हैं और न ऊ सब हमको
कब्बो कुछ देता है। फेर हमारा गुज़ारा कैसे चलेगा?'' वह
धीरे-धीरे परिश्रम के साथ पैडिल मारता जा रहा था। कुछ सोचते
हुए कहने लगा, ''खुशी तो होबे करता है कि हमारा औलाद इतना सुखी
है। उसका समाज में इतना इज़्ज़त है। मगर इस बेमार बूढ़ा सरीर
को जब कस्ट पहुँचता है तो कुच्छो अच्छा नहीं लगता है। मन में
अफ़सोस होने लगता है कि ई सब बेकार किये।''
''बेटी कहाँ रहता है तुम्हारी?'' मैंने अगला सवाल किया।
हालाँकि धीरे-धीरे गुड़कते रिक्शे पर बैठा-बैठा मैं उकता रहा
था।
''हमारा दामाद बी.डी.ओ. का डलेबर है।''
''इतना अच्छा लड़का तुम्हें मिल कैसे गया?''
''लड़का उसको अपने पसिन्न कर लिया था। असली में हमारा बेटी
हइये है बहुत सुंदर! . . .उसका अभी कसबा बलोक में पोस्टिंग है।
एक बेटी, एक बेटा है उसको. . .पिछला साल एक ठो जीप वाला हमको
एहीं गिराज चौक पर धक्का मार दिया था। एक्सीडेंट एतना बेसी था
कि जाने बच गया हमारा. . .बस एही समझ लीजिए।''
हम डी.आई.जी. के आवास के समीप
पहुँच चुके थे। रिक्शा सहसा धीमा होने लगा और एक जगह जाकर रुक
गया। रिक्शे वाले की बातों में मैं इतना तल्लीन था कि मेरी
आँखें उसके हिलते सिर, गरदन तथा झुकी पीठ को छोड़कर शायद ही
कुछ देख पा रही थी। सहसा मैंने देखा कि वह रिक्शे से उतरकर
खड़ा हो गया और रोने लगा। उसने अपनी दाहिनी टाँग के ठेहुने तक
पतलून उठा दी और कहने लगा, ''हजूर इस टाँग का भीतर में लोहा का
छड़ लगा हूआ है। ई एकदम कमज़ोर हो गया है तब्बो हम रिक्सा चला
रहे हैं। हम जब मर रहे थे पैसा-टका से मदद का बात तो दूर दोनों
बेटा में से कोई झाँकने तक नहीं आया। असली दोनों को फैमिलियाँ
वैसने मिल गया है।'' वह सुबकता जा रहा था और उसकी बूढ़ी, उदास
आँखों में आँसू बह रहे थे। उसने कहना शुरू किया, ''दामादे
हमारा इलाज कराया। दस महीना तक, हमको साथ रखा मगर ई कब्बो नै
लगा जो हम उसका बाप नहीं ससूर हैं। और बेटी का सेवा? ऊ परेम और
सिनेह. . .आपको बिसवास नहीं होगा, ऊ हमको बेटी जैसा नहीं माँ
जैसा देखभाल किया. . .''
''सचमुच यह भाग्य की बात है कि ऐसे बेटी-दामाद मिले हैं
तुमको।''
''सच्चे हजूर। मगर हमारा दुन्नू बेटा नमकहराम निकल गया। बेटी
के हिया हम कब तक रहते? दू महीना पहिले आपस चले आए और रिक्सा
चला रहे हैं।'' मेरी आँखें भर आई थीं। मैं उसे समझाने लगा,
''अरे साठ की उम्र कोई बहुत ज़्यादा नहीं होती। फिर इससे बड़ी
बात और क्या हो सकती है कि इस उम्र में भी तुम किसी पर बोझ बन
कर नहीं जी रहे हो। फिर रोने की क्या बात है?''
मेरी बातें सुनकर वह बिल्कुल
चुप हो गया।
रिक्शे की सीट पर वह बैठ गया
और पैडिल मारने लगा। वह अब बिल्कुल संयत लग रहा था।
''रोज़ कितना कमा लेते हो?'' विषयांतर के लिए मैंने पूछा।
''रोज़ बीस ते तीस रुपया कमा लेते हैं। ओतना से ज़्यादा दरकार
नहीं है। तीस रुपैया पुरता है कि गाड़ी लगा देते हैं, गाड़ी
अपने है। आज पच्चीस रुपैया हो गया है। पाँच रुपया दे दीजिएगा
जो आज का कमाय. . .पूरा हो जाएगा।'' कुछ देर का लिए वह रुका,
फिर बोलने लगा, ''एहीं मधुबनी मोहल्ला में एक ठो झोपड़ा किराया
पर ले लिए हैं, सौ रुपैया में. . .सुबह चार रोटी नास्ता में,
एक कप चाय, दिन में एक प्लेट भात, साम में पाव रोटी. . .चाय और
पाँच ठो रोटी रात का खाना में। दिन का खाना होटले में खा लेते
हैं। रात में रोटी सेंक लेते हैं। महीना में दू-तीन सौ दवो-दारू
पर खरच हो जाता है। सौ-दू सौ भवीसो के लिए बैंक में जमा करते
जाते हैं. . .दुख-बेमारी. . .टाँग जो टूटा था तो एही बचलका
रुपैया में से दू हज़्ज़ार निकाल करके दमाद को दिए थे।''
मेरा गंतव्य आ चुका था। मैंने धीरे से कहा, ''रोको।''
रिक्शा धीमा होता हुआ उस
संकरी गली के ठीक सामने रुक गया जिसमें मुझे जाना था। मैंने
पॉकेट से दस रुपए का एक कड़कड़ाता नोट निकालकर रिक्शेवाले के
हाथ में थमाया और गली में आगे बढ़ गया। अभी क़रीब पचास कदम आगे
बढ़ा होऊँगा कि पीछे से किसी की धीमा आवाज़ सुनाई दी,
''बाबू!'' मैंने पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि वह उस दस के नोट
को हाथ में लिए प्रश्नवाचक नज़रों से मेरी ओर देख रहा था। मुझे
खड़ा होता देख वह परिश्रम पूर्वक मेरी ओर बढ़ने लगा। मैंने
सोचा कि बूढ़े ने अपना असली रूप दिखा ही दिया। यह समझने में भी
मुझे देर नहीं लगी कि पिछले पंद्रह-बीस मिनटों तक जो उसने अपनी
भावुकतापूर्ण, मनगढंत कहानी सुनाई थी वह मात्र मुझे मानसिक रूप
से ब्लैक मेल कर मुझसे ज़्यादा से ज़्यादा पैसे ऐंठने के लिए।
उसकी इन्हीं बातों ने मुझे पाँच रुपए के बदले उसे दस रुपए देने
को मजबूर किया था। किंतु अब मैं चौकन्ना हो चुका था। मैंने
निश्चय कर लिया कि अब आगे उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों में नहीं
आऊँगा। मुझे उस पर काफ़ी गुस्सा आ रहा था। मैं तेज़ी से उसकी
ओर बढ़ा कि उसके लालची स्वभाव के लिए उसे झाड़ लगाऊँ। मैं समझ
रहा था कि अपनी बीमारी तथा बुढ़ापे का वास्ता देकर वह मुझसे और
पैसे पाने का प्रयास करेगा।
उसके पास पहुँचकर मैं कड़क
स्वर में बोला, ''क्या बात है?''
''हजूर आप हमको पाँच के बदला में दस का नोट दे दिए हैं।'' मैं
उसकी इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया के लिए बिल्कुल तैयार नहीं
था। अतः मैं थोड़ी देर हड़बड़ाहट के साथ बोला, ''असल में मैंने
जान-बूझकर ये दस रुपए तुम्हें दिए थे।''
''नहीं बाबू हम आपसे कहे थे ना कि हम आपसे पाँच रुपए लेंगे।''
''अच्छा क्या होगा। बाकी पैसे की मेरी ओर से चाय पी लेना।''
अपने थके चेहरे पर हल्की
मुस्कान लाकर वह बोला, ''भला पाँच रुपया में चाय मिलता है?''
मेरे लिए भी सिवाय मुस्कुराने के कोई चारा नहीं था। अपनी कमीज़
में हाथ डालकर उसने कुछ तुड़े-मुड़े नोट निकाले। उनमें से पाँच
का एक नोट निकालकर उसने मुझे दे दिया और बोला, ''बाबू भगवान
आपको सदा सुखी रखें।'' इतना कहकर वह रिक्शे पर सवार हुआ और
धीरे-धीरे पैडिल मारता आगे बढ़ गया। मैं कुछ क्षणों तक यंत्रवत
खड़ा रहा, फिर रुपए को कमीज़ की जेब में डालकर गली की ओर मुड़
गया। |