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"भाई, पर्यावरण मंत्रालय के अनुभव को भुना रहा हूँ।" कहकर उनियाल हँसा।
"समझा नहीं?" मेहरा ने उत्सुकता दिखाई।
"समझना क्या है यार, पहले परियोजनाएँ मंजूर करता था, अब मंजूर करवाता हूँ।" कह कर उनियाल खिलखिलाया।
कुलानंद उनियाल गढ़वाल के घनसाली में जन्मा था। दसवीं पास करके केंद्रीय सचिवालय में क्लर्क लग गया। मेहनती और लगनशील था ही। प्राइवेट बी.ए. पास कर गया। फिर एल.एल.बी. भी कर ली। अन्डर सेक्रेटरी पर्यावरण मंत्रालय, रिटायर हुआ। रिटायर होने से कोई पांच-छ: वर्ष पहले का समय एन.जी.ओ. का काम देखने में लगा था। हर फ़ाइल उसके हाथों में होकर गुज़रती थी। ये एन.जी.ओ. पर्यावरण संरक्षण में लगे थे और मंत्रालय उन्हें खुले हाथों से अनुदान देता था। उनियाल उनके चेहरों से भली भांति परिचित था। एक विशेष बात यह थी कि ये अधिकतर एन.जी.ओ. कुमाऊँ में ही काम करते थे।

रिटायर होने के बाद उनियाल ने भी "पर्यावरण मित्र" के नाम से एन.जी.ओ. बना कर छोटा सा बोर्ड एक कमरे पर लटका दिया। असल में ये एन.जी.ओ. बड़े नगरों में काले धंधों से नोट बटोरने वाले बड़े लोगों के लिये, गर्मियाँ बिताने वाले कॉटेज बना-बना कर बेचते थे। कॉटेज बनने वाले स्थान पर पहले से खड़े पुराने पेड़ों को नोटों में बदलते और काली कमाई में भी साझा कर लेते। ऊपर से पर्यावरण संरक्षण की आड़ में पर्यावरण मंत्रालय से मोटा अनुदान भी मार लेते। जिस पर्यावरण को उनियाल सरकारी फ़ाइलों में फलता-फूलता छोड़ कर आया था वो पहाड़ों पर, अपनी किस्मत को रो रहा था।

ये एन.जी.ओ वाले पाँच जून को विश्व पर्यावरण दिवस जरूर मनाते। पर्यावरण मंत्रालय के किसी बड़े अधिकारी को मुख्य अतिथि बनाया जाता जिसके पैर कोई सौ फुट दूर तक फूलों पर चलते व सिर पर गुलाब की पंखुड़ियों की वर्षा होती। मंच फूलों की मालाओं से सजता। कोई दो घंटे में लाखों मुस्कराते फूल, जो स्वस्थ पर्यावरण का प्रतीक होते, चापलूसी की बलि चढ़कर पर्यावरण में मुरदनी का रोना रो जाते। मुख्य अतिथि, तालियों की गड़गड़ाहट व कैमरे की चकाचौंध के बीच, जून की तपती गर्मी में प्रेरणा स्वरूप एक पौधा रोपते, जो दो चार दिनों बाद ही, अगले वर्ष ऐसा ही पौधा लगाने के लिए स्थान खाली कर जाता। भला इससे अधिक पर्यावरण संरक्षण क्या हो सकता था?

जब इतने बड़े निष्ठावान बुद्धिजीवी प्यारे देश के पर्यावरण को बचाने में जी जान की बाजी लगा रहे हों तो, क्या फिर पर्यावरण को आंच आ सकती है? ठीक इसी प्रकार देशप्रेम की चाशनी में सराबोर कुछ और महान देशभक्त मरुस्थल को हराभरा करने के लिए दिन रात एक कर रहे हैं। इन दोनों परियोजनाओं में व्यस्त लोगों का मार्गदर्शन, राजधानी की वातानुकूलित ऊँची अट्टालिकाओं में बैठे महान पर्यावरणविद करते हैं। फिर भी सदियों से शांत खड़े घने वन लुप्त हो रहे हैं, पेड़ों से लदी पहाड़ियाँ नंगी हो रही हैं। संवैधानिक शक्ति के स्थान, दिल्ली के मशहूर बाजार चाँदनी चौक में खड़े दोनों तरफ के वृक्ष अगले लोक चले गए तथा पहाड़ी नगरियों की मालरोडों पर से भारी-भारी देवदारों के शवों की ट्रकें गुज़रना जारी हैं। विदेशी हैरान हैं कि फिर भी यहाँ आक्सीजन कहाँ से आती है। वे एक रहस्य को नहीं जानते कि इस देश में 300 के करीब विश्वविद्यालय हैं जहाँ लाखों विद्वान विज्ञानी हैं, जिन्होंने एक ऐसी शोध की है जो चाँद पर चले जाने वालों की समझ से भी बाहर है- काग़ज़ों पर रोपे पौधे, काग़ज़ों में ही बड़े हो कर धड़ाधड़ आक्सीजन उगलने लग जाते हैं।

ये एन.जी.ओ. तो धन में लेट मार रहे थे और चाँद पर कॉटेज बनाने के सपने संजोए हुए थे। परन्तु उनियाल की छोटी सी भूल ने सारा गुड़गोबर कर दिया। हल्द्वानी एक्सप्रेस में सफर करते राजधानी के एक बड़े अखबार के संपादक ने कुमाऊँ में अपनी कॉटेज बनाने को कह दिया। उनियाल ने संपादक को मुर्गा समझ कर स्वाद से खाने की योजना बना ली और संपादक ने अपनी संपादकीय माया के कारण काम सस्ते में बनवाने का रफ़ ड्राफ़्ट बना लिया। दोनों का लालच टकरा गया। टक्कर से अहंकार का जन्म हो गया। अहंकार ने संपादकीय शक्ति को नैनीताल के स्टाफ संवाददाता को दे दिया जो ऐसे एन.जी.ओ. की कारगुजारी को भलीभाँति जानता था। संवाददाता निष्ठा मणि पांडे ने बिगाड़ू रूप धारण कर एक स्टोरी लगा दी- कहाँ गए नौकुचीया ताल क्षेत्र के पेड़। जब पांडे को देशी घी में पके चूज़े व दीवाली पर दिये मूल्यवान उपहार याद दिलाए गए तो, खेल खतम पैसा हजम वाली बात कह कर दूसरी स्टोरी और लगा दी- पेड़ कट रहे हैं और इन धनपतियों की कॉटेजों के तले पेड़ों की आत्माएँ बिलख रही हैं। लेखों की कतरनें विपक्ष को परोसी गई। इन एन.जी.ओ. वालों की चूलें ढीली हो गई। परन्तु एक और कमाल हो गया। एक अनजान से वकील ने इसे जनहित याचिका बनाकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया।

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