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मैं भी हँस पड़ा। कहा, ''रहने दो। क्यों बेकार की झंझट लोगे, मैं होटल में खा आऊँगा।''
कमल ने कहा, ''सो नहीं होगा। देखता हूँ मैं पैसे, आज यहीं खाना!''
और कमल अपने कमरे में चला गया।
''बैठो वरुण'' मैंने कहा और हाथ पकड़ पास में पड़ी हुई कुर्सी की ओर खींचा।
वरुण बैठ गया।
पूछा उसने, ''आपको काम मिल गया।''
''हाँ भाई। प्रेस में पंद्रह रुपए मासिक।''
''अच्छा हुआ। सहारा हो गया। अब ठीक है हाँ। इधर तो आपके पास पैसे कुछ थे नहीं, काम कैसे चल रहा है?''
''इधर चार-पाँच दिन अनशन करके बिता दिया। फिर तीन रुपये ऐडवांस ले लिया। काम चल ही रहा है। अब मेरे पास एक रुपया, छह आने बाकी बचे हैं।
ये खतम हो जाएँगे तब...?''
''देखा जाएगा। कोई-न-कोई सूरत निकल ही आएगी।''
''सोते कहाँ हैं?''
''मुसाफिरखाने चला जाता हूँ। मजे में रात कट जाती है।''

सुनकर वरुण हँसा और मैं भी हँसने लगा।
कमल पीठ पर हाथ बाँधे हुए लौट आया। चिंता-मग्न। खाट पर मेरे पास बैठ गया।
वरुण ने कहा, ''तो भाई, पैसे दे दो। अब तो दिन बीता। जल्दी भोजन बनाया जाए।''
कमल ने कहा, ''पैसे तो मेरे पास भी नहीं हैं। क्या करें?''
वरुण को याद आया। कहा उसने, ''पैसे देवल के पास हैं। कह दीजिए, जाकर चीज़ें ख़रीद लाएँ, फिर दे दिए जाएँगे।''
कमल ने कहा, ''है देवल? तो जाओ भाई, ले जाओ। जो खर्च होगा मैं दे दूँगा।''
मैंने कहा, ''अच्छी बात है।''
सब भोजन करने बैठे। वरुण ने अकेले बनाया था।
कमल ने कहा, ''देवल, आज वरुण को बड़ी तकलीफ़ हुई।''
वरुण ने कहा, ''तकलीफ़? तकलीफ़ तो मुझ कोई नहीं हुई।... हाँ, भोजन कैसा बना?''
कमल बोला, ''बहुत बढ़िया... तुम्हारे बनाने की तारीफ़ है भाई... क्यों देवल, तुम्हें कैसा लगा?''
''बहुत उत्तम'' मैंने कहा।
''कितने पैसे खर्च हुए?'' कमल ने मुझसे पूछा।
वरुण ने पलकें उठाकर मेरी ओर देखा।
''नौ आने।'' मैंने कहा।
''नौ आने?'' कमल को आश्चर्य हुआ, ''यह बहुत है। मतलब, हाथ से बनाने का कोई असर नहीं पड़ा। खर्चा होटल के बराबर ही रहा।''
''क्या-क्या ले आए थे?'' वरुण ने कहा। मैंने सब गिना दिया।
कमल ने कहा, ''देवल, अभी तो नहीं हैं, दो-तीन दिन में तुम याद रखकर तीन आने मुझसे माँग लेना। हाँ'' उसने और कहा, ''और वरुण, तुम भी तीन आने दे देना।''
वरुण ने कहा, ''यह कहने की बात है...?''
''मैं उठता हूँ।'' कमल खाकर उठ गया।
मैं और वरुण खाते रहे।
वरुण ने कहा, ''देवल!''
''क्या कहना है?'' मैंने कहा।
''अब आपके पास कुल कितने पैसे हैं?''
''तेरह आने... क्यों?''
''आपको अभी पैसों की कोई ख़ास ज़रूरत तो नहीं है?''
''अभी तो नहीं है।''
''तो मुझे दे दीजिए। ज़रूरी काम है। जल्दी ही दे दूँगा।''
''कितना दूँ?''
''सब...''
इसके बाद हम खाकर उठे।

कमल अपने कमरे में बैठा था : मैं उसके पास गया। वह हारमोनियम पर उलटे-सीधे हाथ फेर रहा था और किसी सताये हुए आदमी के स्वर में चिल्ला रहा था -
जाओ उनके पास
बादल, जाओ उनके पास...
मैं चुपचाप बैठ गया।
मेरे पीछे वरुण आया। उसने मुझे और कमल को पान दिया। कमल का ध्यान टूटा ओर वरुण से कहा उसने कि बैठ जाओ।
''वरुण बैठ जाओ।'' कमल ने कहा, ''तुम गाओ वरुण!''
कुछ इधर-उधर करने के बाद वह गाने लगा।
जाओ उनके पास
बादल, जाओ उनके पास ...
गाते समय उसकी अधखुली आँखें और लक्ष्यहीन किंतु भावपूर्ण दृष्टि सामने की ओर एकाग्र, ऊर्मिल स्वर-लहरी, नि कंप आसन, और सुंदर ढाँचे का मुखमंडल, वर्तमान परिस्थिति से मुक्त निर्जन-भाव मुद्रा : एक गंभीर तन्मयता की सृष्टि कर रहे थे।
गाना समाप्त हुआ तब कमल जागा, मैं जागा। मैंने देखा कमल रूमाल से अपने गाल पर बहने वाली आँसुओं की धारों को सुखा रहा है और वरुण अपने मुख पर रूमाल फेर रहा है। मैं बहुत ही प्रभावित हो गया था।
मैंने कहा, ''वरुण...''
वह बोला, ''कहिए।''
और मैंने तब कुछ नहीं कहा। क्या उससे यह कहता कि तुम्हारा गाना बहुत ही सुंदर हुआ? ज़रूर कह देता लेकिन मेरे मन में यह भाव आया कि ऐसा कहना उसका अपमान है। इसी से मैं चुप-का-चुप रहा।
वरुण ने फिर कहा, ''क्या कहना चाहते हैं, कहिए न!''
मैंने कहा, ''कुछ नहीं।''
कमल ने कहा, ''वरुण, तुम जाओ।''
और फिर हम दोनों सो रहे।

इसके बाद दो दिन बीत गए। मैं इधर-उधर में रहा। कमल के यहाँ न जा सका। तबियत भी कुछ ठीक न थी। न तो रहने का कोई ठिकाना न खाने का बंदोबस्त : यह तो दशा थी।
इसी दशा में एक दिन कमल के यहाँ चल पड़ा। सवेरे का समय था। पहुँचा तो कमल कमरे में पढ़ता हुआ मिला। मुझे देखकर कमल ने कहा कि बैठो।
मैं बैठ गया।
मुझे मालूम हुआ कि कमल को जुकाम है। मैंने कहा, ''कमल, तुम्हें जुकाम कब से है?''
परसों से है। उस रात बाहर छत पर सोया रह गया।
कमल ने पूछा, ''तुम कैसे रहे?''
''मजे में रहा।''
''खाने-पीने का क्या बंदोबस्त किया?''
''अभी तो कुछ नहीं।''
''ऐं! तब तुम खाते क्या हो?''
''कुछ नहीं।''
''उफ भाई, तुम उपवास कर रहे हो?''
''नहीं, क्यों कि मैं भरपेट पानी पी लेता हूँ।''
''अजीब हो। सीधे क्यों नहीं कहते कि भूखे दिन काट रहो हो! यहाँ क्यों नहीं चले आए?''
''नहीं आ पाया। कोई बात नहीं है। फिर मैं जानता हूँ न कि तुम्हारा खुद का अर्थ-बल कैसा है!''
''जाओ, मैं तुमसे नहीं बोलूँगा,'' कमल नाराज हुआ।
मैंने कहा, ''भाई, यह सज़ा मत दो और चाहे जो करो।''
कमल ने कहा, ''यह लो तीन आने पैसे। किसी होटल में खा आओ। तब बैठो।''
मैं पैसे लेकर चल दिया।
खाकर लौट आया।
कमल ने देखा तो पूछा, ''खा आए?''
''हाँ।''
''क्या खाया?''
''पूड़ियाँ।
''कितने पैसे दिए।''
''छह पैसे पूड़ियों के और दो पैसे शाक के।''
''दो पैसे शाक के?''
''हाँ।''
''शाक के पैसे अलग से दिए?''
''हाँ।''
''यह क्यों... शाक तो पूड़ी के साथ यों ही मिलता है?''
''अच्छा!... मुझे मालूम न था। और एक बात हुई। मैं खा चुका तो मैंने दुकान के नौकर से कहा कि तुम्हारे कितने पैसे हुए? उसने पूछा कि आपने पूड़ियाँ कितनी लीं? मैंने बताया तीन छटांक। दूसरे नौकर ने मेरे कहने पर हामी भरी। तब उस नौकर ने कहा कि पूड़ियों के तो छ: पैसे हुए। मैंने उसकी बात अच्छी तरह समझकर कहा कि और शाक के? तब उसने हँसकर पूछा कि शाक आपने कितनी बार लिया? परोसने वाले नौकर ने हँसकर कहा कि दो बार। मैंने कहा कि ठीक है, दो बार। तब उसने बताया कि शाक के दो पैसे हुए। अत: मैं आठ पैसे देकर चला गया। मेरे चार पैसे बच गए। होटल में तो सब खर्च हो जाते। ठीक किया न?''
कमल झल्लाया, ''अजीब बुद्धू हो। दो पैसे फिजूल में लुटा आए और पूछते हो कि ठीक किया न?''
मैंने अपनी ग़लती महसूस की और कहा, ''अब तो मैं जान गया। आगे ऐसी बात होने की आशंका नहीं है। जाने दो अब इस बात को।''
कमल ने कहा, ''याद है तुम्हें? किस दूकान पर गए थे?''
मैंने कहा, ''भूख थी। खाने गया था। दूकान चीन्हने नहीं। कैसी बात करते हो?''
कमल विरक्त हुआ, ''हमें क्या? तुम अपना सब लुटा दो।''

इसके बाद लंबे अरसे तक चुप्पी रही।
मैंने मौन भंग किया, ''भाई कमल, अब तो मैं जाऊँगा। देर हो रही है।''
''मैंने तुम्हें बाँध रखा है?... तुम्हारा मन था आए : तुम्हारा मन हो चले जाओ। मुझसे क्यों पूछते हो?'' कमल उदासीन स्वर में बोला।
''भाई, तुम व्यर्थ नाराज़ हो रहे हो। मैं...''
''मैं नाराज़ होकर तुम्हारा क्या कर लूँगा? फिर तुमसे नाराज़ क्या होऊँ? जिस पर अपना कोई अधिकार हो उससे नाराज़ हुआ जाता है। तुमने अपने लिए मेरा कोई अधिकार स्वीकार किया है? तुमने कभी मुझे अपना माना है?''
मैंने कहा, ''कमल, यह तुम्हारा अत्याचार है। मैं कुछ कहना चाहता हूँ।''
कमल नरम पड़ गया। बोला, ''कहो।''
मैंने कहा, ''तुम जानते हो, वरुण ने मुझसे तेरह आने पैसे लिए हैं और तीन आने उस दिन का उसका भोजन-व्यय : सब सोलह आने हुए।'' ''बड़ा हर्ज़ है। तुम जानते हो, मेरे पास कुल चार पैसे हैं। इनसे कब तक काम चलेगा?''
''काम तो नहीं चल सकता। मुझसे क्या चाहते हो?''
''तुम वरुण से कहा दो कि देवल को उसके पैसे दे दो : उसकी इन दिनों बड़ी तंगी की हालत है।''
''तुम खुद क्यों नहीं माँग लेते?''
''भाई, संकोच लगता है कि सोलह आने के लिए तगादा कैसा? मेरा मन इस मामले में मज़बूत नहीं है। भाई, तुम्हीं कह दो।''
''वरुण के पास भी पैसे नहीं टिकते। आए कि गए। एक से एक नये-नये खर्च बढ़ते जाते हैं। सो मुझे विश्वास नहीं है कि वह पैसे दे सकेगा। ओर दे भी दे तो भी मुझे नहीं कहना चाहिए, क्यों कि वह मेरा मित्र है। मेरे कहने से जाने क्या बात उसके मन में समा जाय। अच्छा तो यही होगा कि तुम खुद कहो। लो, मैं बुलाता हूँ। वरुण...।''
''रहने दो तब। वह आप ही दे दे तो ठीक, नहीं तो देखा जाएगा।'' मैंने कहा।
परंतु वह पुकारता ही रहा, ''वरुण, ओ वरुण...!''
''आया-'' आवाज़ के बाद वरुण आया।
उसने मुझे नमस्ते किया और कमल से पूछा, ''क्या है?''
''देवल ने बुलवाया है।''
''आप कुछ कहना चाहते हैं?''
''नहीं।'' मैंने कहा।
''तो मैं जाता हूँ।'' वरुण बोला।
वह मेरी ओर, फिर कमल की ओर देख रहा था।
कमल चिल्लाया, ''देवल...?''
मैं चुप का चुप।
''कहते क्यों नहीं, देवल?''
''बात क्या है? इतना संकोच क्यों है?'' वरुण बोला।
मैं फिर भी चुप।
कहते क्यों नहीं, देवल?
कमल बोला, ''तुमने देवल से पैसे लिए हैं! सो इसका हर्ज़ हो रहा है, अब दे दो। कितना है?''
''एक रुपया।''
''अच्छा दे दो। इसे खाने-पीने का कष्ट है।''
वरुण ने मेरी ओर देखा - आप क्या दो-एक दिन रुक नहीं सकते?
''अभी पैसे नहीं हैं मेरे पास। मैं ज़रूर दे दूँगा। अभी कोई ख़ास ज़रूरत तो नहीं है?''
''नहीं।'' मैंने कहा।
कमल हतबुद्धि होकर मुझे एकटक देख रहा था। उसने कहा, ''अरे, तुम खाओगे कैसे...?''
वरुण ने मुझे देखा और कहा, ''तो मैं जाऊँ न?''
''हाँ जाओ।'' मैंने कहा।
वह चला गया।
पीछे कमल मुझ पर बहुत नाराज़ हुआ। उसने कहा, ''अब अच्छा है। जाओ, तुम भूखों मरो। मुझे क्या?''
इसके बाद मैं वहाँ से अपने काम पर चला गया।
उसने कहा, ''मुझे दु:ख है...''
मैंने कहा, ''दुखी मत हो। जब कहो मैं आ जाऊँ। इसमें दु:ख की कोई बात नहीं।''
''अच्छा आप परसों आए।''
''तो कहो कब आऊँ, जिससे तुम मिलो?''
''शाम को आइए।''
''अच्छा।''

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