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फिर गया। लेकिन न वरुण मिला, न पैसे। मन को समझाकर जैसे-तैसे कुछ दिन काट दिए। मेरे और लोगों को मेरा ढंग पसंद नहीं आया। उपवास! रोज उपवास! इस तरह ज़िंदगी कितने दिन चलेगी?
कमलापति ने कहा, ''आज तुम ज़रूर वरुण के यहाँ जाओ। रुपये तुम्हारे हैं। तब तुम्हें माँगने में संकोच किस बात का?''
''अच्छा। चला जाऊँगा।'' मैंने कहा।
''ज़रूर जाओ। कल मैं तुमसे फिर पूछूँगा कि तुम गए कि नहीं और न गए तो फिर हमारा-तुम्हारा कोई वास्ता न रहेगा।''
मैंने कहा, ''जाऊँगा भैया, ज़रूर जाऊँगा। आप कह रहे हैं तो बिना गए न मानूँगा।''
''अवश्य!''
''अवश्य!''

गया। पैसे नहीं मिले। वरुण को दुख हुआ। जिसके कारण मैं अपने तईं लज्जित हुआ।
इसके बाद दो-डेढ़ महीने मैं उसके यहाँ न जा सका। कभी उपवास, कभी भोजन : यों ही दिन कटते गए।
आखिर फिर एक अनशन-सप्ताह आया। मैंने देखा कि कमज़ोरी बढ़ती जा रही है। सोचा, ऐसे नहीं निभेगा। और मैं वरुण के घर की ओर चल पड़ा।
वहाँ पहुँचा। कमल के कमरे में पहले गया। वह खाट पर लेटा हुआ था। सिर पर पट्टी बँधी थी। मालूम हुआ कि ऐक्टिंग का रिहर्सल कर रहा था, उसी बीच उसका सिर दीवार से टकरा गया और वह अचिंतित चोट से मूर्च्छित हो गया और बहुत-सा रक्त भी बहा। मुझे उसके प्रति सच्ची संवेदना हुई।
उनसे काफ़ी देर तक उसी के बारे में बातचीत करता रहा। फिर कमल ने ही एकाएक पूछा, ''कहो देवल, आजकल खाने-पीने का क्या प्रबंध है?''
''होटल में ऐडवांस दे दिया था सो खतम हो गया : तीन दिन हुए।''
''अब...?''
''वहीं पुराना ढंग चल रहा है।''
''क्या करोगे?''
''वरुण के पास जो पैसे हैं उन्हीं के लिए आया था। दे देता तो अच्छा होता।''
''वरुण के पास? कब दिया था? मुझे याद नहीं आता।''
''उस दिन... जब हम तीनों का भोजन वरुण ने बनाया था और जिस दिन मैंने नौ आने पैसे चीज़ें ख़रीदने में खरच किया था... याद आया?''
''नहीं। इसी से तुमसे कह रहा हूँ कि दिला दो।''
''तुम खुद माँगो। मैं कैसे दिला सकता हूँ... और आजकल मुझसे उसकी बोल-चाल भी बंद है। मेरे भी उसने पैसे लिए हैं। दिये नहीं। माँगा। इसी पर बिगड़ गया और अब मुझसे नहीं बोलता। लेकिन मेरी कोई हानि नहीं। मैं तो उसी के मकान में रहता हूँ, किराये में पटा दूँगा। तुम ... तुम्हें तो अपने पैसे ज़रूर माँग लेने चाहिए, नहीं तो फिर मुश्किल से मिलेंगे। या तुम जाकर उससे कह दो कि मेरे पैसे कमल को दे देना और तब मैं उससे लेकर पैसे तुम्हें दे दूंगा।''
मैंने कहा, ''कोई बात नहीं। दे ही देगा। और न भी दे तो मेरा क्या जाता है... सोलह आने... बस!''
''जाकर तुम कहते क्यों नहीं?''
''इसी छोटी-सी बात से तुम्हारे खाने का इंतज़ाम कुछ दिन के लिए हो सकता है।''
''तो चला जाऊँ?''
''हाँ। हाँ। और क्या करना चाहते हो?''

मैं उठकर चल पड़ा। दुमंज़िले को जाने वाली सीढ़ी के पास गया और इतस्तत: करके एक-एक सीढ़ी पर ठहरकर सोचता हुआ आगे बढ़ने लगा।
एक जीना पार करके दूसरे पर पहुँचा। वहीं पर उधर से नीचे को जाता हुआ वरुण मिला।
उसने मुझसे नमस्कार किया।
मैंने प्रतिनमस्कार किया।
आगे बढ़ना चाहता था कि मैंने कहा, ''मुझे आपसे कुछ काम है।''
''मुझसे?''
''हाँ।''
''कहिए।''
''पहले अपने कमरे में चलिए।''
''यहीं कहिए न... क्या काम है?''
''यहाँ नहीं। वहीं चलिए। मैं कहता हूँ।''

मेरे साथ-साथ वरुण अपने कमरे में आया। एक कुरसी पर बैठ गया और दूसरी कुरसी पर बैठने के लिए मुझे इशारा किया। मैं अच्छी तरह बैठ गया तो मैंने देखा कि वहाँ एक और साहब बैठे हुए हैं। उन्हें मैंने वरुण के यहाँ अकसर देखा था। उसके साथी, परिचित, स्वजातीय या रिश्तेदार हों। मैं इतना साहस नहीं संचित कर पाया कि उनके परिचय को उत्कंठित होता। वे भी मेरे दृष्टि स्पर्श के परिचय में थे।
मेरे पहुँचने से उनकी अटल एकता में बाधा पहुँची और उन्होंने प्रश्न की दृष्टि से वरुण को देखा।
वरुण ने मतलब समझ लिया और उसने मुझे अच्छी तरह देखकर हँसकर कहा, ''आपका शुभ नाम देवल है। आप यह हैं - वह हैं... वह है... वह है... गरजे कि आप एक ही हैं... इनको अच्छी तरह समझने के लिए इनका साथ करना ज़्यादा आवश्यक है... आप...आपका ना... है और ये बगल के सुविख्यात कलाकार...के सुपुत्र हैं।''
इस तरह एक-दूसरे का परिचय पाकर दोनों ने परस्पर अपने को धन्य माना और हाथ मिलाया।

मैं तो संकोच में गड़ गया कि जिस काम के लिए आया हूँ उसे कैसे अंजाम दूँ, कैसे कहूँ कि मेरे पैसे दे दीजिए, बड़ा हर्ज़ है। और न कहूँ तो और कौन उपाय है कि रोटी का सवाल हल हो?
मेरी चिंता से दबकर वरुण ने एकतार मुझे देखा और कहा, ''तो...।''
मुझे अवसर मिला। जी में आया कि कह दूँ। लेकिन कुछ आगा-पीछा हुआ ही। फिर भी एक-एक शब्द के बोझ को अकेले ही उठाते हुए मैंने कहा, ''एक बात है... उसी के लिए...आया हूँ...।''
''किताब?'' वरुण ने कहा, ''किताब तो नहीं है।''
बहुत दिन पहले मैंने उससे शरद-ग्रंथावली माँगी थी - पढ़ने के लिए, और वह दे नहीं सका था। उसने तब बताया था कि किताब उसकी भाभी की है और वह देने में असमर्थ है और यह कि देवल जैसे भूमिहीन के पास से वह किताब फिर वापस मिलेगी, इसका भी विश्वास नहीं है और तब मैंने अपनी याचना को वापस ले लिया था।

आज मेरी अपूर्ण बात से जो उसने किताब की उद्भावना की, वह अकारण नहीं। उस समय मेरे हाथ में 'साहित्याचार्य शरच्चंद्र' पुस्तक थी, इसी से उसने धारणा की होगी कि यह पढ़कर इन्हें फिर संभवत: शरद-ग्रंथावली की आवश्यकता हुई हो। लेकिन मैं चूँकि पैसा लेने गया था सो इस ढंग के उत्तर से मुझे एक धक्का लगा। मैं हृदय से चाहता था कि वह मेरे इशारे को समझ जाए और पैसा दे दे। परंतु ऐसा न हुआ। बिना खुलकर कहे काम चलता नहीं दिखा।
मैंने कहा, ''किताब नहीं... पैसे...।''
''पैसे?'' वरुण ने कहा।
''हाँ...।''
''कैसे?''
''आपने लिए थे मुझसे...उस दिन...।''
''आपसे?... पैसे...?''
उसने मुझे सर से पैर तक बार-बार देखा। मेरे फटे पुराने कपड़े उसके जी को संतोष दे रहे थे कि इसके पास पैसे कभी नहीं हो सकते।
'हाँ।''
''कब?''
''उस दिन... जब आपने मेरा और कमल का भी भोजन बनाया था... आपके पास पैसे न थे... मेरे थे... एक रुपये छह आने... और नव आने खर्च हुए भोजन में... तेरह आने आपने मुझसे माँग लिए थे... आपको कोई काम था... सो कुल सोलह आने हुए...।''
''तो वे पैसे आपके थे?''
''मैंने समझा, कमल के थे। उसी को दे दिया मैंने।''
''अच्छी बात है। तो दिला दीजिए। कृपया।''
वरुण ने पुकारा, ''कमल! ओ कमल...!''
''आया!'' आवाज़ के पीछे-पीछे कमल आया।
''क्या है?''
''मैंने तुम्हें एक रुपया दिया है। वह देवल का है। दे दो इन्हें।''
''वाह, एक रुपया तो बहुत दिन हुए मैंने भी तुम्हें दिया था, उसे मैं न लूँ?''
''कब?''
''अगस्त का महीना था। क्लब के लिए तुमने लिया था...।''
''अच्छा... देवल के पैसे... तुम्हें याद है... मैंने कब लिए?''
''अच्छी तरह याद नहीं है। हाँ? उस दिन तीनों का भोजन बना था। तुमने ही बनाया था। पैसे देवल के लगे थे... कुल नौ आने। तीन आने अपनी ओर के मैंने बहुत पहिले दे दिए। तुमने दिए कि नहीं?''
''नहीं।''
''तो दे दो।''
''तेरह आने आपने और मुझसे लिए थे। कमल खाकर उठ गया था तब...'' मैंने कहा।
''याद तो नहीं आता। परंतु आप कह रहे हैं तो मैंने ज़रूर लिए होंगे। किस काम के लिए... आपको याद है?''
''यह तो बताया नहीं आपने मुझको।''
''अच्छा... अच्छा... आप कुछ दिन और नहीं ठहर सकते? आपको कोई ख़ास ज़रूरत तो नहीं है?''
''नहीं।'' मैंने कह दिया।
कमल ने मेरी ओर आँखें फाड़कर देखा और वरुण से कहा, ''वरुण, कुछ भी पैसे हों तो दे दो, ये आजकल निराहार रह रहे हैं। दे दो, वरुण, कुछ तो दे दो।''
''अफसोस! क्या करूँ, है ही नहीं।''
मैंने कहा, ''अफ़सोस की कोई बात नहीं।''
''तो...!''
''हाँ, आप अगले इतवार को... एक सप्ताह बाद आइए। मैं ज़रूर दे दूँगा...।''
''अच्छी बात है। नमस्ते।''
कमल को मैंने देखा और कहा, ''नमस्ते। फिर चला आया।''

''वरुण है?''
''वरुण?'' कमल ने कहा, ''वह तो कलकत्ते चला गया।''
''कब?''
''आज तीसरा दिन होगा।''
''कब तक लौटेगा भला?''
''अब एक साल बिताकर ही आ सकेगा। नहीं, न भी लौटे। अब तो उसके जल्दी लौटने की बिलकुल उम्मीद नहीं है।''
''तुम्हारे खाने-पीने का क्या इंतज़ाम है?''
''सब ठीक है।''
''होटल में खाते हो?''
''हाँ। कभी-कभी।''
''कभी-कभी?''
''हाँ।''
''आज खाना खाया है?''
''नहीं। मैं परसों खा चुका हूँ। तो वरुण के आने की कोई आशा नहीं... भाई कमल, मैं अब चलूँगा... अच्छा, नमस्ते।''
''आया करना।''
''अच्छी बात है।''

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16 दिसंबर 2007

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