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तंत्र से जन को आजाद पाकर, मुन्नालाल की जान में जान आई। तभी उसने आइसक्रीम बेचने वाले से पूछा, ''भइया इन गाड़ियों में कौन लोग सवार थे।'' आइसक्रीम वाले ने कहा, ''प्रधानमंत्री''।
आश्चर्य के साथ मुन्नालाल के मुंह से निकला, ''प्रधानमंत्री! ..वही अपना! हमारे गांव का ही तो..! एक ही स्कूल में साथ-साथ पढ़े थे। ..देखा नहीं होगा!''

मुन्नालाल ने जनतांत्रिक-लज्जा की धूल झाड़ी और खिसिआते हुए बोला, ''बेचारे ये सिपाही भी क्या करें? इन्हें क्या पता प्रधानमंत्री अपना ही भाई है। पता होता तो ऐसा सलूक न करतें!
मूर्ख था, मुन्नालाल! जनतंत्र के अंकगणित को रेखागणित के सिद्धांत से हल करने की कोशिश में जुटा था। मालूम नहीं था, उसे जनतंत्र बिना लगाम के घोड़े के समान है। जिस पर कोई नियम-कानून और गणित का ही क्यों, नीतिशास्त्र का भी कोई सिद्धांत लागू नहीं होता। जनतंत्र की इस भूल-भूलैया से बेखबर मुन्नालाल सोचता-सोचता घर लौट आया, ''राजपथ, जनपथ के ऊपर से गुजरता है या जनपथ, राजपथ के ऊपर से!''

कुछ तो शरीर की पीड़ा और कुछ राजपथ बनाम जनपथ के प्रश्न की उलझन, रात-भर सो नहीं पाया मुन्नालाल। सुबह हुई और फिर पहुंच गया वोट क्लब। सिफारिशी अभियंता की तरह, चौराहे का बारीकी से निरीक्षण किया। फिर जा बैठा एक पेड़ की छांव में। वहां भी चैन से नहीं बैठ पाया। राजपथ बनाम जनपथ की पहेली उसके लिए सिरदर्द जो बनी हुई थी। जमीन पर लकीरें खींचता-मिटाता फिर लकीर खींचता फिर मिटाता। इसी दौरान उसके दिमाग में एक बात घुसी, '' बाद में खींची गई रेखा पहले खींची गई रेखा को दबाती है, इसलिए बाद की ही रेखा पहली रेखा के ऊपर से गुजरती है।''
मुन्नालाल को लगा, लो समस्या हल हो गई। चेहरा काले गुलाब की तरह खिल उठा। मगर एक क्षण के बाद ही लिली के फूल की माफिक फिर लटक गया। सोचने लगा, ''मगर यह कैसे पता चले कि राजपथ की लकीर पहले खिंची या जनपथ की।'' आसमान से गिरा खजूर पर लटक गया, मुन्नालाल! और फिर चिपक कर रह गया, राजपथ बनाम जनपथ के पिघले तारकोल में।
दिन ढल चुका था। राजपथ धीरे-धीरे रोशन होने लगा। जनपथ पार आइसक्रीम व अन्य प्रकार के खोमचे वालों ने कब्जा जमा लिया। एक-दो-तीन जनतंत्र के पहरेदारों की चहलकदमी फिर शुरू हो गई। डंडा घुमाता एक दरोगा आया और नित्य-नैमित्तिक कर्म की तरह एक-एक कर रेहड़ी-पटरी वालों को फटकारने लगा। हथेली गरम हुई, झोली में 'आयुष्मान भव' का आशीर्वाद डाल दूसरी रेहड़ी पर जा डंडा फटकारा। जिसने थोड़ी भी चूं-पटाक की उसे ही जनपथ से खदेड़ अशोक रोड पहुंचा दिया।
जनतांत्रिक शुल्क वसूल कर दरोगा ने अपनी गाड़ी आगे बढ़ाई और हवलदार का दौर शुरू हो गया, ''अब्बे..! पिस्ते वाली चार क़ुलफ़ी निकाल'' पहरेदारी आवाज में हवलदार बोला। ''..अभी तो ले गए थे, बाबू जी! अब दूसरे रेहड़ी वाले से..!'' आइसक्रीम वाला मेमने की तरह मिमियाते हुए बोला।
हवलदार ने हवलदारी दिखलाई, ''हरामजादे रेहड़ी लगानी है या नहीं। साले को अशोक रोड पर भी खड़ा नहीं होने दूंगा!''
रेहड़ी वाले ने हिम्मत जुटाई, ''सरकार दरोगा जी को अभी तो पचास रुपए की एंट्री कराई है।''
बावले कुत्ते की तरह हवलदार चिल्लाया, ''अबे, ऐंट्री कराई होगी बाप की डायरी में। बीट ऑफ़िसर तो मैं हूँ। ..ज़बान लड़ाता है, स्साले! ..और इसी के साथ हवलदार का लोकतांत्रिक-दण्ड आइसक्रीम वाले की कमर पर पड़ा। पुलिसिया मौलिक अधिकार के एक ही वार से रेहड़ी वाला बिलबिला उठा। सिपाहियों ने उसकी रेहड़ी धकेली और जनतंत्र के मार्ग में आड़े आई गंदगी साफ कर दी!
मुन्नालाल, जनतंत्र की इस जनतांत्रिक-प्रक्रिया को खड़ा-खड़ा निहार रहा था। वक्त के मारे तभी हम भी वहां पहुंच गए।
हम मुन्नालाल से बोले, ''अरे दादा! क्या हालत बना रखा है, सड़ी कमल ककड़ी सा! भाई लोगों ने खातिरदारी कर डाली क्या? कोई बात नहीं दादा, बिरादरी ही ऐसी है, मोहल्ले में अकेले ही रहना पसंद करते हैं! ..खैर! बताओ हालत ऐसी क्यों बना रखी है?''
अल्पमत की सरकार में एक और सांसद की तरह हमें पाकर, मुन्नालाल के चेहरे पर संतोष की लकीरों ने आधिपत्य कायम किया। कपड़े झाड़े, बालों में उँगलियाँ चलाई और पिटे कुत्ते की तरह आवाज निकालते हुए बोला, ''कुछ नहीं भइया! जनतंत्र के कायदे-कानून समझने की कोशिश कर रहा था। ..खैर, छोड़ो ये बातें! मगर एक बात बताओ भइया, ''ये राजपथ के ऊपर से जनपथ गुजर रहा है या जनपथ के ऊपर से राजपथ?''
मुन्नालाल का बेतुका सवाल सुन मैंड्रेक्स की गोली खाए आदमी की तरह हमारा सिर चकराया। हम बोले, ''तुम भी कोई-न-कोई बेतुका सवाल लेकर बैठे ही रहते हो दादा। अरे! कोई भी किसी के ऊपर से गुजर रहा हो, हमारी गूंठा सेती! हमें क्या मतलब? ..आइसक्रीम खानी हो तो बताओ?''
चोट खाए नेवले की तरह घूरता मुन्नालाल बोला, ''टालने की कोशिश मत करो भइया! जनतंत्र का बुनियादी सवाल है! भारत का पूरा संविधान ऐसे ही सवाल-जवाब से अटा पड़ा है! संविधान समीक्षा के पीछे भी बुनियादी सवाल यही है कि राजपथ ऊपर से गुजर रहा है या जनपथ!''
सवाल हमें भी जनतंत्र की बुनियाद से जुड़ा-जुड़ा सा लगा। हम बोले, ''सवाल वास्तव में बुनियादी भी है और कश्मीर समस्या की तरह जटिल भी। चलो, सदी के दार्शनिक लाल बुझक्कड़ के पास चलते हैं।''
बस फिर क्या था, मुन्नालाल उछल पड़ा, ''ठीक कहते हो भइया, लाल बुझक्कड़ ही हल कर पाएँगे इस बुनियादी सवाल को। वही सुलझा पाएंगे इस पहेली को। ..चलो, चलते हैं!''
हमने कहा, '''दादा रात के ग्यारह बजे हैं। शरीफ आदमी के घर जाना इस वक्त अच्छा नहीं है। फिर मेरे साथ
बाल-बच्चे हैं। कल सुबह-सुबह चल देंगे।''

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