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उसकी अतिशय आज्ञाकारिता पर मैं कुछ बोलना चाहता था पर पता नहीं कैसे मेरे मुँह से निकल गया, ''अमर भाई, यह जो आदमी को निरंतर सफलता मिलती है- यह शायद संयाग-वंयोग और भाग्यरेखाओं का उतना कमाल नहीं है जितना संभवतः सूझ-बूझ का है। सधी हुई दृष्टि और कठिन परिश्रम मनुष्य को कहीं से कहीं पहुँचा देते हैं।''
उसने बेजारी से हवा में पंजा लहराया और मेरी टिप्पणी पर प्रतिवाद किया, ''ऐसा नहीं है प्यारे, अच्छे से अच्छे लोगों की मेहनत और दूरदृष्टि धरी की धरी रह जाती है। जनाब अब मुझे देखो, मेरा प्रमोशन कभी रुका है। तुम्हारे सामने क्लर्क लगा था। आज डिप्टी सेक्रेटरी बना बैठा हूँ। कोई दूसरी मिसाल है तुम्हारे सामने। पिछले दिनों यों ही मज़े में मैंने एक लाटरी का टिकट खरीद लिया था। रिज़ल्ट देखा तो पता चला लाखों जीतने वाले और मेरे नंबर में मामूली-सा फ़र्क था।''
इस दफा उसे ग़लत जगह पकड़ने में मुझे ज़बरदस्त सफलता मिल गई। मैंने हँसकर कहा, ''प्यारे भाई तुम्हारी उपलब्धियाँ तो वाकई अद्भुत हैं। मगर तुम्हारे सोचने में बहुत बड़ा घपला है।''
''वह कैसे?'' उसने चकित होकर पूछा।
''वह ऐसे कि तुम्हारी सफलता जोड़-तोड़, जोडना-घटाना, गुण-भाग पर निर्भर करती है। तुम्हें यह वहम है कि तुम्हें सफलता हर बारर स्वतः ही मिल जाती है जबकि यह सही नहीं है। यदि सोचते ही सफलता मिलती होती तो लॉटरी भी तुम्हारी ही निकलती और लाखों के इनाम के मालिक भी तुम ही हुए होते।''

मैं देख रहा था कि मेरी बात से सहमत होना उसके लिए मौत स्वीकार करने जैसा था। यह एक विडंबना ही कही जाएगी कि मैं, जो हमेशा दबा घुटा और उसके सामने दीन-हीन त्रस्त-सा दिखाई देता था एकाएक उसकी पकड़ से बाहर हो गया था। मैंने कोई मौलिकतापूर्ण या नई बात उससे नहीं कहीं थी। मैं जो अनायास कुछ कहा गया था उसके कहे हुए तथ्य से जुड़ा हुआ तर्क था। शायद उसने एक बार भी नहीं सोचा होगा कि उसे उसी के अस्त्र से आहत कर दूँगा। भ्रांति उसके चेहरे पर घनीभूत बादल की तरह फैल गई और वह खोए हुए स्वर में बोला, ''तुम मुझे फिजूल ही ज़मीन करने पर आमादा हो। मैंने वैसा कुछ नहीं किया जो तुम बतला रहे हो।''

मैं तो तुम्हें कोई अनोखी या झूठी बात नहीं बतला रहा हूँ। क्या यह सही नहीं है कि तुम अपने विभाग के डायरेक्टर साहब के बच्चों को बरसों तक पढ़ाते रहे हो। वे जहाँ जहाँ तबादले पर गए तुम हमेशा उनके साथ नहीं गए? सच्चाई यह है कि तुमने फाइलों में आँखें फो़ड़ने के बजाए उनके (डायरेक्टर के) प्रति व्यक्तिगत वफ़ादारी को सर्वाधिक महत्व दिया है। क्या तुम इसे किसी सूर्य या चंद्र रेखा द्वारा किए गए भाग्योदय से कम महत्व दे सकते हो।''

इस बार वह एकदम चुप हो गया, बल्कि सिर नीचे डालकर बैठ गया। इसी समय पत्नी ने सूचना दी कि मेज़ पर खाना लगा दिया गया है। मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा और खाना खाने की बात कही।
वह किंचित ज़ोर लगाकर उठा और बाथरूम की दिशा में जाते हुए बोला, ''मुझे खुशी है कि इधर तुम काफी खटकले होते जा रहे हो।'' इस पर मैंने कोई टिप्पणी नहीं की। वह बाथरूम से लौटकर खाने की मेज़ की तरफ़ आया और कुर्सी पर धम्म से बैठ गया। उसके भरे हुए गोल चेहरे पर जहाँ हमेशा सफलताओं का चिकनापन दमकता रहता था, इस समय सोचने की ऊहापोह दिखाई पड़ती थी। मैंने उसे इतना गंभीर कभी नहीं देखा था। मैंने हँसते हुए कहा, ''हालाँकि मैं दिल से चाहता हूँ कि कभी-कभी तुम्हारी आँखें और चेहरा कम से कम ऐसा ज़रूर दिखें जैसे कि अब हैं। पर फिलहाल तो तुम भोंदू बकस की तरह भरपेट खाना खाओ।''
वह बोला, ''टीचर होकर तुम काफी फिकरेबाज़ हो गए हो।''
''क्या करें अपनी तो कोई भाग्य-वाग्य रेखा है नहीं। इसीलिए सोचता हूँ कि कभी-कभी तुम भी अपनी इन रेखाओं से पिंडं छुड़ा लिया करो।''

उसने मेरी बात पर तो मुखर रूप से कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की हाँ, अपने दोनों हाथों की हथेली फैलाकर उस पर फैली रेखाओं को गौर से देखने लगा। मुझे लगा- वह इन लकीरों में इतना गहरा धँस गया है कि अब उसकी इनसे मुक्त होने की कोई संभावना बाकी नहीं रह गई है।

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२२ सितंबर २००८

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