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उन बीती यादों का इस शाम के साथ क्या रिश्ता है, यह मैं आज तक समझ नहीं पाया हूँ और जब कभी इस अफसाना शाम को कहीं और जाने का निवेदन करता हूँ तो वह मेरे इस मकान के पीछे स्थित उस विराट, लंब्, असंख्य रोशनियों में लकदक करती टॉवर घड़ी में जा पहुँचती है और हैरत की बात यह कि मैं फिर उसकी बेवजह प्रतीक्षा करता हूँ। यह प्रतीक्षा उस शाम की है जो अभी-अभी टॉवर घड़ी में समा गई है। दूसरी, जो मेरे दरवाज़े पर चुपचाप ठिठकी-सी खड़ी है... यह कहीं नहीं जाएगी, इसकी पहचान बस इतनी-सी है कि यह मेरे संग होती है। मेरे मन में होती है और इसे यहीं रहना है।

यह शाम मेरे अकेलेपन की हमसफ़र है। सच तो यह है कि मैंने यह कभी नहीं चाहा कि यह मेरे पास न हो और कहीं और चली जाए। लेकिन मैं जब उदास होता हूँ तो चाहता हूँ कि वह मेरे पास न हो क्यों कि मैं अपनी उदासी को तनहा जीना चाहता हूँ... जहाँ कोई न हो, सिर्फ़ मेरे भीतर का चुप सन्नाटा हो... एक खोया हुआ खामोश पल हो, एक अनजाना लम्हा... एक चुप चुप्पी और फ़िज़ा में भूली हुई दास्तान हो... पर जब यह सब होता है तो यह मासूम शाम चुपचाप मेरे पास आ बैठती है और कहती है, ''मैं तुम्हारी संगिनी हूँ।'' मैं अलमाटी, चिमकेन या तराज की पहाड़ियों से उतरती उस शाम को याद करता हूँ जो धुंध में लिपटी होती थी और रात के साए में समा जाने से पहले मुझे अलविदा करते कहती थी कि पहाड़ पर रातें लंबी हुआ करती हैं।

तराज की तरह चिमकेन की रातें भी लंबी हुआ करती थीं। रोशनी के नाम पर वहाँ बर्फ़ की दूधिया रोशनी थी जो लंबी सुनसान सड़कों के किनारे लैंपपोस्ट और बिजली के पोल पर बर्फ़ से ढकी थी। नेशनल पैलेस के सामने सड़क पर कजाक लड़कियों की चहलकदमी थी और दूसरी तरफ़ से नौजवानों की मस्ती-भरी चाल की मानिंद उनकी जवानी की रवानी थी।

अपने गेस्ट हाउस से नीचे उतरता मैं पहाड़ियों पर बनी पगडंडी देख रहा था जो टेढ़ी-मेढ़ी होती हुई नीचे तक पहुँचती थी। मेरी तरह कई लोग वापस लौट रहे थे। ये वे लोग थे जो देखने में अत्यंत कुलीन और संभ्रांत लग रहे थे, जिनके पास चमचमाती कारें थीं...। ये घूमने-फिरने के ख़याल से यहाँ आए होंगे। यहाँ भी एक ठहरी हुई शाम थी।

एक शाम- पीली उजास वाली शाम! यह शाम धानी चुनरी पहने थी और उसकी हथेलियों पर पीली मेहंदी लगी थी। ऊँचे-ऊँचे लंबे दरख़्तों से छनकर यह नीचे ज़मीन पर पसर गई थी। वह अगस्त का एक लंबा महीना था और कज़ाकस्तान में पतझर के मौसम के रूप में याद किया जाता था। पेड़ से टूटे पत्ते नीचे ज़मीन पर... चारों तरफ़ पीले-पीले पत्ते... उनका पेड़ से झर-झरकर गिरना ठीक वैसा ही था जैसा कि दिसंबर या जनवरी के महीने में आकाश से गिरती रुई के फाहों समान बर्फ़ को देखा जा सकता है। इस पतझर के महीने में और वीरान, उचाट इस मौसम में ये पीले पत्ते वातावरण को जोगिया बनाए दे रहे थे और पहाड़ियों से अभी-अभी उतरकर आई शाम जोगन लग रही थी जो जाने कितने-कितने जंगल-जंगल, पेड़-पेड़ और जाने कई-कई दरख़्तों के आर-पार और रू-ब-रू होकर मेरी हमकदम थी।
हाँ! वह एक जोगिया शाम थी...

इस शाम का भी एक रिश्ता है मेरे साथ। इसका रिश्ता बड़ा अजीबोगरीब है। अलमाटी के दोस्तिक एवेन्यू से मैं बीती रात लौटा था। गोस्त रेस्तरां में मैंने रात का खाना लिया था। वह एक रूसी रेस्तरां था। एक बहुत प्राचीन और पुरातन-सा... रूसी साम्राज्य के दिनों की याद कराता यह रेस्तरां और उस रेस्तरां में काम करने वाली रूसी और कजाक लड़कियाँ! रूप, रंग और सौंदर्य में उनमें और यहाँ के फूलों में कोई ख़ास फ़र्क नहीं था।

मैं नितांत अकेला था और इंतज़ार कर रहा था अपने रूसी मित्र निकोलाई का, जिन्होंने मुझसे वादा किया था कि वह एक मीटिंग के बाद सीधे गोस्त रेस्तरां में ही मिलेंगे। इस रेस्तरां के विषय में निकोलाई ने ही मुझे बताया था कि यहाँ अधिकतर इंडियन आते हैं। रूसी में गोस्त का अर्थ गेस्ट होता है। 'अतिथि' शब्द हम भारतीयों के लिए एक बड़ा शब्द है। इतना बड़ा कि इस एक शब्द में पूरा संसार समा जाए। निकोलाई के इस शब्द-ज्ञान पर मुझे हैरानी हुई थी... एक बार मिदोन से वापस लौटते निकोलाई ने विस्तार से समझाया था कि किस प्रकार महान रूसी चित्रकार रोरिक भारत को अपना महान मित्र मान बैठे थे और उन्होंने कहा था कि यह देश वास्तव में महान हैं। वर्षों भारत-भूमि पर अपनी साधना करने वाले रोरिक हिमालय-दर्शन पर मुग्ध हो गए थे।
मैं निकोलाई की प्रतीक्षा कर रहा था...।

वह एक पीली उजास वाली शाम थी और इस रेस्तरां में बिजली के पीले बल्ब उस शाम को पूरी तरह जोगिया शाम बना रहे थे। हाँ! इस शाम के साथ मेरा अजीबोगरीब रिश्ता है।

वह इरिना नाम की लड़की थी जो मेरे सामने खड़ी थी। आश्चर्य! उसने पीले रंग की ही ड्रेस पहन रखी थी। एक हल्के पीले रंग का दुपट्टा उसके कंधों पर लहरा रहा था और वह उसे बार-बार सँभाल रही थी।
''आप भारत से हैं? आर यू फ्रॉम इंडिया? गसपदिन बातकोंदा? इंदे?''
एक सवाल तीन भाषा में! यह लड़की रेस्तरां में काम करती है या फिर इंटरप्रेटर है? तनिक चौंकते हुए कह गया, ''हाँ! मैं...!''
''जानती हूँ। मैं इरिना हूँ... इरिना मारकावा! पर मुझे सब इरिना कहकर पुकारते हैं। आपके बारे में निकोलाई साब ने बताया था। इस रेस्तरां में इंडियन फूड मिलता है... क्या चाहिए आपको?''
''आप यहाँ काम...?''
''जी मैं यहाँ इंटरप्रेटर हूँ। जिन्हें रूसी या कजाक भाषा नहीं आती, मैं उन लोगों की सहायता करती हूँ। हमारे देश में भाषा एक बड़ी समस्या है। यहाँ लोग अधिकतर रूसी या कजाक बोलते हैं। अंग्रेज़ी भी कोई नहीं बोलती... विवशता है।''
वह फिर कह गई, ''आप क्या लेंगे?''
मैंने पूछा, ''क्या आप भारत गई हैं?''
''जी! भारत तीन बार गई हूँ...''

इस बीच एक जोड़ा रेस्तरां में झगड़ने लगा। बात पता नहीं कहाँ से शुरू हुई होगी... पर समस्या साथ न रहने की थी। इरिना कह रही थी कि वे अब साथ-साथ नहीं रहना चाहते इसलिए परस्पर झगड़ रहे हैं। अलग-अलग रहना यहाँ समस्या नहीं है। साथ-साथ रहना ही असली समस्या है। ... ओह! मैं भी क्या ले बैठी! मुझे लगता है कि आप कुछ माँग नहीं रहे हैं क्यों कि आप गसपदिन निकोलाई साहब का इंतज़ार कर रहे हैं। निकोलाई बहुत बिजी आदमी हैं।''

यह इरिना आखिर मुझमें दिलचस्पी क्यों ले रही हैं? इसका काम लोगों की भाषिक समस्या को सुलझाना है तो यह यहाँ से वहाँ क्यों नहीं जाता जहाँ मेरी तरह कुछ इंडियन बैठे हैं?

वे भारतीय लोग बखूबी जानते हैं कि मैं भी उसी देश का हूँ लेकिन वे 'हाय', 'हैलो' या 'नमस्ते' नहीं करते। भारतीयों का विदेशों में आकर दिमाग़ ज़रा ज़्यादा खराब हो जाता है।
इरिना टमाटर का सूप ले आई, ''इसे ग्रहण करें, तब तक निकोलाई भी आ जाएँगे। आप मेरी चिंता न करें। मैं आपकी देखरेख और स्वागत-सत्कार के लिए हूँ। निकोलाई कह गए हैं।''

सूप स्वादिष्ट था और वाकई भारतीय सुगंध से पूरित था। मैंने इरिना की तरफ़ भरपूर देखा- पहली बार और वह मुझे बेहद खूबसूरत है... शायद किसी ने किया भी हो। रेस्तरां शराब की मस्ती में डूब गया था।

यहाँ मुझे कोई होशो-हवास में नज़र नहीं आ रहा था। दूर बैठे वे भारतीय बंधु भी अब मदहोश होकर सुंदरियों के साथ झूल रहे थे और खुद को भूल रहे थे जबकि सच यह है कि वे भटक गए थे। उनका यह भटकाव उन्हें कहाँ से कहाँ ले आया है और कहाँ ले जाएगा- यह मेरे लिए उतना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं था जितना यह कि एक भारतीय मानस को अपनी सीमाओं के प्रति निरंतर सचेष्ट और सजग होना चाहिए जब कि वह पराए देश में रह रहा हो। वहाँ एक घिनौनी हँसी थी और उनकी शाम चिथड़ा-चिथड़ा हो चुकी थी जिस पर पागलपन और बदहवासी की तार-तार पैबंद लगी थी...

''क्या हम बाहर बैठ सकते हैं?'' मैंने इरिना से पूछा।
''ज़रूर! आपको यहाँ अच्छा नहीं लगा होगा! वह मुस्कुराई। उसके मुस्कुराने पर जोगिया शाम सुरमई बन गई। निकोलाई अब भी नहीं आए।
''क्या आप निकोलाई को फ़ोन कर सकती हैं?''
''वो बुरा मान जाएँगे। उन्होंने कहा है तो वो ज़रूर आएँगे। उन्हें डिस्टर्ब करना उचित नहीं है।''

गोस्त रेस्टोरेंट का बाहरी हिस्सा बेहद खूबसूरत था... यहाँ ताज़ा हवा थी, चौराहे से ठीक सटा यह खूबसूरत हिस्सा हर आने-जाने वालों का एक एकांत हिस्सा हो सकता था जहाँ मैं बैठा था। उस चौराहे पर 'देशी', 'विदेशी' चीज़ों की नुमाइश से भरे बड़े-बड़े पोस्टर और होर्डिंग्स लगे हुए थे। मैं रेस्तरां से बाहर था लेकिन वहाँ से आवाज़ें साफ़-साफ़ आ रही थीं। उन मिली-जुली आवाज़ों का मेरे लिए कोई अर्थ नहीं था... बस वे हवा में तैर रही थीं और फ़िज़ा पर फिसल रही थीं।
''आप तीन बार भारत जा चुकी हैं... आप कर रही थीं...।''
''जी हाँ! जब कभी वहाँ जाती हूँ तो लगता है कि मैं किसी बड़ी मातृभूमि में पहुँच गई हूँ। वो भारतीय लोग भाग्यशाली हैं जिनकी मातृभूमि भारत है। पर आप मेरी एक बात का प्लीज़ जवाब दें। क्या मातृभूमि उस देश के निवासियों की ही होती है। क्या एक व्यक्ति या एक देश की मातृभूमि दूसरे देश की मातृभूमि नहीं हो सकती?''

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