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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से ज्योतिष जोशी  की कहानी— 'कितने अकेले'


आधी रात की गहन स्तब्धता में तेज बौछार के साथ वर्षा और बिजली की ज़ोरदार गरज। खिड़की से रह-रहकर आते भीगी हवा के झोंके से तपते जिस्म को थोड़ी-सी राहत मिल जाती थी। पर मन किसी अनजान कोने में टिका बार-बार विचलित हो जाता था। इतनी देर रात गए आँखों में नींद नहीं और रह-रहकर खाँसी की सुरसुरी सीने के बल को तोड़े जा रही थी। उसने कई बार पदमा को आवाज़ दी पर वह अनसुना किए सोई रही। वह हिम्मत करके उठा और जैसे-तैसे एक गिलास पानी लेकर हलक में उतारा। बार-बार खाँसने-खंकारने के बाद भी छाती में जमा बलगम बाहर नहीं आता। नाक अब भी बंद थी। सिर लगातार टनक रहा था और शरीर ऐसा पस्त था कि ज़ोर न लगे तो दो कदम चलना भी मुश्किल। वह आहिस्ता-आहिस्ता चहलकदमी कर रहा था कि अचानक स्टूल पर रखा गिलास हाथ के झटके से फ़र्श पर लुढ़क पड़ा...टनाक...। पदमा अचकचाकर उठ पड़ी।

''क्या हुआ? क्या गिरा...! अरे तुम! इतनी देर रात गए सोए भी नहीं! ओफ्फ! यह भी क्या बला है! ...माँ...आ...!'' करवट बदलकर जमुहाई लेती हुई पदमा फिर सो गई। बहुत देर तक यों ही खड़े रहने के बाद उसने कमरे की बत्ती बुझाई और सोने की एक और कोशिश में चादर से तन ढका। फिर खाँसी की सुरसुरी और बाहर की टप-टप से परेशान होकर उठा और बैठ गया। थोड़ी देर तक उसे अपनी इस हालत पर कुढ़न हौती रही पर अबकी बार जबरन सो रहा।

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