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इस बीच बीमारी की इस दशा में उसने अपने और पदमा के बीच बढ़ गई दूरी को बखूबी मापा। कहाँ उसकी पत्नी जो उसकी नींद के पहले झपकी भी न ले और कहाँ यह कुलटा जो बीमारी तक में साथ देना अपराध मानती है। उसका वश चले तो वह अभी कहीं निकल जाए पर दुर्भाग्य यह है कि उसके न बाप हैं न माँ। एक भाई है वह देखना नहीं चाहता और एक बहन है वह देख ले तो काटने दौड़े। इस पर यह हेठी कि पड़े-पड़े घर में फ़िल्मी धुनें गुनगुनाएगी और उसने ज़रा भी कोई बात की तो बरस पड़ेगी। कॉलेज के दिनों की उसकी सारी मिठास ज़हर हो चुकी है और तिलिस्मी आँखों में उसे शैतान दिखने लगा है। वे भी क्या दिन थे जब घंटों वह मीठी-मीठी बातें कर रंगीन सपने दिखाती थी। ज़रा भी माथे पर शिकन देखती तो बिलख पड़ती। बढ़ी हुई दाढ़ी तो उसे पसंद ही नहीं थी। कहती थी, ''हम दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं। सब कुछ मिल-जुलकर बाँट लेंगे। और मरेंगे भी एक ही दिन। सबसे अलग होगी अपनी ज़िंदगी।  फूलों से गमकते पलों में भीनी-भीनी चलेगी हमेशा प्यार की हवा और खोते रहेंगे जीवन-भर हम दोनों। तुम रोए और मैं मरी। तुम हँसे और मैं जी उठी। तुम्हें देखूँ तो चाँद आँगन में। तुम्हें पुचकारूँ तो सूरज मुंडेर पर।''

और इस तरह उसे उसने फाँसा और ला पटका इस हाल में- जहाँ वह बन गया सिर्फ़ बुत। वह रुआँसा हो आया। विगत के वे दृश्य बार-बार उसकी आँखों के सामने आते और उसे तोड़ते जाते। उसे लगता जैसे अब इस दुश्चक्र से निकलना उसके लिए संभव नहीं है। उसे अचानक स्मरण हो आया कि उसने तब से घर चिट्ठी नहीं लिखी। वह झुंझला उठा, तनाव में अपने होठ दाँतों से काट लिए। वह फिर सोचने लगा- आज तक अपनी पत्नी को एक रुपया भी दिया हो, इसकी याद नहीं, पर यह शैतान हर महीने की तनख्वाह न ले तो जीने न दे। महीने भर एक-एक पैसे का हिसाब करती है। उसके नाम बैंक में खाता नहीं है पर उस कुलटा के नाम दो-दो खाते हैं। ये उसी ने खुलवाए थे और हर महीने शृंगार तथा उसके साज़-बनाव पर हज़ारों रुपए खर्च की परंपरा उसी ने शुरू की थी। वह कुछ और विचलित हुआ- घर में एक-एक पैसे की तंगी और इधर हज़ार का बाज़ार। खुद को लानत-मलामत करता हुआ वह सोच ही रहा था कि ज़ोर से खाँसी आई और मुँह से बलगम का एक थक्का चादर पर जा गिरा। उसने जल्दी-जल्दी बत्ती जलाई और उसे साफ़ किया। इसी बीच अचानक सीने में ज़ोर का दर्द उठा, जिससे वह बहुत परेशान हुआ। घड़ी में अभी तीन बज रहे थे और रात ढलने में तीन-चार घंटों की बाधा थी। वह अंदर से बुरी तरह काँप उठा कि कहीं कुछ अप्रिय न घटे। उसे इस बात का भी डर सता रहा था कि अबकी बार अगर पद्मा जाग गई तो उसकी ख़ैर नहीं है।

कुछ ही समय बाद उसने उत्तेजना में बालकनी का दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलते ही हवा का तेज़ झोंका आया जिससे कैलेंडर सहित उसकी फ़्रेम की हुई तस्वीर दीवार से फ़र्श पर लुढ़क पड़ी। उसने जल्दी से दरवाज़ा बंद कर गिरी हुई चीज़ों को यथास्थान लगाया और कुछ क्षणों तक चुपचाप बैठा रहा। फिर उसका मन हुआ कि वह पिछले दिनों घर से आए पत्रों को पढ़े। उसने धीरे से अलमारी खोली और चिट्ठियों के बंडल निकाले। छाँटते-छाँटते पिछले साल की वह चिट्ठी दिखाई पड़ी जिसमें उसकी पत्नी की बिगड़ी तबीयत की सूचना थी और जिसमें उसके पिता ने बकौल उन्हीं के 'शर्म-हया छोड़कर कुछ रुपए' तत्काल भेजने की अनुनय की थी पर उसने रुपए भेजना तो दूर, जवाब तक नहीं दिया था। इतने दिनों से घर में क्या हुआ, उसे कुछ भी मालूम नहीं है। वह किसी अज्ञात आशंका से काँप उठा। क्या पता, कौन किस हाल में है- किसी को कुछ हुआ तो नहीं। उफफ! उसने चिट्ठियों के बंडल को वहीं रखकर एक गिलास पानी लिया, उसमें पहले का रखा नींबू निचोड़ा और आँख बंद कर गले के भीतर कर लिया। उसे लगा अब सोना चाहिए। पर प्रयत्न करके भी वह सो न सका और यों ही सोचता रहा-

'वह क्यों है जब किसी का नहीं है।' यही पंक्ति बार-बार उसके दिमाग पर हथौड़े की तरह बजती और वह कराह उठता। उसने भूलने की कई बार चेष्टा की पर सब व्यर्थ। इसी कशमकश के बीच उसे नींद आ गई।  नींद में उसने देखा कि वह एक जंगल के बीचोबीच गुज़र रहा है। भयावह रात है। आकाश में घिर आए बादल रह-रहकर गरज रहे हैं। झाड़ियों से अजीब-अजीब आवाज़ें आ रही हैं। अचानक उसे प्रतीत हुआ, एक छाया उसके सामने खड़ी हो गई है और उसे बढ़ने से रोक रही है। वह बुरी तरह डर उठा। तब  वह लगभग सनकी-सा पूरी ताक़त के साथ पीछे की ओर दौड़ पड़ा... वह दौड़ता जा रहा था... पीछे मुड़-मुड़कर देखता मानो छाया उसका पीछा कर रही हो। वह दम लगाकर भागता रहा और एक सख़्त पत्थर से टकराकर गिर पड़ा। गिरते ही बेहोश हो गया। बहुत देर बाद जब होश आया तो उसने देखा कि एक औरत उसके पास बैठी उसके चेहरे पर आँचल से हवा कर रही है। उसके ज़ख़्मी पाँव पर पट्टी बँधी है और उसकी पीठ किसी मुलायम कपड़े का स्पर्श कर रही है।

उसने आँख खोलकर देखा। इस भयावने जंगल में यह औरत कौन है? क्याऽ? यह तो उसकी ब्याहता शारदा है! वह बार-बार आँखें खोलता है, बंद करता है, पर विश्वास नहीं होता। वह कुछ बड़बड़ाने लगता। सामने दुखी-थकी औरत बैठी है। वह धीरे से मुसकुरा उठती है। उसे लगता है जैसे ढाढ़स दे रही हो कि दुखी न हो, स्वस्थ हो जाओगे, एकदम भले-चंगे कि फिर मुझसे पहले की तरह घृणा कर सको... पहले की तरह ही। उसे इसी बीच ज़ोर से खाँसी आई। वह सीना दबाए उठ खड़ा हुआ, एकदम बेसुध और हताश।

बाहर आसमान साफ़ हो गया है पर बादल के टुकड़े यत्र-तत्र तैरते हुए दिखाई दे जाते हैं। सूरज धीरे-धीरे अपनी खोल से बाहर आता लगता है, बहुत लाल गर्म तवे की तरह, जिसमें सब कुछ को जल जाना है... बीत जाना है। कुछ नया शुरू होने वाला है। बीती रात का सफ़र पूरा हो चुका है। उसे लगता है कि उसने अपने को ढली रात की तरह ही बिताया है- उदास-खामोश अंधियारी क्रूरता के बीच। बालकनी से तकते-तकते सूरज का लाल गोला बड़ा होता चला गया और वह अपने में उसी अनुपात में बहुत छोटा, बहुत ठंडा!

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७ जुलाई २००८

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