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बचपन का दोस्त आया है तो जवानी के कुछ दोस्त भी इकट्ठा हुए थे। औऱ देर शाम दारू की महफ़िल ज़मीन पर ही जम गई थी। लड़के ज़्यादा और कुर्सियाँ कम थीं। बड़े गर्व से मैंने नई बोतल सुनील के हाथ में पकड़ाई तो उसने खुशी-खुशी उसको दोनों हाथों से समेटा था।
''अरे यार, वही ब्रांड... आज तो कोई अच्छी मँगाता। ये तो अंग्रेज़ी के नाम पर विदेशी ठर्रा है...'' एक मुँहफट दोस्त बोल पड़ा था।
''क्यों! अच्छा ब्रांड तो है। इससे किक जल्दी मिलती है।'' बोलते हुए सुनील ने बोतल का ढक्कन बड़ी सरीके से खोला था।
''खाने में क्या है...? अच्छा! आज तो नमकीन के साथ अंडे भी हैं... क्या बात है...'' एक बार फिर उसी दोस्त द्वारा बोल गया था। नौकरी के दोस्तों और बचपन की दोस्ती में यही फ़र्क होता है...। तभी तो प्याज़ के साथ खाने वाला, अंडा देखकर भी टोंट मार रहा है। और कहाँ सुनील फाइव स्टार होटल वाला होकर भी कुछ नहीं बोल रहा। पहली बार मुझे सुनील में अच्छाई दिखी थी। और मैंने भी उसकी बड़ाई कर दी थी। क्यों न करता, दोस्त की बड़ाई में खुद की भी तो बड़ाई है।
''अरे इसके लिए यह क्या है। फाइव स्टार में तो एक से एक नानवेज डिश मिलती है, क्यों सुनील?'' सुनकर स्थानीय दोस्तों ने उसे आश्चर्य से देखा मगर वो सिर्फ़ मुस्कुराया था। और उसने पैग बनाने के लिए बोतल को गिलास में डालना शुरू किया तो शराब उड़ेलने के अंदाज़ में विशेषता थी। साफ़ जाहिर हो रहा था कि उसे बार में काम करने का एक लंबा अनुभव है।
''क्या बात है... फाइव स्टार की तो बात ही कुछ और है।'' एक बार फिर उसी लंपट दोस्त ने छेड़ा था। सुनकर अबकी बार उसकी आँखों से लार टपक रही थी। ऐसा ही है। लालची कहीं का।
''ऐसी कोई बात नहीं यार...'' सुनील ने टरकाया था।
''ऐसे कैसे नहीं। एक से एक सुंदर लड़कियाँ देखी होंगी।'' दूसरे दोस्त ने भी हिस्सा लिया था।
''सब एक-सी होती हैं। कई होटलों में काम कर चुका हूँ।... इटालियन, रशियन, आयरिश, अफ्रीकन, अमेरिकन... तुम समझ लो कि कई देश की लड़कियों का अनुभव है।'' सुनील ने मानो सबकी नस पकड़ ली थी।
''अच्छा!!'' दोस्तों के लिए यह एक दिलचस्प और सबसे प्रिय विषय था। शराब भी कमाल की चीज़ है अंदर जाते ही शरीर में आग लगा देती है। फिर क्या, हर कोई पहलवान और फिर सबको चाहिए सपनों की राजकुमारी। औऱ उसकी ड्रेस को देखकर मुँह बनाने वाले अब उससे चिपकने लगे थे। एक की अभी पूरी चढ़ी भी नहीं ती कि उसने तो कह भी दिया, ''...हमसे साली एक तो पटती नहीं और तेरे से...''
''कहीं फेंक तो नहीं रहा...'' उसी लंपट ने ताना मारा तो मैंने अबकी बार उसे घूरा था।
''अब यहाँ पर आकर होटलों में कई-कई दिन अकेले रहती हैं तो किसी-किसी के साथ, कभी-कभी मौका मिल ही जाता है। फिर हमने कौन साथ-साथ ज़िंदगी बितानी है... ये तो समय की माँग है। और फिर उस सोसोयटी में ये सब गलत भी नहीं...''

गरमा-गरम बातों का असर था जो दूसरी रात दोस्तों ने शहर के छोटे से होटल में उसे पार्टी दी थी। उम्मीद थी कुछ और विस्तार में सुनाएगा। मगर वहाँ भी सुनील चैन से बैठ नहीं पाया था। बेयरे के हाथ से गिलास की ट्रे लेकर खुद ही पैग बनाने लगा। साथ ही वही उन्मुक्त हँसी... बचपन की तरह...। शुरू से उसका दिमाग चंचल था अत्यधिक होशियार। कुछ लोग सनकी भी कहते थे। मैं उससे अक्सर एक-दो नंबरों से बाज़ी मार लेता और वो क्लास में हमेशा दुसरे पायदान पर ही रह जाता था। मगर उसे इस बात का कभी मलाल न होता और परीक्षा से पहले किसी मैग्ज़ीन को पलटने में उसे कोई भी हिचकिचाहट नहीं होती थी। उसके चेहरे पर शांति रहती थी और मैं टेंश की कहीं मेरा फर्स्ट रेंक न छिन जाए। तो क्या हुआ, आख़िरकार मैं आगे रहता भी तो था। 'शीर्ष पर पहुँचने के लिए तपस्या करनी होती है', माँ की इस बात से मुझे फ़ख्र होता। वही आदत अभी-तक बनी हुई है। पहले इंजीनियरिंग की पढ़ाई की चिंता फिर नौकरी फिर अब एक छोकरी...। 'साला कहाँ मैं अब तक एक के लिए परेशान हूँ और कहाँ ये इतने मौज कर चुका है। उँह, ऐसी ही होगी बेकार, बाज़ारू, नहीं तो...।' और मैंने अपनी भावनाओं को सँभाला था। लेकिन देर रात घर वापस आया तो बिस्तर पर लेटते ही कई एक ने सपनों में आकर तंग करना शुरू कर दिया था। तभी उसकी आवाज़ बगल के बिस्तर से आई थी।

''अंकल-आंटी कैसे हैं?''
''ठीक हैं।'' मैंने दूसरी तरफ़ करवट लेते हुए जवाब दिया था। चूँकि ख़्वाबों से निकलना नहीं चाहता था।
''मुझे उनके हाथ के परांठे आज भी याद हैं...। और तूने शादी नहीं की?''
''हाँ,... माँ ने देख तो रखी है... बस मुझे ही छुट्टी नहीं मिल रहा।''
''छुट्टी! ये क्या बात हुई...! ऐसी नौकरी को तो लात मारते हैं यार...'' उसने भरपूर छेड़ने की कोशिश की थी। सुनकर मैं मुस्कुराया तो था मगर मन ही मन कहने लगा, 'ये नोकरी तो बड़ी मुश्किल से मिली है वो भी गई तो क्या खाऊँगा।'

उसे भोपाल आए तीन दिन बीत चुके थे। बस इतना पता चला था कि उसके मम्मी-पापा रिटायरमेंट के बाद पंजाब जा बसे हैं। और उसने और अधिक उनके बारे में बताने में कोई उत्सुकता नहीं दिखाई थी। हाँ, चौथे दिन जब उसने सुबह-सुबह अचानक तीन सौ रुपए की माँग कर डाली तो मैं सुनकर सन्न रह गया था।
''...यार दो सो पचहत्तर रुपए की गोवा की टिकट है और पच्चीस रुपए में वहाँ पहुँचकर कुछ मूँगफली खरीदूँगा।''
''...वो क्यों?''
''बस यार, गोवा में कुछ दिन रहने का मन है। इस बार खाने कमाने के लिए समुद्र किनारे मूँगफली बेचने की सोच है। आसान काम है। बाकी काम से मैं बोर हो चुका हूँ... देख ले, है तो दे दे, नहीं तो कोई बात नहीं।'' वह एक बार फिर एकदम सपाट था। और मैं, अपने आप से उलझ रहा था। महीने का आखिरी था। जेब में सौ-सौ के आखिरी तीन-चार नोट बचे थे। शायद इसमें मेरा बड़प्पन झलकता या पता नहीं क्या, और मैं यंत्रवत उसे पैसे देने लगा था। हाँ, इस बार थोड़ी चिंता ज़रूर ज्यादा हुई थी।

देर शाम वो निकल चुका था। बिना कुछ कहे। कोई थैंक्स नहीं। बस सीधा सरल। मिले तो ठीक न मिले तो ठीक। उसके जाते ही सोचा तो पहले पहल लगा कि पागल है। '...देख तो शरम भी नहीं आई पैसे माँगने में। वापस करने का ज़िक्र भी नहीं किया। पता नहीं कैसा है...।' रात बिस्तर पर लेटा तो करवट बदलते ही लगा कि कोई आज मुझे झकझोर रहा है। और मैं बँधा हुआ हूँ। अचानक लगा कि मैं सबसे स्वतंत्र होना चाहता हूँ। अगले पल बेचैनी बढ़ी थी कि कुछ ही देर में चिंताओं ने फिर आ घेरा था। सुबह दूध वाले को पैसे देने हैं। और किराने वाला...? हाँ, उसके भी बकाया हैं। साला, क्या ज़िंदगी है...। क्या मेरी इन बातों का कोई अंत है? पता नहीं। और एक वो है रोज़ मस्ती से इधर-उधर घूम रहा है। उसके पास कुछ नहीं, मगर उसे कोई परवाह नहीं। और मैं? दिनभर चिंता में। तो कहीं वो मुझसे बेहतर तो नहीं? शायद...। अचानक मन ने विद्रोह किया, और मैं तुरंत सुबह की पहली गाड़ी से घर जाने के लिए सामान बाँधने लगा था। बे टिकट।

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२३ फरवरी २००९

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