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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
मथुरा कलौनी की कहानी— बिलौरी की धूप


यह रेस्तराँ एक जीर्ण बिल्डिंग की दूसरी मंजिल पर है। नाम है सागर। खुली बाल्कनी में बैठने से नीचे की सड़क और सड़क के उस पार की गतिविधियों का नजारा लिया जा सकता है।

नीचे सड़क, सामने दो सिनेमा हाल और दो सिनेमा हालों के बीच एक बहुत बड़ा शापिंग सेन्टर, स्थानीय लोगों और सैलानियों की मिलीजुली भीड़। खोमचेवालों की चिल्लपों और लोगों का शोरगुल। सड़क पर छोटी-बड़ी गाडियों की घुरघुर तथा हाड़ कँपा देनेवाले हॉर्न।

परसों इसी शोर ने उसकी आवाज को भागीरथी तक नहीं पहँचने दिया था। उसने कितनी आवाजें दीं पर इस शोर में उसकी आवाज खो कर रह गई थी।

लेकिन आवाज पहुँच भी जाती तो क्या होता! वह अपना निर्णय थोड़े ही बदलती। इतना तो वह उसे जानता ही था। पर पता नहीं चंदर को ऐसा लग रहा था कि यदि वह यह जान पाती कि चंदर पीछे से आवाज दे रहा है तो अच्छा होता। अच्छा होता या न होता, कम से कम उसे तो अच्छा लगता। अब यह बात एकदम फिजूल लगती है कि कौन सही था और कौन गलत जब कि हमसफर ने अपना रास्ता ही बदल लिया हो।

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