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"यह वनमाला की आलमारी की चाभी है मैडम।" जगपाल ने आशा रानी के जाते ही अपनी जेब से एक गुच्छा निकाला,"वनमाला की चैकबुक घर में ढूंढे नहीं मिल रही है। आपकी मंज़ूरी हो, तो ज़रा उसकी आलमारी खोल देखूँ।"

अपने दफ्तर के साथ सटे एक लंबूतरे कमरे में मैंने अपने स्टाफ के लिए कुछ कुर्सियों व आलमारियों का अयोजन कर रखा है। सामान्यतः एक आलमारी तीन-चार अध्यापकों अथवा अध्यापिकाओं के लिए बंटी रहती है, पर चूँकि वनमाला के पास स्कूल-भर के मैप्स, चार्ट्स, डायग्रैम्स बनाने का जिम्मा रहा, इसलिए एक पृथक आलमारी की उसकी माँग मैंने सहर्ष मान रखी थी।

आलमारी की चाभी वनमाला अपने पास ही रखती रही थी और उसकी व्यवस्था से मुझे कोई आपत्ति अथवा असुविधा नहीं रही थी।

"आओ देखते हैं।" मैं जगपाल के साथ हो ली, "बैंक में कितनी रकम है?"

"हमें मालूम नहीं मैडम।" जगपाल ने कहा, "वनमाला में दुराव-छिपाव बहुत रहा। हमें सही तस्वीर वह कभी दिखलाती ही न थी। एक दिन कहती, सारे पैसे खर्च हो गए हैं और फिर अगले हि दिन बाज़ार से अपने लिए कोई कीमती चीज़ उठा लाती...।"

"अजीब बात है!" मैं हैरान हुई, "मैं तो अपने प्रोफेसर साहब से पूछे बिना एक पाई भी नहीं खर्च करती।"

"आपकी बात और है मैडम। मगर वनमाला के मन में अपनी कमाई को लेकर तगड़ा घमंड रहा, अपने रुपए-पैसे पर किसी दूसरे का कब्जा या दखल इससे बरदाश्त न होता।" जगपाल ने वनमाला की आलमारी मेरे सामने खोली।

"यह सब तो स्कूल का सामान है।" मुझे बैंक की चेक-बुक कहीं दिखाई न दी।
वनमाला की आलमारी ज़्यादा बड़ी न थी। उसमें केवल दो खाने थे। ऊपर वाले खाने में क्रेयोन चाक, रंगदार पेंसिलें, ज्यामितिक यंत्र व कागज रहे तथा निचले खाने में ड्राइंग की कुछ पुस्तकों के साथ बच्चों की ढेरों कापियाँ।

"एक मिनिट," जगपाल ने लपककर आलमारी की सभी चीज़ें छानी और बैंक की चेक-बुक ढूँढ निकाली।
"मैं आलमारी खुद बंद कर लूँगी," मैंने जगपाल को जाने का संकेत दिया, "तुम वेदकांत जी से वनमाला का बकाया बनवाओ।"

जगपाल के ओझल हो जाने के बाद भी मैंने वनमाला की आलमारी बंद न की।

आलमारी में रखी कापियों के एम्बार को उलटते-पलटते समय. अनजाने में, जगपाल ने मेरे दृष्टि-क्षेत्र के आगे कुछ ऐसी आकृतियाँ उद्घाटित की थीं, जिनका अविलंब निरीक्षण मुझे अनिवार्य लगा।
कुर्सी खींच कर मैं आलमारी के साथ चिपक ली।

वनमाला ने हाथ की दक्षता से अपरिचित तो मैं कभी न थी, किन्तु उसकी अंतर्दृष्टि व हस्त-लाघव की गहरी पहुँच पर उस दिन पहली बार प्रकट हुई।

एक ओर जहाँ अपने फूल-पत्तों को, पेड़ पौधों को, पशु-पक्षियों को, मार्ग-भावनों को, स्त्री-पुरुषों को व बच्चे-बूढ़ों को अनिंद्य समरूपता व सजीवता प्रदान की थी, वहीं दूसरी ओर उसने अपने कई परिचितों के अस्वीकार्य व अपरिवर्तनीय दोषों के साथ विषम प्रयोग व आक्रामक खिलवाड़ किए थे।

प्रतिशोध भावना के अधीन उसके बने विभिन्न व विरुपित कई चेहरों का कूट खोलना मेरे लिए सुगम रहा, कठिन रहा उन देह मुक्त रेखाचित्रों को निगलना जिनमें उसने मुझे और मेरे पति को अपने उपहास का केंद्र बनाया था।

मेरे चित्रों में वनमाला ने ऊपर निकले हुए मेरे चार साल पहले वाले दाँतों तथा नानाविघ चश्मों पर बल दिया था तो मेरे पति के चित्रों में उसने उनकी नेकटाइयों की परतों तथा चेहतों की तहों का आरेखन सुस्पष्ट रखने के साथ-साथ उनके सिर के बाल व नाक-नक्श नदारद कर दिए थे।
ग्यारह बर्ष पहले इस शहर में हुए अपने स्थानांतरण से भी दो-तीन वर्ष पहले मेरे पति कालपूर्व मिले अपने गंजेपन को गुप्त रखने के लिए प्रामाणिक बालों की टोपी बनवा चुके थे तथा मुझे छोडकर इस पूरे शहर में किसी को भी उसकी जानकारी न रही थी।
उन चित्रों में वनमाला ने यदि वे नेकटाइयाँ नहीं रखी होतीं तो मैं भी उन्हें अपने पति की बजाए किसी अन्य व्यक्ति के ही चित्र मानती।

नेकटाई का मेरे पति को सनक की सीमा तक शौक है। नेकटाई को वे एक कालेज प्रवक्ता के परिधान का अभिन्न अंग मानते हैं। सख्त गर्मी के दिनों में जब उनके प्रिंसिपल तक बुशर्ट पहना करते हैं, मेरे पति पूरी बाहों की कमीज़ के साथ नेकटाई लगा कर ही अपने कालेज जाते हैं। मैं हंसती हूँ, तो कहते हैं, "नेकटाई से विद्यार्थियों पर असर ही दूसरा पड़ता है-उन पर हावी रहने के लिए तथा उन्हें उचित दूरी पर रखने के लिए इस छोटे शहर में नेकटाई और भी अधिक अच्छा काम देती है..."

यह संयोग ही था जो उस समय मेरे सभी अध्यापक व अध्यापिकाएँ अपने-अपने काम में रहे और वनमाला के उद्वेजक रेखाचित्र उनकी बारीकी बीनी से बच गए।

सिर झुका कर मैंने भगवान का आभार माना और फुरती के साथ उन्हें आलमारी में पुनः बंद कर दिया।

वनमाला के मामले में मुझ पर भगवान की अनुकंपा शुरू से रही। पाँच वर्ष पहले, अपने पिता के देहांत के बाद वनमाला जब मेरे घर पर आश्रय लेने आयी थी तो, संयोगवश, उस समय मेरे पति अनुपस्थित थे।

"वनमाला को मैं पढ़ा चुका हूँ," उन दिनों मेरे पति बार-बार वनमाला की प्रशंसा के पुल बाँधा करते, "मैं जानता हूँ उसकी बुद्धि कुशाग्र है। उसका पिता तो उसे दूर तक पढ़ाने की आकांक्षा भी रखता था। बेचारा गरीब था, अनपढ़ रंगसाज था, मगर अपनी बेटी की असामान्य प्रतिभा की उसे खूब खबर व समझ थी। आज अगर कहीं वह ज़िंदा होता..."
"तो वनमाला ज़रूर कहीं कलक्टर बन रही होती," ठी-ठी-ठी, अपनी हंसी छोड़कर हर बार मैं पति की बात हवा में फेंक देती।

"मुझे अपने घर पर नौकरानी रख लीजिए, मैडम," वनमाला मेरे घर पर गिड़गिड़ायी थी, "मेरी जिम्मेदारी से बचने के लिए मेरे रिश्तेदार मुझे एक कारखाने के फिटर से ब्याह रहे हैं। मेरे पिता ने तो मेरे एकांत की खातिर अपनी दूसरी शादी नहीं की, मैं एक साथ इतने सारे लोगों की कुमारवा और काँय-काँय कैसे सहूँगी?...बस डेढ़ एक साल की बात है मैडम। इधर मेरी बी.एससी. खत्म होगी तो उघर मैं अपने रहने का दूसरा आयोजन कर लूँगी..."

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