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"विवाह भी तो एक आयोजन है," उन्नीस वर्षीया, आकर्षक वनमाला की मेरे घर में दखलदारी मेरे सदाबहार व दिल-फेंक पति की वजह से मेरी वैवाहिक प्रतिष्ठा को संकट में डाल सकती थी तथा मैंने अपनी पूर्व दृष्टि व अंतःप्रज्ञा को अपने उदात्त व सौहार्दपूर्ण स्वभाव पर अभिभावी हो लेने दिया, "आयोजन में आदर्श नहीं ढूँढे जाते। तुम्हारे रिश्तेदार वास्तव में तुम्हारी भलाई चाहते हैं। उन्होंने तुमसे ज़्यादा ज़िंदगी काटी है। वे जानते हैं अंततोगत्वा एक अनाथ लड़की को संपूर्ण सुरक्षा केवल विवाह की छतगीरी ही दे सकती है...और फिर तुम घबराओ नहीं, विवाह का पसार ज़िंदगी से बड़ा नहीं होता...तुम अपनी जिंदगी अपनी मूठ में रखना...इस पर किसी का दावा या कर्जा स्वीकार न करना।

वनमाला की पंद्रह देनों की तनख्वाह बनाई है। सोलह को इतवार था और इतवार वाले दिन ही तो वह बेचारी मरी थी," वेदकांत ने अपना रजिस्टर मेरे दफ़्तर की मेज पर मेरे सम्मुख टिका दिया।
"ठीक है," मैंने रजिस्टर पर अपनी स्वीकृति दर्ज की, "आप यह रकम जगपाल को यहीं ला दीजिए।"
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वनमाला की अलमारी से एक चिट्ठी मिली है," वेदकांत पीछे पीछे चला आया जगपाल मेरे दफ़्तर के एक कोने में रखे स्टूल पर बैठ लिया था।
जगपाल का पक्ष जानने की मेरे अंदर तीव्र जिज्ञासा थी।
"कैसी चिट्ठी?" जगपाल के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं।
"वनमाला ने लिखा है तुम उसे माल डालना चाहते हो।"
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इधर जब से कारखाने में छँटनी हुई मैडम हम बहुत परेशान चल रहे थे। दिन भर घर में बेकार बैठे रहते थे। हो सकता है कभी गुस्से में आकर ऐसा कुछ बोल दिया हो..."
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वनमाला ने यह भी लिखा है कि तुम्हारी माँ उसके बाँझपन के लिए दिन रात ताने देती नहीं अघातीं।" मैंने दूसरी गप गढ़ी।
दूसरी गप मेरे निजी अनुभव पर आधारित थी। अपनी इक्कीस वर्षीया शादी के पहले पाँच वर्ष मैंने घोर यातना एवं प्रताड़ना के संग काटे थे। उन प्रारंभिक वर्षों में बाँझपन के परीक्षण एवं उपड़े आ गई।"

"वह पागल थी और तुम अहमक हो," मैं आगबबूला हो उठी, "उसकी बेहूदा हरकतों को क्या तुम सिर्फ इलिए बर्दाश्त करते रहे क्योंकि उसकी पढ़ाई व कमाई तुमसे ज्यादा थी? औरत होकर उसने तुमसे अपना हात दस बित्ते ऊँचा रखा और तुम मर्द बनकर तुमने उसे रास्ते पर लाने की एक कोशिश न की..."

"कोशिश में ही तो ज्यादती हो गई, मैडम।"

"कैसी ज्यादती?" अपना गुस्सा थूक कर मैंने दया-भाव ओढ़ लिया।

"बात बहुत मामूली रही, मैडम। दोपहर की नींद से इतवार को हम जागे तो हमें पानी पीने की इच्छा हुई। वनमाला उस टेम भी हमेशा की तरह अपने डराइंग बोरड से चिपकी बैठी थी। हमनें तीन बार उसे पानी लाने को बोला। मगर वह हिली नहीं। अपने हाथ परकार से बराबर अपने घेरे बनाती रही। गुस्से के घुमेटे में हमने परकार उसके हाथ से छीन ली..."

"और उसकी नोक वनमाला की गर्दन चुभोकर उसके प्राण हर लिए," एक भयंकर सिहरन मेरी समूची देह में झकझोर गई।

"नहीं, मैडम, नहीं। उसने अपने प्राण खुद लिए। अपने बक्से से कोई अला-बला चीज़ खाकर जो उसने कै की तो फिर उस कै के साथ ही चल बसी..."

"तुम उसे अस्पताल ले जाते, घर में डॉक्टर बुला लेते..."

"नहीं, मैडम। वहीं हम चूक गए। उस समय हम बहुत गुस्से में रहे, सो उसकी दिशा में हमने अपनी नज़र ही न घुमायी..."

"तुम्हारे घरवालों ने भी उसकी खबर न ली? उसकी फिक्र न की?"

"हम सब उससे बहुत चिढ़ते थे, मैडम। हमारी ही छत के नीचे रहती थी और हमीं से अपनी रूह परे रखती थी...घर का सेरे काम माँ और बहनें निबटातीं, बाज़ार से सौदा-सुलफ हम मर्द लाते- फिर भी वह हर वक्त खिंची-खिंची रहती, न किसी के साथ कभी हँसती-गाती, न तबियत से बैठती-बतियाती। कभी एक बात पर झल्लाती तो कभी दूसरी पर। हर बात की उसे तकलीफ रहतीः "यह चारपाई बहुत छोटी है यहाँ करवट लेते नहीं बनता," "यह खिड़की गलत जगह पर लगी है, बंद रखो तो दम घुटता है, खुली रखो तो लोग ताकःझाँक करते हैं","यह दीवार बहुत पतली है, उस पार सब सुनाई देता है", "यह दरवाज़ा बहुत तंग है..."

"लो गिन लो," वेदकांत ने कुछ रूपए जगपाल की ओर बढ़ाए।

"वेदकांत जी," अपने स्वर में मैंने अपनी सत्ता उँड़ेल दी, "बुखार की वजह से मैं यहाँ बैठ नहीं पा रही। मैं घर जाऊँगी।"

"जी हाँ," स्कूल के सभी अध्यापकों की भाँति वेदकांत भी मुझसे अभित्रस्त रहते, "आप बेफिक्र होकर जाइए। छुट्टी होने पर मैं सभी क्लास रूम्ज़ में ताले भी अपनी निगरानी में लगवा दूँगा। चाभियाँ भी खुद देने चला आऊँगा।"

"धन्यवाद," मैंने कहा और अपने दफ्तर से बाहर निकल ली।
"जो कुछ आपसे कहा, मैडम,"जगपाल मेरे पीछा दौड़ा आया, "उसे अपने तक ही रखियेगा। अपने प्रोफेसर साहब से कुछ मत कहिएगा। वह वनमाला की बुराई बरदासत न कर पाएँगे।"
"क्यों?" मेरी साँसे फिर अनियमित हो चली।" वनमाला की जगह पर कॉलेज में हम अपनी नौकरी पक्की करवा रहे हैं, मैडम। आपके प्रोफेसर साहब वहाँ डिपार्टमेंट के हैड हैं। वनमाला की खातिर हमारा लिहाज रखेंगे।"

" वनमाला की खातिर?"

"हम पूरी बात तो नहीं जानते, मैडम," जगपाल ने दाँत निकाले, "मगर कालेज के लोग बताते हैं कि प्रोफेसर साहब वनमाला को बहुत पूछते थे..."

"हम लोग बड़े शहर के हैं," मर्यादा बनाए रखना मुझे बहुत ज़रूरी लगता है, "लड़के-लड़की में भेद नहीं मानते तुम क्या नहीं जानते उम्र में प्रोफेसर साहब वनमाला के पिता से भी बड़े हैं?"

"हाँ, मैडम," जगपाल ने अभिवादन में अपने हाथ जोड़े, "आप दोनों ही हमारे माई-बाप हैं। आप हमारा ख्याल रखियेगा।"

"ठीक है," मैं अकस्मात ही मुस्करा दी, "प्रोफेसर साहब को कुछ नहीं बताऊँगी। वैसे भी वनमाला की कहानी वनमाला के साथ खत्म हो गई है।"

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१० मई २०१०

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