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''ताऊ जी यहाँ तो पहले से किसी कब्जा है।``
जोगिंद्र की बात सुन बिहारी ने साथ आए सरकारी अफसर को कहा, ''बाबू जी हमें कब्जा दिलवा दो।``
''हमने आपको मरब्बा दिखा दिया बस, अब खुद इन जाटों से बात कर लो। इनसे कब्जे छु़डाने की काफी कोशिश हम कर चुके हैं। बेहतर होगा कि तुम इन्हें अपने खेत ठेके पर दे दो। यह सलाह देते हुए सरकारी अफसर वहाँ से चलता बना।``
बिहारी ने कोठे के बाहर से डरते हुए आवाज लगाई तो लंबा-तगड़ा आदमी बाहर निकला, क्या है भई।
''जी, यह मरब्बा मुझे सरकार ने दिया है मेरा नाम बिहारी है। हिमाचल से आया हूँ।``
''आओ जी, बैठो मेरा नाम कर्म सिंह है। अरी धन्नो ठंडा पानी तो ला।``
''आप कब से यहाँ पर फसल उगा रहे हैं।``
''कई साल हो गए जी। अब आपके नाम यह जमीन हो तो गई है। लेकिन आप तो हिमाचल ही रहेंगे और जमीन ठेके पर देंगे। हमसे ही ठेका कर लो।``
कर्म सिंह की बातें सुनकर बिहारी डर गया।
''ठीक है जी आप ही जोतो इन खेतों को एक साल में दोनों फसलों का कितना हिस्सा दोगे।``
''आधी फसल तुम्हारी आधी हमारी साल बाद आकर हिसाब ले लिया करो या फिर हम पैसा भेज दिया करेंगे।``
''ठीक है कर्म सिंह जी, इस फसल का हिस्सा तो आप आज ही दे दो।``
''बिहारी जी, क्या बात करते हो। तुम्हें जमीन आज मिली है और यह फसल मैंने पहले भी बोई है। हिस्सा तो अब अगली फसल का मिलेगा।``
कर्म सिंह इस बार गुस्से में बोला, '' तो बिहारी ठीक है,`` कहकर वहाँ से निकल गया। लंगड़े हलवाई के मरब्बे का भी यही हाल था सो जोगिंद्र ने भी फसल का ठेका दे दिया।

साल बीत गया लेकिन न तो बिहारी को उसकी फसल का हिस्सा मिला और न ही लंगड़े हलवाई को। अनूपगढ़ से चिट्ठी आई। जिसमें जाटों ने लिखा था कि मौसम की खराबी से फसल नष्ट हो गई सो अगली फसल कटते ही हिस्सा भेज देंगे। चिट्ठी पढ़ते ही बिहारी का चेहरा फक पड़ गया। संतु लाला को पैसे लौटाने के लिए उसे यही एक उम्मीद थी। उसने एक घोड़ा लिया और उसे बाजार जाकर बेच आया। जो पैसे मिले उसे संतु लाला को दे आया। लंगड़े हलवाई ने मरब्बे को बेचने का मन बना लिया। जो दुकान उसने किराए पर ली थी वह बिक रही थी, लेकिन दाम बहुत ज्यादा थे। इसलिए लंगड़ा हलवाई मरब्बा बेचना चाहता था। वह अपने बेटे के साथ अनूपगढ़ पहुँच गया। वहाँ कई दिन रहने के बाद भी उसे मरब्बे का कोई खरीददार नहीं मिला। क्यों कि जाटों से कब्जे छु़डाना किसी के बस में नहीं था। इसलिए कोई ऐसा सौदा करना नहीं चाहता था। आखिर जाटों से फसल का हिस्सा लेकर वह लौट आए। जाटों ने फसल का हिस्सा बहुत कम दिया था। लंगड़ा हलवाई मायूस होकर सरकार को कोसने लगा। उसने दुकान खरीदने के लिए पेशगी दे दी थी और कुछ दिन में बाकी पैसा देने का इकरारनामा लिखा था। अब पैसा न देने पर उसकी पेशगी की रकम तो डूबेगी ही और साथ ही दुकान का मालिक उसे किसी और को बेच देगा।

फसल के आधे हिस्से के रुपये में पाँच सौ रुपए पाकर बिहारी पंडित का चेहरा गुस्से से तमतमा गया।
''तुझे उनसे पूरे पैसे वसूलने चाहिए थे। पता है एक फसल दस हजार रुपए से कम नहीं जाती।``
''बिहारी उन जाटों से ज़ैन मुँह लगाए। सुना है अपना रसमसिंह उनसे भिड़ गया और आज तक उसका कुछ पता नहीं है।``
''ऐसी की तैसी उनकी, अगली फसल का हिस्सा लेने में खुद जाऊँगा।`` यह कहता हुआ बिहारी पैर पटकता हुआ वहाँ से निकल गया।

जिस मरब्बे को लेकर इन दोनों ने सुनहरे भविष्य की सोची थी वह अब इनके लिए कभी हकीकत में न बदलने वाले सपन बन गए थे। लंगड़े हलवाई को नए मालिक ने दुकान से बाहर कर दिया था। वह शहर जाकर मिठाई की बड़ी दुकानों पर दिहाड़ी पर मिठाईयाँ बनाने लगा था। उसका बड़ा बेटा जोगिंद्र शादी-त्यौहारों में खाना बनाने का काम करने लगा। उधर संतु लाला ने तकाजा शुरू कर दिया। जिससे बिहारी परेशान रहने लगा। ठाकुरां दा बेहड़ा में इन दोनों परिवारों की रसोई दिन भर चलती थी। हर आने जाने वाले को यह खाना खिलाकर भेजते थे। लेकिन यहाँ रूखी-सूखी रोटी उनकी किस्मत बन गई। पुराने मकानों के स्लेट टूट गए थे और लकड़ी को दीमक आ रही थी। मगर मरम्मत के लिए बिहारी व लंगड़े हलवाई के पास पैसे नहीं थे। बिहारी ने अपनी पत्नी बिशंभरी के सोने के बड़े कंगन प्यारू सुनियारे को बेचे और कुछ पैसे संतु लाला को देकर उसका मुँह बंद किया। कुछ पैसे उसने अनूपगढ़ जाने के लिए बचाकर रख लिए।

फसल कट गई थी। इसलिए बिहारी अनूपगढ़ रवाना हो गया। ट्रेन में बैठा वह सोच रहा था कि इस बार सीधे बात करूँगा कर्म सिंह कर्म सिंह जाट से। ट्रेन ब्यास से गुजरी तो बिहारी खिड़की से अपना गाँव देखने लगा। वहाँ उसके गाँव का कोई नामोनिशां नहीं था। पानी ही पानी था हाँ ऊंचे पहाड़ अपनी भी अपनी मौजूदगी की हाजिरी दे रहे थे। ट्रेन थोड़ी आगे पहुँची तो किनारे पार बड़ी-बड़ी इमारतें बनी हुई थीं जो प्रौजेक्ट कंपनी की थी। तीन-चार साल में ही सारा नक्शा बदल गया था। पंजाब व और राज्यों के लोग डैम पर काम करते थे। प्रौजेक्ट क्षेत्र अब निकल गया था और भरमाड़ रेलवे स्टेशन आ गया था। ठाकुरां दा बेहड़ा गाँव के लोगों को रेल पकड़ने के लिए इसी स्टेशन पर आना पड़ता था। यहाँ पठानकोट से आने वाली रेल क्रॉस होती थी। सो गाड़ी यहाँ पर पाँच मिनट रुकती थी। बिहारी स्टेशन पर उतर गया। उसने नल से पानी पिया और घूमने लगा। अचानक उसे अपने गाँव के जयलाल दिखाई दिया। ठाकुरां दे बेहड़ा में खेतीबाड़ी में जी-तोड़ मेहनत कर जयलाल अच्छी कमाई कर लेता था। मगर यह क्या? वही जयलाल आज स्टेशन पर हाथ में टोकरी लिए फल बेच रहा था। बिहारी को झटका लगा।

''जयलाल, यार तूं यहाँ कैसे। तूं तो कहता था कि राजस्थान जाकर मरब्बा संभालेगा और वहीं अपनी खेतीबाड़ी जमाएगा।``
''जयराम जी की पंडित जी, आज आपको सामने देखकर दिल खुश हो गया। अब तो अपने गाँव का कोई-कोई ही मिलता है। सब लोग दूर-दूर बस गए हैं। मेरी हालत तो आपने देख ही ली है। मरब्बा तो मेरे जीवन में कहर बरपा गया।``
''आप अपनी सुनाईये घर में सब ठीक हैं बच्चे तो काम-धंधे पर लग गए होंगे।``
जयलाल, अपनी मिट्टी से जुदा होने के बाद जिंदगी बोझ सी लगने लगी है। बच्चों की पढ़ाई बीच में ही छु़डाकर उन्हे खराद का काम सीखने के लिए लुधियाना भेज दिया। रानी की शादी कर दी बस। तूं सुना यार तूने इस बीच क्या किया?
''आपसे क्या छुपाना पंडित जी, मैं परिवार के साथ सरकार से मिले पैसे व सारा सामान समेट कर अनूपगढ़ चला गया।``

वहाँ मेरे मरब्बे पर जाटों का कब्जा था। सरकार व पुलिस के कई चक्कर काटे लेकिन जाटों ने मरब्बे से कब्जा नहीं हटाया। हम किराये के मकान में रहे। आखिर एक बिचौलीये की मदद से कुछ रुपया जाटों को दिया फिर उन्होने मरब्बा छोड़ा। मिट्टी का कोठा बनाकर मैं वहाँ रहने लगा। खेत पर काम करते हुए लाजो को गर्मी की तेज लू लग गई। आठ-दस दिन में वह मर गई। जो पैसे प्रौजेक्ट वालों ने दिए थे वह अब खत्म हो गए थे। मुँगफली की फसल को खरीदने के लिए कोई ग्राहक हमें नहीं मिल रहा था। क्यों कि हम वहाँ नए थे और सब आढ़ती जाटों के साथ थे। बेटे मदन ने एक आढ़ती के साथ घाटे में ही सौदा किया मगर जाटों ने झगड़ा कर दिया। मेरे मदन को उन्होने मार डाला। पुलिस ने रपट तक दर्ज नहीं की। बेटी कृष्णा को जाटों के बेटे छे़डने लगे। मैं डर गया और रातोंरात सब कुछ वहीं छोड़कर वापिस आ गया। आकर गाँव गया तो वहाँ मेरा आधा घर पानी में समा चुका था। कुछ दिन रिश्तेदारों के यहाँ गुजारे। अब यहीं स्टेशन के पास किराये के एक कमरे में रहता हूँ। सारा दिन स्टेशन पर फल वगैरह बेच लेता हूँ। कुलीगिरी भी कर लेता हूँ। जयलाल की आँखों से आँसू छलकने लगे जिन्हे देख बिहारी पंडित भी रो पड़ा।

गार्ड ने सीटी बजा दी थी और रेल का हार्न भी गूंजने लगा सो बिहारी वापिसी में फिर मिलने की बात कर गाड़ी में बैठ गया।

अनूपगढ़ में पहुँचते ही बिहारी सीधा कर्म सिंह जाट के पास पहुँच गया। पहले तो दोनों में फसल के हिस्से को लेकर काफी बहस हुई फिर बिहारी ने साफ कह दिया कि वह मरब्बा बेच रहा है तुझे लेना है तो कल दो लाख रुपये लेकर सराय में आ जाना। कर्म सिंह का गुस्सा सांतवे आसमान पर पहुँच गया। वह रात को ही अपने बेटों के साथ सराय में पहुँच गया और बूढे बिहारी पंडित की बेदर्दी से पिटाई कर दी। बिहारी बेहोश हो गया। सुबह सराय वालों ने हकीम जी को बुलाया और उसे दवा दिलवाई। सराय के मैनेजर ने बिहारी को समझाया कि जाटों से उलझना ठीक नहीं है, बेहतर होगा तुम घर लौट जाओ। हकीम जी के ईलाज से भी वह ठीक नहीं हो सका। वह चलने-फिरने में भी लाचार हो गया। सो मैनेजर ने उसके बड़े बेटे रविंद्र को लुधियाना में तार भेज दिया। रविंद्र ने सारी बात सुनी और बाप को साथ गाँव ले गया। भरमाड़ रेलवे स्टेशन पर उनकी गाड़ी दोपहर को पहुँची बिहारी की आँख लगी हुई थी। जयलाल केले,ले लो कहता डिब्बे में चढ़ गया। वह केले बेचने लगा। उसकी नजर बिहारी पर पड़ी।
'' पंडित जी आ गए क्या हुआ।``
''हाँ, जयलाल। ``

''क्या हुआ पंडित की तबीयत तो ठीक है?``
''मरब्बे ने मेरी भी आधी जान ले ली है।`` बिहारी का चेहरा पीला पड़ गया था और आँखे सफेद। बिहारी ने अनूपगढ़ में घटी सारी घटना जयलाल को सुनाई। रविंद्र बाहर पानी लेने गया था वह भी सीट पर बैठ गया। गाड़ी चलने लगी सो जयलाल तेजी से उतर गया। गाँव पहुँचने के बाद बिहारी बिस्तर से लग गया। उसने अपने तीनों बेटों को अनूपग़ढ़ के मरब्बे को भूल जाने की सलाह दी पूरा एक साल बिस्तर पर रहने के बाद वह मर गया। संतु लाला का कर्ज़ मुरने की तरह खड़ा रहा।

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१४ जून २०१०

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