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पिताजी को हिला-डुलाकर बात करने की मेरी कोशिशें बेकार रही थीं। सारा दिन मैं उनके पास बैठा रहा था। बैठे-बैठे कभी लगता, अभी पिताजी करवट लेंगे... कभी लगता, अभी उनके होंठ हिलेंगे... कभी लगता, वे गर्दन हिलाने की कोशिश कर रहे हैं... पर, ऐसा मुझे लगता था, होता कुछ नहीं था।

पूरे घर में सन्नाटे की एक चादर तनी थी। एक दुश्चिन्ता और चुप्पी की गिरफ्त में हम सब बुरी तरह जकड़े हुए थे। हम लोग आपस में बातें भी करते थे, तो लगता था, फुसफुसा रहे हों।... गले से आवाज खुलकर निकल ही नहीं पा रही थी। छोटी बहन पिंकी और छोटा भाई विक्की कल से ही मुझसे बहुत कम बोले थे। उनके चेहरे पर चुप्पियाँ चस्पां थीं। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि विक्की जैसा शरारती बालक इतना शान्त और खामोश कैसे रह सकता है ! उसे तो उठते-बैठते, खाते-पीते बस शरारत ही सूझती थी।

हम चुप थे। हमारा एक-एक पल भय और घबराहट में बीत रहा था।
घड़ी ने शाम के छह बजाए तो मैं पिताजी के पास से उठकर दूसरे कमरे में आ गया। विक्की कोई किताब खोले पढ़ रहा था चुपचाप। पिंकी किसी पुराने कपड़े पर कढ़ाई कर रही थी।

बाहर, गली में बच्चे खेल रहे थे। हल्का-हल्का शोर खुली खिड़की से कूदकर अन्दर आ रहा था। शायद आइस-पाइस या छुपा-छुपी का खेल था। कभी-कभी कोई बच्चा हमारे घर से लगे जीने के नीचे छुप जाता था। दूसरा बच्चा उसे ढूँढ़ते हुए जब वहाँ पहुँचता तो शोर तेज हो उठता और हमारे घर में सन्नाटे की तनी हुई चादर हिलने लगती।

एक-दो बार अम्मा बाहर निकलकर शोर न करने का इशारा कर आई थीं लेकिन बच्चे तो आखिर बच्चे थे। थोड़ी देर बाद ही उनका शोर फिर सुनाई दे जाता। इस बार अम्मा ने झल्लाकर उन्हें डपट दिया था, ''तुमसे कहा न, यहाँ शोर न करो... जाओ, दूर जाकर खेलो...। अब इधर आए तो...।'' और उन्होंने खुली हुई खिड़की बन्द कर दी थी।

अम्मा की डाँट सुनकर बच्चे चुपचाप खिसक गए थे। अब, घर के बाहर और भीतर दोनों तरफ एक चुप्पी ही चुप्पी थी।
मेरी पीठ में अब दर्द होना आरंभ हो गया था और मुझे नींद भी आ रही थी। एक रात और एक दिन बैठे-बैठे गुजारना... और उससे भी पहले एक दिन का रेल का सफ़र ! मुझे यूँ अधलेटा-सा देखकर अम्मा बोली, ''थक गया होगा तू भी... थोड़ी देर लेट जा, कमर सीधी हो जाएगी।'' अम्मा बहुत पास से बोल रही थीं लेकिन उनकी आवाज मुझे बहुत दूर से आती लग रही थी। थकी-थकी-सी। मैंने अम्मा की बात का कोई जवाब नहीं दिया। बस, दोनों हथेलियों में अपना मुँह ढककर मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगा था।

तभी, अम्मा ने पूछा था, ''चाय पिएगा ? बनाऊँ ?''
''नहीं, इच्छा नहीं है।'' मैं कहना चाहता था लेकिन कह नहीं पाया। होंठ हिले ही नहीं, जड़-से हो गए थे जैसे। बस, क्षणांश मैंने अम्मा की ओर नज़रें उठाकर देखा था। अपनी ओर मेरे देखे जाने को मेरी सहमति समझकर वह चाय बनाने रसोई में चली गई थीं।

अब धीरे-धीरे मेरे अन्दर कुछ खोल रहा था। धैर्य चुक रहा था और बेचैनी बढ़ने लगी थी। मुझे गुस्सा भी आ रहा था। अपने पर नहीं, किशन और राज भैया पर। अभी तक ये लोग नहीं आए ?... क्या उन्हें तार नहीं मिला ?... इस छोटे-से कस्बे में कोई अस्पताल तक नहीं है। बस, जगह-जगह कुकुरमुत्तों की तरह उगे हुए नर्सिंग होम थे। जहाँ डाक्टर स्वयं चाहते हैं कि उनका मरीज जल्द ठीक न हो। उनके लिए डाक्टरी एक पेशा है, धंधा है। पैसा कमाने का धंधा ! बस, यहाँ से साठ मील दूर एक सरकारी अस्पताल है। दोनों बड़े भाई आ जाते तो पिताजी को वहीं ले जाते। पर, मैं अकेला... उन्हें ऐसी हालत में ?... सोचते ही मेरे तो पसीने छूटने लगते हैं।

अम्मा चाय ले आई थीं। चाय का प्याला लेते हुए मैं स्वयं पर नियंत्रण न रख सका। मैंने पूछा, ''किशन और राज भैया को भी तो तार मिल चुका होगा। आए क्यों नहीं अब तक ?'' मेरी आवाज में तल्खी थी और उसमें खीझ और गुस्से का रंग मिला हुआ था।

''जाने क्या बात है? कोई बात होगी।... तार पाकर रुकने वाले तो नहीं हैं।.. आते ही होंगे।'' अम्मा पास बैठकर आहिस्ता-आहिस्ता बोल रही थीं, ''आजकल घर गृहस्थी छोड़कर एकदम निकलना भी तो नहीं होता।''

अम्मा की इस बात से मैं भीतर तक कुढ़ गया था। हुँह... निकलना नहीं होता या निकलना नहीं चाहते। क्या घर-गृहस्थी उन्हीं की है, मेरी नहीं। सोनू के कल से पेपर शुरू हैं। निक्की और सुधा भी पिछले हफ्ते से ठीक नहीं हैं। फिर भी, मैं तार पाते ही दौड़ा चला आया। मेरे भीतर एक घमासान मचा था, लेकिन मैं इस घमासान को शब्द नहीं दे पा रहा था। अम्मा मेरे सामने बैठी कुछ सोच रही थीं और मैं भीतर ही भीतर भुन रहा था।

दरवाजे पर दस्तक हुई तो मैं ठीक से होकर बैठ गया। पिंकी ने उठकर दरवाजा खोला। किशन और राज भैया में से कोई नहीं था। पड़ोस वाली रमा आंटी थी। दिन में भी पड़ोस से इक्का-दुक्का लोग पिताजी का हाल पता करने आ चुके थे और अपनी-अपनी सलाह देकर चले गए थे। रमा आंटी ने कमरे में घुसते ही अम्मा को सम्बोधित करते हुए पूछा, ''बहन जी, अब कैसी तबीयत है भाई साहब की ?''

''उसी तरह बेहोश पड़े हैं।... आज तो हिल-डुल भी नहीं रहे। बस, रब ही मालिक है।'' कहते-कहते अम्मा की हिचकियाँ उभर आईं।

''धीरज रखो बहन, कुछ नहीं होगा। सब ठीक हो जाएगा।... ऊपर वाले पर भरोसा रखो।'' रमा आंटी अम्मा का कंधा थपथपा कर उन्हें धीरज बँधाने लगीं, ''अब तो ब्रज भी आ गया है। किशन और राज भी आते ही होंगे। सब सम्हाल लेंगे। दिल थोड़ा न करो। हिम्मत रखो।''

कुछ देर असंवाद की स्थिति रही। अम्मा फर्श की ओर टकटकी लगाए देखती रहीं और मैं हथेलियाँ बगल में दबाए अपने को बेहद संजीदा दर्शाने की कोशिश करता रहा। रमा आंटी लगता था, अगली बात के लिए शब्द ढूँढ़ रही थीं। एकाएक, दीवार घड़ी की ओर देखते हुए बोलीं, ''आप लोगों ने खाना-वाना खाया कि नहीं... चलो, मैं बनाती हूँ। कब तक भूखे रहेंगे आप।... भाई साहब बीमार ही तो हैं। ठीक हो जाएँगे।... ऐसे कोई खाना-पीना छोड़ देता है। आ बेटा ब्रज, मेरे यहाँ कुछ खा ले।''

मेरे जवाब की प्रतीक्षा न करते हुए वह विक्की और पिंकी की ओर मुखातिब होकर बोलीं, ''चलो, तुम दोनों भी खा-पी लो।''
विक्की-पिंकी ने एकबारगी रमा आंटी की ओर देखा, फिर मेरी और अम्मा की ओर। हमारी ओर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर वे चुपचाप अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गए।

''अच्छा, मैं यहीं भिजवा देती हूँ।'' हमारी चुप्पी को देखकर रमा आंटी बोलीं तो अम्मा के मुँह से बोल फूटे, ''नहीं बहन, क्यूँ तकलीफ करती हो। मेरा तो मन नहीं है। ब्रज और बच्चों के लिए दोपहर का ही बना रखा है। खा लेंगे ये।''

''अच्छा, मैं चलती हँ। मेरी जरूरत पड़े तो बुला लेना, बहन।'' कहती हुई रमा आंटी चली गईं। उनके आने पर हमारे घर की चुप्पियाँ जो थोड़ी देर के लिए कहीं दुबक गई थीं, उनके जाते ही उन्होंने फिर से पूरे घर को अपने शिकंजे में ले लिया था। थोड़ी देर बाद, अम्मा पिताजी के कमरे की ओर चली गई थीं। मैंने फिर अपनी टांगें फैला ली थीं और आँखें मूँदकर सिर दीवार से लगा लिया था।

पिताजी के शान्त चेहरे पर हल्की-सी हरकत देखकर अम्मा ने मेरी तरफ देखा है।...हाँ, सचमुच पिताजी के चेहरे पर हल्की-सी हरकत हुई है। होंठों पर कम्पन साफ दीख रहा है।... अम्मा उनके करीब होकर कहती है, ''सुनिए, आँखें खोलिए... देखिए, ब्रज आया है। इससे नहीं मिलोगे !''

मैं भी आगे बढ़कर पिताजी का कमजोर और बेजान-सा हाथ अपनी मुट्ठी में लेते हुए कहता हूँ, ''मैं हूँ पिताजी... आपका ब्रज... ठीक है न आप।...'' पिताजी के काँपते होंठों से लगता है, वे कुछ कहना चाह रहे हैं। मैं आगे झुककर कहता हूँ, ''पिताजी, कुछ कहना चाहते हैं ?... कहिए, मैं हूँ न। आपका बेटा... ब्रज।''
''कि...श... न... रा... ज...'' अस्फुट शब्द हवा में तैरते हैं।
''वे भी आते ही होंगे... आप...।''

वे एक बार अम्मा की ओर देखते हैं, फिर धीमे से गर्दन घुमाकर मेरी ओर। टुकड़ा-टुकड़ा शब्द हवा में तैरते हैं, ''अपनी अम्मा की, छोटे भाई-बहन की देखभाल करना बेटा... इन्हें तुम्हारे आसरे ही...।'' बमुश्किल से बोले गए शब्द अधबीच में ही अपनी यात्रा खत्म कर देते हैं। और फिर, अम्मा रोने लगती हैं, मुँह में साड़ी का पल्लू दबाकर। मैं भीतर से काँपता हुआ भयभीत-सा होकर ढाढ़स बँधाता हूँ, ''आप चिन्ता न करें... आपको कुछ न होगा...।'' लेकिन, अगले ही क्षण हो जाता है। पिताजी की गर्दन एक ओर... अम्मा की चीख निकल जाती है... पिंकी-विक्की रोना-चिल्लाना आरंभ कर देते हैं। घर में तनी सन्नाटे की चादर तार-तार हो जाती है। मेरे पाँवों के नीचे से जमीन खिसकने लगती है। अब क्या होगा ! मैं अकेला... घबराहट से मेरा पूरा शरीर काँपने लगता है। खुद को असहाय पाकर मैं भी फूट-फूटकर रोने लगता हूँ।

तभी, मेरी नींद टूट जाती है। पास ही खड़ी अम्मा मुझे कंधे से हिला रही थी, ''ब्रज... ब्रज बेटा सो गया क्या ?... चल बिस्तर लगा दिया है, लेट जा। मैं बैठती हूँ उनके पास। सो ले, कल रात से तू सोया नहीं।''
मैं चुपचाप उठा था और कपड़े बदलने लगा था।

सोने से पहले मैं एकबार पिताजी के कमरे में गया। वे उसी तरह बेहरकत लेटे हुए थे। अम्मा ने बताया कि उन्होंने चम्मच से दवा पिलानी चाही थी लेकिन दवा गले से उतरी ही नहीं।
''डाक्टर को बुला लाऊँ ?'' मैंने अम्मा से पूछा था।

''इस समय वह बुलाने से भी नहीं आएगा। सुबह अपने आप आ जाएगा। फिर भी तेरी मर्जी।''
मैंने साइकिल उठाई थी और उन्हीं कपड़ों में डाक्टर के घर पहुँच गया था। अम्मा की बात सही थी। उसने वही दवा देते रहने को कहकर मुझे लौटा दिया था। मैंने पिताजी की नब्ज एकबार देखी थी। वह चल रही थी, मन्द-मन्द। मैंने एकबारगी अम्मा को आवाज दी थी अम्मा आकर बोली, ''तू थोड़ा सो ले, ब्रज। देख, आँखें कैसे लाल हो रही हैं तेरी।''
अम्मा की बात पर मैं चुपचाप उठकर सोने चला गया था।

लेटते ही मुझे नींद ने अपनी गिरफ्त में ले लिया था और अगले दिन सुबह देर तक मैं सोता रहा था। अम्मा ने जब मुझे जगाया तो घड़ी में दस-पच्चीस हो रहे थे। मैंने उठते ही पिताजी के बारे में पूछा।

अम्मा बोलीं, ''आठ बजे मैंने दवा दी थी। तू उठकर नहा-धो ले। नाश्ता कर ले और फिर जरा डाक्टर को बुला ला। रोज तो नौ बजे तक खुद आ जाता था, आज साढ़े दस होने को आए...।''

नहा-धोकर, नाश्ता करके डाक्टर को बुलाने जा ही रहा था कि किशन और राज भैया आ गए। अम्मा उन्हें देखकर रोने लगीं तो दोनों देर से पहुँचने का अपना-अपना स्पष्टीकरण देने लगे। किशन भैया सरकारी काम से बाहर गए थे। लौटे तो तार मिला और तभी चल दिए। राज भैया ने कहा, तार पर उनका पता गलत था इसलिए तार देर से मिला। मिलते ही गाड़ी पकड़ ली।

दोनों सीधे पिताजी के कमरे में चले गए थे। अम्मा के पीछे-पीछे मैं भी पिताजी के कमरे में घुसा। पिताजी वैसी ही बेहोशी की-सी हालत में लेटे हुए थे। किशन भैया ने उनका हाथ पकड़कर नब्ज देखी थी और फिर उनके ठंडे हाथ को अपनी हथेलियों से मलकर गर्माने लगे थे। तभी, डाक्टर आ गया था। किशन भैया ने डाक्टर से बात की थी, अलग ले जाकर। शहर के बड़े अस्पताल में ले जाने की बाबत भी पूछा था। ''आप लोगों की मर्जी है, वैसे...'' कहकर डाक्टर ने बात हमारे ऊपर छोड़ दी थी। डाक्टर ने इस बार दवा बदलकर दी थी। मैं दवा लेने बाजार जाने लगा तो किशन भैया मुझे सौ का नोट थमाने लगे जिसे मैंने हल्की-सी 'न-नुकर' के बाद ले लिया था और साइकिल दबा दी थी।

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