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किशन भैया आते ही पिताजी की तीमारदारी में लग गए थे। कभी उनके कपड़े बदलते, कभी चम्मच से पानी पिलाते। कभी ठंडे हाथ-पाँवों को अपनी हथेलियों से गर्माने की कोशिश करते।

राज भैया जब से आए थे, सुस्त लग रहे थे। वे कम बोल रहे थे। चेहरे से वे भी मेरी तरह भीतर से घबराये हुए लग रहे थे। अब मेरी घबराहट वैसे कुछ कम हो गई थी। किसी अनहोनी का अकेले सामना करने का तनाव अब मेरे मस्तिष्क में नहीं रहा था। किशन भैया और राज भैया के आ जाने से मुझे भीतरी बल मिला था और लगा था, अब मुझे चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। दोनों बड़े भैया सबकुछ संभाल लेंगे। वैसे भी वे मुझसे अधिक अनुभवी थे। उनके रहते मैं कुछ हल्का-सा अनुभव कर रहा था। विक्की और पिंकी में कोई फर्क नहीं आया था। बल्कि वे अब ज्यादा ही गम्भीर और चुप दिखाई दे रहे थे।

बदली हुई दवा से पिताजी की हालत में हल्का-सा फर्क हुआ तो उसे मैंने ही नहीं, अम्मा ने भी चट से पकड़ लिया। पिताजी ने हिलकर करवट बदलने की कोशिश की थी। उनके होंठों से लग रहा था, वे कुछ कह रहे हैं, पर शब्द आवाज़हीन थे। पिताजी को कुछ नहीं होगा, अब यह धारणा धीरे-धीरे बलवती हो रही थी।

इस परिवर्तन ने मेरे भीतर अब तक दबी, छुपी और कुलबुलाती बात को बाहर निकलने की हिम्मत बँधा दी थी। दरअसल, जिस रात से मैं यहाँ आया था, उसके अगले दिन से ही मैं सोच रहा था कि किशन भैया और राज भैया के आते ही मैं लौट जाऊँगा। दोनो बड़े भाई स्वयं संभाल लेंगे। मुझे अपनी बीमार पत्नी और बच्चों की चिन्ता सता रही थी। सोनू की होने वाले परीक्षा की फिक्र हो रही थी। आफिस से भी मुझे छुट्टी इसलिए मिली थी कि तार पहुँचा था, वरना... आजकल तो वैसे ही ऑडिट चल रहा है।

किशन भैया को दौड़-दौड़कर पिताजी की सेवा-सुश्रुषा करते देख मुझे उम्मीद होने लगी थी कि भैया अवश्य काफी दिनों की छुट्टी लेकर आए हैं। अब, जब तक पिताजी कुछ बेहतर स्थिति में नहीं आ जाते, वह नहीं जाएँगे। दोनों बड़े भाइयों का वैसे भी ऐसे समय में यहाँ रहना ज़रूरी है। जाने कब क्या हो जाए।

एकाएक, मुझे अपनी सोच पर ग्लानि होने लगी। क्या उन्हीं का रहना यहाँ ज़रूरी है, उसका नहीं ?... लेकिन अगले ही क्षण, लौटने की बात मेरे अन्दर उछलकूद करने लगी और मैं अवसर की तलाश करने लग गया। अम्मा अधिक बात नहीं कर रही थी। मैं जब भी उन्हें अकेले पाकर अपने दिल की बात कहने की चेष्टा करता, मेरी जुबान को न जाने क्या हो जाता। जैसे उसे उस क्षण लकवा मार जाता हो ! मुँह से कोई शब्द ही नहीं फूटता।

किशन और राज भैया के सामने पड़ते ही मेरी हिम्मत जवाब दे जाती। दोपहर खाने के वक्त सोचा था, अपनी बात कह दूँगा। फिर सोचा, इतनी जल्दी ठीक नहीं रहेगा, शाम को कह दूँगा। रात नौ बजे की ट्रेन है, उसी से लौट जाऊँगा।

शाम के साढ़े चार का वक्त था, जब पिताजी को कुछ-कुछ होश आया था। उन्होंने मिचमिचाती आँखों से हम तीनों को देखा था। हाथों में हल्की-सी जुंबिश भी हुई थी। शायद, वे हाथ उठाकर हमें प्यार देना चाह रहे थे।

बदली हुई दवा असर कर रही थी।
खतरे का अहसास धीरे-धीरे कम होता लग रहा था। पिंकी चाय बना लाई थी और हम सब दूसरे कमरे में बैठकर चाय पीने लगे थे। चाय पीते हुए मैंने स्वयं को भीतर ही भीतर तैयार किया था। भूमिका स्वरूप अपनी बात भी चलाई, मसलन, ''अब तो पिताजी की हालत में सुधार हो रहा है... घबराने की बात नहीं दीखती अब...'' और जैसे, ''मुझे तीन दिन हो गए यहाँ आए... घर पर सुधा और बेटी निक्की भी ठीक नहीं... सोनू की कल से परीक्षा शुरू हो गई होगी... पता नहीं, क्या करके आता होगा...'' आदि।

मेरी इस बातचीत को कोई गम्भीरता से नहीं ले रहा था। बस, चुपचाप सुन रहे थे।
मैं एक पल सबके चेहरों की ओर देखता, फिर दिल की बात दिल में ही दबा देता। कभी-कभी मुझे लगता, बड़े भैया स्वयं ही कहेंगे, ''ब्रज, अब मैं आ गया हूँ। सब सँभाल लूँगा। तुम चाहो तो चले जाओ, सुधा अकेली होगी। ऐसी-वैसी बात होगी तो बुला लेंगे तुम्हें।''

अम्मा ने मुझे पिताजी के कमरे से आवाज दी तो मैं उठकर उनके पास चला गया। वह पिताजी के नीचे की चादर बदलना चाह रही थीं, बोलीं, ''जरा इन्हें थोड़ा-सा ऊपर उठाना, मैं नीचे की चादर बदल दूँ।''

एकबारगी, मैंने बड़े भैया को अपनी मदद के लिए बुलाना चाहा, पर अगले ही क्षण मैंने खुद ही पिताजी को अपनी दोनों बाजुओं में लेकर ऊपर उठा लिया था और अम्मा ने झट से उनके नीचे की चादर बदल दी थी।

अम्मा को अकेले पाकर मेरे अन्दर कुछ हिलने-डुलने लगा था। अम्मा ने पिताजी पर कम्बल ओढ़ाया और पास बैठकर उनके पैर दबाने लगीं तो मेरे मुँह से निकला, ''अम्मा... !''
''क्या बेटा ?''
''पिताजी... '' बस, मेरे गले में जैसे कुछ फँस-सा गया। बमुश्किल शब्द निकले, ''पिताजी, ठीक हो जाएँगे तो मैं कुछ दिनों के लिए आप लोगों को अपने यहाँ ले जाऊँगा। हवा-पानी बदल जाएगा।'' मुझे अपने कहे शब्दों पर हैरत हो रही थी। क्या मैं यही कहना चाहता था !
''ये ठीक हो लें पहले...।'' अम्मा का कहते-कहते गला रुँध आया था, ''वैसे भी तुम्हारे सिवा कौन है हमारा... तुम ही लोग तो हो।''

अम्मा के शब्द मेरे मर्म को छू रहे थे, अन्दर तक। मैं जानता था, यह अम्मा नहीं, अम्मा का दर्द बोल रहा था। उनको अपने यहाँ ले जाने की बात, मैंने उनका दिल रखने या उनका हौसला बढ़ाने के लिए कही थी। सच कहूँ तो मैं यह कहना ही नहीं चाह रहा था। मैं तो अपने लौटने की बात कहना चाहता था। यह तो मैं भी अच्छी तरह जानता था और अम्मा भी कि हम तीनों भाई अपनी-अपनी शादी के बाद उन्हें कितनी बार अपने-अपने यहाँ ले जा पाए हैं !

अब मुझे शर्म महसूस हो रही थी। मैं अपनी शर्म को मिटाने के लिए कमरे की दीवारों को यूँ ही बेमतलब ताकने लगा था।

शाम को बाजार से सब्जी लेकर लौटा तो बड़े भैया अम्मा से कह रहे थे, ''अम्मा, मैं रात की गाड़ी पकड़ लेता हूँ... सुबह आफिस ज्वाइन कर लूँगा। टूर से लौटा था तो सीधे इधर ही आ गया, तार पाकर। आफिस से छुट्टी भी नहीं ली थी। अब तो पिताजी की हालत में सुधार है। चिन्ता की कोई बात नहीं है, ठीक हो जाएँगे।'' भैया बोले जा रहे थे और अम्मा चुपचाप सुन रही थी। राज भैया भी समीप ही बैठे थे। खामोश। कमरे में मेरे घुसते ही बड़े भैया बोले, ''राज और ब्रज तो हैं ही न। ऐसी-वैसी बात हो तो मुझे खबर कर देना।''

''भैया, जाना तो मुझे भी था...'' इस बार राज भैया के होंठ हिले थे, ''आप तो जानते ही हैं, मेरी नौकरी टेम्परेरी है।... छुट्टी भी बड़ी मुश्किल से मिली है।... वे लोग मौका देखते हैं, अपना आदमी फिट करने के लिए। आप यहाँ रहते तो...।''

किशन भैया कुछ देर सोच में पड़ गए थे, राज भैया की बात समाप्त होने पर। मेरे भीतर भी कुलबुलाहट होने लगी थी। अब तक दबाकर रखी बात बाहर निकलने को उतावली हो रही थी। लेकिन, सहसा मेरी नज़रें अम्मा पर अटक गईं। अम्मा जहाँ बैठी थीं, वहीं स्थिर हो गई थीं, मूर्ति की तरह !

काफी देर बाद, तने हुए सन्नाटे को किशन भैया ने तोड़ा, ''अच्छा तो तुम भी चलो।... पिताजी तो ठीक हैं।... इतना घबराने या चिंतित होने की ज़रूरत नहीं।... अब हमें भी नौकरी की वजह से जाना पड़ रहा है, वरना ऐसी स्थिति में हमारा जाने को मन करता है भला ?''

फिर, मेरी ओर देखते हुए बोले, ''ब्रज, तुम तो यहाँ हो ही। पिताजी को दवा वगैरह टाइम पर देते रहना।... कोई बात हो तो मुझे तार कर देना। मैं आ जाऊँगा।'' और फिर जेब से रुपये निकालकर मुझे थमाते हुए बोले, ''रख लो, वक्त-बेवक्त काम आ जाते हैं।''

अम्मा अब सुबकने लगी थीं। उनकी आँखों से आँसुओं की धाराएँ बहने लगीं। मैं आगे बढ़कर अम्मा की बगल में बैठ गया था और अम्मा को सांत्वना देने लगा था। हाथ में पकड़े रुपयों को देखकर मेरी आँखें भी डबडबा आई थीं। समझ में नहीं आ रहा था, रुपये रख लूँ या भैया को लौटा दूँ।

जब थोड़ी देर तक कोई किसी से नहीं बोला तो किशन भैया उठे और तैयारी करने लगे। अम्मा ने पिंकी को आवाज लगाई, ''पिंकी बेटा, खाना वगैरह तैयार कर ले। दोनों भाइयों को खिलाकर भेजना, रात का सफर है।'' और फिर उठकर पिताजी के कमरे में चली गईं। शायद, वे हमारे सामने रोना नहीं चाहती थीं। निश्चित ही, पिताजी के कमरे में जाकर वे खूब रोई होंगी।
किशन और राज भैया को ट्रेन में बिठाकर लौटा तो अम्मा ने पूछा, ''ब्रज, तू तो छुट्टी लेकर आया होगा ?''

अचानक किए गए अम्मा के इस प्रश्न पर मैं अचकचा गया था। अम्मा के इस प्रश्न के पीछे का दर्द मैं अच्छी तरह महसूस कर रहा था। अम्मा से आँखें मिलाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। पिंकी-विक्की के पास बैठते हुए मैंने कहा, ''सोचता हूँ, कल सुबह पोस्ट-आफिस जाकर सुधा को चिट्ठी डाल दूँ कि चिंता न करे... कुछ दिन लग जाएँगे और साथ ही, आफिस में भी छुट्टी बढ़ाने की अर्जी पोस्ट कर दूँ।''

अम्मा ने आगे न कुछ पूछा, न कहा। फिर वही चुप्पियाँ हमारे बीच तन गईं। एकाएक, इन चुप्पियों से मुझे ऊब होने लगी। पिताजी की बीमारी से हममें भय, घबराहट, दुश्चिन्ता का होना स्वाभाविक था लेकिन लगातार चुप्पियों को अपने ऊपर ढोये रखना... मुझे ये चुप्पियाँ अनावश्यक लगने लगीं। इनकी गिरफ्त से बाहर होने की इच्छा हुई। मैं चाहता था कि बर्फ-सी जमीं चुप्पियाँ गलकर बह जाएँ।... पूरे घर में सन्नाटे की तनी चादर तार-तार हो जाए।... घर में फैली मनहूसियत से निजात मिले।... इन्हीं सब विचारों में डूबते-उतराते हुए मैंने सहसा विक्की से प्रश्न किया, ''तेरी पढ़ाई कैसी चल रही है ?'' फिर, उसका उत्तर जानने से पहले ही अपने बेटे सोनू के बारे में बताने लगा। छमाही परीक्षा में आए उसके नम्बरों के बारे में... उसके सारा दिन खेलते रहने के बारे में... पढ़ाई की ओर ध्यान न देने के बारे में... इसके बाद मैंने अपनी छोटी बेटी निक्की की शैतानियों का जिक्र छेड़ दिया। पिंकी-विक्की सुनकर हँसने लगे। मुझे उनका हँसना अच्छा लग रहा था।

एकाएक, विक्की ने पूछा, ''भैया, निक्की को कविताएँ आती हैं?''
''हाँ... बहुत। अरे, वह तो नाचती भी है।''
''अच्छा !'' पिंकी ने आश्चर्य व्यक्त किया।
''टी.वी. पर चित्रहार देखती है तो खूब नाचती है, मटक-मटक कर।''
''भैया, आज भी तो चित्रहार है। टी.वी. चला दूँ ?'' विक्की ने सहमते हुए मेरी ओर देखकर पूछा।
''चुप्प !'' पिंकी ने आँखें तरेर कर विक्की को तुरन्त डपट दिया, ''तुझे टी.वी. की पड़ी है। लोग क्या कहेंगे... घर में...।''

''घर में क्या ?'' पिंकी की बात पर एकाएक मैं चीख ही तो उठा, ''क्या है घर में? कोई मातम है क्या ?... पिताजी बीमार है... दवा-दारू चल रही है... ठीक हो जाएँगे।''
मेरी अनायास तेज हो उठी आवाज से कमरे का सन्नाटा काँपने लगा था। मैंने जल्दी ही खुद को संयत किया और प्यार से धीमे स्वर में बोला, ''तुम लोग खेलो, कूदो, पढ़ो... तुम्हें किसने रोका है... टी.वी. भी देखो, पर ध्यान रहे, पिताजी डिस्टर्ब न हों... उनके आराम में खलल न पड़े, बस।''
मेरी बात पर अम्मा ने भी पिंकी-विक्की की ओर देखते हुए कहा, ''कुछ नहीं हुआ उन्हें। बीमार ही तो हैं, ठीक हो जाएँगे।''
तभी मैंने उठकर टी.वी. ऑन कर दिया। आवाज धीमी ही रखी। अम्मा उठकर पिताजी के कमरे में चली गईं। कुछ ही पल में पर्दे पर फोटो उभर आई। चित्रहार आरंभ हो चुका था। पहला ही गाना था।

अम्मा भी पिताजी के कमरे का दरवाजा हल्का-सा भीड़कर हमारे बीच आ बैठी।

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