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नेहा के इस वाक्य का अर्थ निशा जल्दी नहीं लगा पाई। एक बेटी चार साल की और दूसरी गोद में ६-७ महीने की। अकेली ही जाऊँगी यह ज़िद भी कुछ अजीब ही थी उसकी। एक माँ के लिए ऐसी छोटी-छोटी बेटियों को छोड़ कर जाना इतना आसान नहीं (शायद किसी माँ के मन में भी न आए), पर यह कैसी माँ है और ऐसी किस मुसीबत में आ गई है कि उसकी सोच सब मायने पार कर चुकी है। निशा कुछ अंदाज़ा नहीं लगा पा रही थी।

खाड़ी देशों में या विदेशों में ही गृहिणियों के लिए समय बिताना एक समस्या-सी रहती है। अपने देश के माहौल से एकदम अलग माहौल में खुद को ढालना कठिन काम होता है। अपनी रुचियों ऐसे समय काफ़ी साथ निभाती हैं। साथ में अड़ोसी-पड़ोसी अच्छे मिलें तो समय थोड़ा मज़े में बीत जाता है।

अब्बासिया के इस मुहल्ले में भारतीय अधिक होने के कारण भारतीय लोग यहीं रहना पसंद करते हैं। कुछ माहौल भारतीय बना रहता है। हालाँकि ज़्यादातर लोग दक्षिण भारत के हैं पर उत्तर और पूर्वी भारतीयों की भी कमी नहीं। यों ही शाम को टहलते हुए नेहा से निशा का परिचय हुआ था। पहले सिर्फ़ पहचान थी, लेकिन यह पहचान धीरे-धीरे चुलबुली नेहा निशा के करीब पहुँचने में देर नहीं लगी। अपना बना लिया था।

अपने देश से दूर रहते वहाँ के हर भारतीय से अंदरूनी लगाव रहता है। निशा और नेहा की गपशप में रंग चढ़ने लगा। उलझनों को सुलझाने की कोशिशें की जाने लगीं। परिवार में रिश्तेदारों के हस्तक्षेप से नेहा कुछ परेशान थी। नेहा का इस तरह बुलाना, निशा का आत्मीयता से जाना और उसे समझाना, यह आम बात हो गई थी। निशा उम्र में बड़ी होने के नाते नेहा को समझाती, उतने पल के लिए नेहा मान भी जाती, पर...। इस बार जब उसकी बीती कहानी सुनी तो निशा दंग रह गई। जितना निशा नेहा के बारे में जानती थी वो एक अधूरा सच था। इसका मतलब निशा ने नेहा को पूरी तरह जाना ही नहीं था अब तक? निशा के मन में पूरी सच्चाई क्या हो सकती है इस पर सवालिया निशान लग चुका था।

निशा नेहा के घर पहुँचने तक उसके बारे में ही सोचती रही। उसकी ज़िंदगी के कुछ पहलू जो निशा के सामने खुले थे उस पर मन ही मन नज़र डालने लगी।

माँ बाप की यह लाडली बेटी अपने छोटे भाई और बड़ी बहन के साथ बड़ी हो रही थी। अपने बच्चों से बेहद प्यार करने वाले लेकिन कठोर स्वभाव के नेहा के पिता जी ने अनुशासन के नाम पर घर का माहौल डरावना बना रखा था। पढ़ने-लिखने के बहाने उनका गाँव छूट गया, पर पढ़े-लिखे लोगों की जो सोच होनी चाहिए, वह विकसित नहीं हो पाई। नेहा बता रही थी, "गाँव से बड़े शहर को देखने या किसी बहाने, घर में लोगों का तांता लगा रहता था। उनके सामने भी हमारे पिता जी हम बच्चों को मार पीट करने से चूकते नहीं थे।" माहौल में एक अजीब-सा तनाव बना हुआ रहता था।

ऐसे माहौल में एक दिन पेइंग गेस्ट के नाम पर अजय का इनके घर में प्रवेश हुआ। कुछ वजह रही होगी, बारह साल की उम्र में अजय घर से निकला और दर-दर की ठोंकरें खाता हुआ यहाँ तक पहुँचा था। उनत्तीस-तीस साल का अजय इतने सालों से प्यार का भूखा था। नेहा के माँ पिता जी से दो प्यार के बोल सुनता तो खुश हो जाता। अजय की मीठी-मीठी बातों से घर में हँसी-खुशी गूँजने लगी। और उन्नीस साल की कच्ची उम्र में मुलायम दिल की नेहा अजय की ओर कब आकर्षित हो गई, पता ही नहीं चला।

नेहा हमेशा सोचती कि अजय ने बारह साल की छोटी-सी उम्र से ही अकेली ज़िंदगी जी है, उसे प्यार के सहारे की, सँभालने की ज़रूरत है। उधर मन ही मन में अजय भी नेहा को चाहने लगा था। जब अजय ने एक दिन अपने प्यार का इज़हार नेहा के सामने किया तो वह सिहर उठी। नेहा ने घर में हमेशा मारपीट और घबराहट का ही माहौल देखा था। अजय के शादी के प्रस्ताव को स्वीकारना यानी इस माहौल से मुक्ति और अजय को अपने प्यार का सहारा, यही सही कदम होगा। उम्र में अजय नेहा से काफी बड़ा है, इस बात को भी उसने नज़रअंदाज़ कर दिया। सहमी और साहस की कमी के कारण दबी-दबी-सी रहने वाली नेहा ने अपनी बहन तक को इस बात की भनक तक नहीं लगने दी और चोरी छुपे शादी कर ली। नेहा अपने घर में ही रह रही थी इसलिए घर में किसी को कोई शक नहीं हुआ।

अजय शादी के बाद नौकरी के बहाने विदेश चला गया। कॉलेज का पहला साल नेहा ने जैसे तैसे पूरा किया। साथ-साथ अजय के पत्र का इंतज़ार करती रहती। एक साल बाद अजय नेहा को लेने आ पहुँचा। पहले से ही अजय के साथ शादी के बंधन में बँधी नेहा आज अपने माँ बाप का घर छोड़ कर, वो भी बिना बताए, उन्हे दुख पहुँचाते हुए परदेस जाने की तैयारी में थी। लेकिन ससुराल के प्रति उसका प्रेम जाग उठा। नेहा ने सोचा कि यही एक अच्छा मौका है, माँ-पिता जी से बेटे को मिलाने का। अजय माँ-पिता जी से मिलने जाने के लिए राज़ी नहीं था लेकिन अपने लोगों की, माँ बाप के प्यार की क्या कीमत होती है यह नेहा जानती थी। वही खोया हुआ प्यार अजय को दुबारा वह वापस दिलाना चाहती थी। अपनी ज़िद में नेहा अजय के साथ ससुराल पहुँची। पहला स्वागत कुछ खास नहीं हुआ लेकिन बाद में अपने स्वभाव से नेहा ने सब का मन जीत लिया। हँसी खुशी के कुछ पल ससुराल में बिता कर नेहा अजय को साथ कुवैत आ गई।

पढ़ा-लिखा ज़्यादा नहीं होने के कारण अजय की नौकरी कुछ ज़्यादा अच्छी नहीं थी पर पहला साल जैसे तैसे गुज़र ही गया। २१ साल की उम्र में जब नेहा पहली बार माँ बनने वाली थी तब निशा से उसकी मुलाकात उस से हुई। हर कदम पर पति का दुख सुख में साथ देने वाली नेहा हमेशा जिंद़ादिल रहती थी। उसे प्यारी-सी बेटी हुई।

अजय भी बहुत मेहनती। शिक्षा ज़्यादा नहीं ले सका लेकिन हर काम लगन से करता था, नये-नये काम सीखनें में खूब दिलचस्पी लेता। वेल्डिंग और लकड़ी का काम सीख कर मज़दूर की हैसियत से इस देश में कदम रखने वाले अजय ने बड़ी लगन से फैक्स मशीन, ज़िराक्स मशीन और कम्प्यूटर जैसी मशीनें ठीक करने में महारत हासिल कर ली और अंग्रेज़ी भाषा के साथ-साथ यहाँ की अरबी भाषा पर भी उसका अच्छा खासा प्रभुत्व हो गया।

यह यात्रा कुछ आसान न थी। लेकिन नेहा का साथ था और आगे बढ़ने की लगन! हर मंज़िल आसान-सी लगी। अजय-नेहा का आंतरजातीय विवाह था। ऐसे विवाह में काफ़ी मुश्किलें थी, काफ़ी समझौते भी थे। नेहा खुद शाकाहारी होने के बावजूद अजय के लिए माँसाहारी खाना बनाने लगी। अजय अपनी बुद्धि व परिश्रम की चमक दिखाते हुए टेक्निशियन के पद तक पहुँच गया। सब कुछ सामान्य था, उत्साहवर्धक था और धीरे-धीरे दोनों की गृहस्थी जमने लगी।

हमेशा काम करने की लगन के कारण अजय काम में ही व्यस्त होता गया। शुरू-शुरू में नेहा इस बात से नाराज़ होती थी। लेकिन अब बेटी के साथ उसका दिल लगने लगा। बेटी की परवरिश में अजय पिता की हैसियत से समय नहीं दे पाता था, पर नेहा अपनी तरफ़ से बेटी और पूरे घर की ज़िम्मेदारी से सँभाल रही थी। हालाँकि परदेस में यह सब अकेले निबटाना आसान नहीं पर नेहा चुपचाप सबकुछ करती रही।

समय बीतता गया। नेहा ने एक और बेटी को जन्म दिया। अजय का काम अपने ऑफ़िस के बाहर भी फैलने लगा था, उसे दिन के चौबीस घंटे भी कम लगते और इधर दो छोटे बच्चों के साथ नेहा को हर पल गुज़ारना मुश्किल होता था। सहेलियों और रिश्तेदारों का अभाव, मनोरंजन की कमी, घर के कामों का बोझ और दो छोटी बेटियों के पालन पोषण की ज़िम्मेदारी उस अकेली पर। कभी-कभी अजय पर ही झुंझला पड़ती और उधर अजय भी काम की थकान से लौटने पर घर की अव्यवस्था, बच्चों के रोने या समय से खाना तैयार न मिलने पर बिगड़ पड़ता। ऐसे अनेक मौकों पर नेहा निशा के शरण आती, निशा उसे समझाती और फिर सब कुछ सामान्य हो जाता।

इसी बीच कलकत्ता से अजय के छोटे भाई विजय का ख़त आया कि घर की हालत अच्छी नहीं। वह बी.ए. करने के बाद एक एडवर्टाइज़िंग कंपनी में नौकरी कर रहा था, लेकिन परिस्थिति ख़ास सुखदायी नहीं थी। अजय ने सोचा कि यदि विजय को यहाँ बुलाया जाय तो अच्छा रहेगा। एक व्यक्ति के आने से घर का उदास और अकेलापन दूर हो जाएगा, यह सोच कर नेहा ने भी तुरंत हामी भरी।

विजय के लिए भाग दौड़ कर एक नौकरी का इंतजाम़ कर के अजय ने उसे कुवैत का वीज़ा भिजवाया और कुछ ही दिनों में विजय कुवैत आ पहुँचा।
इतने बरसों बाद दोनों भाइयों को साथ-साथ बैठ कर बाते करते देख नेहा भी खुश हो गई। बच्चियाँ भी खुश थीं। घर में रौनक छा गई थी। लेकिन दोनों भाइयों की ज़िंदगियाँ ऐसी मिलीं कि नेहा को अपनी ज़िंदगी उजड़ती नज़र आने लगी। भाई से मिलने के बाद अजय इतना बदल जाएगा ऐसा नेहा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। विजय के सामने नेहा की अहमियत शून्य होने लगी।

विजय के आने के बाद थोड़े दिन हँसी-मज़ाक और खुशी में अच्छे बीते। अपनी महीने की आय के हिसाब से चलना इन दोनों भाइयों ने सीखा ही नहीं था। अजय-विजय के पिता जी ने भी इसी स्वभाव के कारण सब कुछ गँवाया था। लेकिन यहाँ तो बेटे भी पैसों की कीमत क्या है यह सोचने की जगह अपने पिता जी के कदमों पर ही चलते नज़र आ रहे थे। इस रईस देश के रईस लोगों के साथ बराबरी करना चाहते थे। विजय तो यहाँ की चकाचौंध देखकर बौखला गया था। अपने छोटे भाई के कहने में आकर और उसका दिल रखने के ख़ातिर बिना सोचे समझे ख़रीदारी शुरू हो गई और जिन चीज़ों के बिना गुज़ारा संभव हो सकता है उन्हीं चीज़ों का ढेर घर में सजता गया।

इन सब बातों से नेहा दुखी रहने लगी। आज जेब में पैसा है तो उसे खर्च करने की बजाय थोड़ा कल के बारे में सोचने में नेहा यकीन रखती थी। हमेशा बेटियों के भविष्य के बारे में सोचती रहती। यदि ऐसे ही चलता रहा तो आगे क्या होगा। अजय इतना ज़्यादा मेहनती है कि यदि कुछ सोच समझ होती तो आगे के एक दो सालों में ही हालात सुधर सकते थे लेकिन इस खर्चीले स्वभाव के कारण अनेक बार छोटी-छोटी चीज़ों के लिए मुश्किल समय में नेहा को निशा के सामने हाथ फैलाने की नौबत आन पड़ती थी। शून्य से उठे हुए अजय को नेहा ने बराबर का साथ दिया था। इसलिए ऐसे मौके पर वह खुद को कमज़ोर महसूस करती थी, भविष्य की चिंता सताने लगती।

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