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                       स्वाभाविक साफ़गोई। जय ऐसा ही है! लेकिन इस वंदना को क्या हो गया है! अरसा गुज़र 
गया। कोई मेल नहीं। पचा जाती है सब। या फिर दो लाइनें लिखेग़ी। अच्छी हूँ। आप कैसी 
हैं? कोई नई ख़बर? वंदना।पढ़कर गुस्सा आता है। ख़बर मुझे देनी है या उसे। जान बूझकर बचने की कोशिश। रहने दो, 
मुझे क्या। नहीं बताना चाहती, न बताए। हे भगवान, इस लड़की की शादी हो जाए!
 उसे ठीक से पता है किस जद्दोजहद से गुज़रता है इंसान, अपनी अव्यवस्थित ज़िंदगी को 
रास्ते पर लाने के लिए। खुद उसने क्या कम ठोकरें खाई हैं विवेक से विवाह का अंतिम 
फ़ैसला लेने तक! पता नहीं यह लड़की कब फ़ैसले लेना सीखेगी। उसे भी वक्त नहीं मिलता। 
नए देश में नई गृहस्थी की सौ पेचीदगियाँ हैं। वरना कभी कंम्यूटर पर ही बात कर लेती। 
लेकिन यहाँ जब उसके सोने का वक्त होता है तो उधर देवी जी ऑनलाइन नज़र आती हैं, तब 
नींद से पलकें भरी होती हैं, शरीर थका और हिम्मत जवाब दे जाती है।
 जय से ही पूछना होगा लेकिन पूछे कैसे। यह लड़का तो कुछ बतलाना ही नहीं चाहता। पिछले 
तीन महीनों में कम से कम दर्जन भर मेल तो लिखे होंगे उसने लेकिन वंदना के ज़िक्र से 
ही बचना चाहता हो जैसे। बस कविताएँ लिखेगा। प्रेम कविताएँ!
 तब भी कोई रास्ता तो निकालना होगा। उसने फिर जय को ही लिखा।
 इस बार होली की शुभकामनाओं के साथ और स्पष्ट किया कि वह वंदना को अलग से पत्र नहीं 
लिख रही।
 जवाब आया।
 वंदना आपको नहीं जानती। शुभकामनाओं का शुक्रिया। और इस बार एक ई-शुभकामना पत्र 
उसके लिए।
 अजीब हाल है। अब वंदना भी उसे पहचानने से मना करती है।
 होली के बाद उसे वंदना का पत्र मिला। दीदी, बहुत तनाव में हूँ। नौकरी कर रही हूँ। 
पापा ने तो जय की भी शादी तय कर दी। मैं होली में घर नहीं गई - वंदना।
 अनु का मन रो उठा। इतनी बेचारी हो गई उसकी वंदना! 
घर से दूर, अकेली। कैसा लगा होगा उसे त्योहार में भी घर न जाकर! जब उसके पापा ने 
निशीथ की शादी की थी तब तो वह झेल गई थी। निशीथ भी उससे छोटा ही था लेकिन बस साल भर 
और तब वह अपनी पीएच. डी. पूरी करने की ज़िद पर अड़ी थी। लेकिन इस बार इतना छोटा है 
जय उससे। क्या-क्या नहीं सुनना पड़ा होगा उसे। वरना वह इस तरह उसके सामने अपना मन 
खोलती? उसने तुरंत जवाब दिया।मुझे यह पढ़कर कोई खुशी नहीं हुई वंदना। तुम यह बताओ कि तुमने अपने लिए क्या 
निर्णय लिया? जय ने कैसे स्वीकार लिया? वह तुमसे इतना छोटा है! -दीदी।
 वंदना ने भी तुरंत ही जवाब दिया। दीदी आप जय को दोष न दें। मम्मी पापा को भी नहीं। 
मेरी ही ग़लती है - वंदना।
 अब उसकी इच्छा हुई दोनों भाई बहन को अच्छी डाँट पिलाए।
 पहले उसने जय को पत्रोत्तर दिया, जो वह इतने दिनों से टालती आ रही थी।
 यह क्या मज़ाक है जय! लड़ बैठे हो वंदना से? वंदना की मनस्थिति समझने की कोशिश भी 
नहीं करते। तुमसे ऐसी उम्मीद तो मुझे कतई नहीं थी।
 वंदना से बात करनी होगी। बहुत आहत है वह। उसे 
समझाना होगा। मौका भी मिल गया।कई दिनों तक वह देर रात तक कंप्यूटर पर काम करती रही। याहू मेसेंजर पर उपलब्ध की 
सूचना के साथ।
 वंदना ने खुद ही एक दिन संदेश भेजा। वह बात करना चाहती है। अनु को बड़ी राहत महसूस 
हुई। वंदना को बताना होगा कि इस बीच जय उसे मेल लिखता रहा है और कविताएँ भेजता है। 
और यह भी कि अनु ने खुद उसके लिए कई लड़कों के पते जमा किए हैं। यदि उसकी स्वीकृति 
हो तो वह जय से बात करे। क्या अब ऐसा करना उचित होगा जब वह खुद बता रही है कि जय की 
भी शादी तय हो चुकी। अनु को तो वह स्वार्थी लगता है।
 उसने बात शुरू की।
 जय की शादी कब तय हुई वंदना?
 पिछली बार घर गई थी तब।
 और तुमने अपने लिए क्या सोचा?
 दीदी, तीन रिश्ते आए। किसी को भी हाँ नहीं कर सकी।
 क्यों?
 मन हाँ करे तब तो।
 मन क्यों हाँ नहीं करता? निधि को सोचकर?
 निधि की तो शादी हो गई फिर से।
 तब!
 ऐसे ही
 ऐसे क्या, किसी पर दिल आ गया!
 ऐसा होता तो अबतक फ़ैसला ले चुकी होती।
 लेकिन तुम कबतक ऐसे चलाओगी वंदना?
 घर जा रही हूँ पंद्रह दिनों बाद। शायद इस बार बात बन जाए। मुझे वह इंसान अच्छा लग 
जाए।
 भगवान करे।
 हाँ!
 अनु को लगा अब वह पूछ सकती है कि उसने जय को ऐसा क्यों कहा।
 तुमने जय को क्यों कहा कि तुम मुझे नहीं जानतीं।
 मैंने कब कहा।
 अरे वाह! जय ने लिखा मुझे।
 दीदी आप किस जय की बात कर रही हैं। जय को ई-मेल लिखना नहीं आता।
 लेकिन वह तो लिखता है मुझे। अपनी कविता भी भेजी उसने।
 दीदी बिलीव मी। जय कविताएँ नहीं लिखता। उसे ई-मेल करना भी नहीं आता। मैं उससे फ़ोन 
पर बात करती हूँ।
 अनु का मन तेज़ी से घटनाओं की संगति बिठा रहा था।
 दीदी आप ऑन लाइन हैं न? वंदना पूछ रही थी।
 हाँ वंदना।
 दीदी आप पूछिए। वह कोई और जय है।
 ठीक है वंदना।
 वह इस जय को वंदना के लिए रिश्ते सुझानेवाली थी! 
कैसे मान लिया उसने कि वह उसकी वंदना का भाई जय ही है? उसे आप ही कह रहा है तुम 
नहीं? पत्र तो अंग्रेज़ी में थे! और पत्र भी क्या थे, प्रेम कविताएँ। वही दीदी बनकर 
सलाह दिए जा रही थी। उसका ई-पता तो पत्रिकाओं में छपा हुआ है फिर कोई भी पत्र लिख 
सकता है। कैसे इतनी बड़ी बेवकूफ़ी कर डाली उसने! आनन-फानन में उसने एक ई-पत्र जय को लिख डाला।
 मुझे अफ़सोस है, मैं तुम्हें अपनी मित्र वंदना का भाई जय समझती रही। पिछले पत्र 
में जो कुछ मैंने लिखा उसका मुझे खेद है। कृपया उस पत्र पर ध्यान न दो।
 अब वह लड़का खुलकर उसके सामने था।
 आश्चर्य है। मेरी दीदी का नाम भी वंदना है। अपने बारे में और अपनी मित्र के बारे 
में कुछ और बताइए। आप क्या गोरखपुर की हैं?
 तो इसे मेरे बारे में कुछ नहीं मालूम। क्या मासूमियत है! कहाँ से मेरा ई-पता उठाया 
इसने! अनु की खीझ बढ़ती जा रही थी।
 उसने जवाब दिया।
 बता दूँगी। पहले यह तो बतलाओ कि तुम्हें मेरा ई-पता कहाँ से मिला?
 जवाब हाज़िर था।
 मुझे आपका पता कहानी ई-पत्रिका में मिला। आपने एक कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया भेजी 
थी। अब अपने बारे में बताओ। आप तो मुझे जानती ही हैं, मैं वंदना का भाई जय हूँ।
 क्यों नहीं! टू स्मार्ट। अनु ने सोचा।
 किसे फ़ुर्सत है तुमसे उलझने की!
 अनु ने चुपचाप जय का ई-पता अपनी स्पैम लिस्ट में डाल दिया।
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