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कहानियाँ  

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
ऑस्ट्रिया से राकेश त्यागी की कहानी "लॉटरी"


बस बाइपास से मुड़कर जाने लगी तो विशाल ने कहा, "रुकवाना भाई!"
कंडक्टर ने सीटी बजा दी और बस झटके के साथ रुक गई। विशाल सामान उठा कर नीचे उतर गया। बस आगे चली गई तो उसने बैग कंधे पर लटका कर इधर उधर देखा। कई सारे टेंपो खड़े हुए थे। साल भर पहले ये बाइपास का मोड़ लगभग सुनसान रहता था पर अब पान सिगरेट आदि के खोखे और टेंपो स्टैंड के कारण काफ़ी भीड़-भाड़ लग रही थी। एक दो चाय की झोपड़ीनुमा दुकानें भी खुल गईं थीं।

घर तक पहुँचने के लिए यदि वो चलकर जाता तो छोटे रास्ते से क़रीब बीस पच्चीस मिनट लगते, लेकिन उस रास्ते में खुदाई चल रही थी। दूसरे रास्ते से घर के पास तक पहुँचने के लिए टेंपो से जाया जा सकता था, उसने देखा कि जो टेंपो नंबर पर लगा था उसमें करीब पाँच लोग बैठे हुए थे, वह उसी में जाकर बैठ गया। कुछ ही देर बाद दो विद्यार्थी आकर बैठ गए, टेंपो वाले ने रस्सी से टेंपो स्टार्ट किया और ड्राइविंग सीट पर बैठ कर इधर-उधर देखने लगा।
पीछे से एक आदमी बोला कि भाई अब तो चलो, पूरे लोग हो गए।
टेंपो वाला बोला, "अभी दो लोग और बैठेंगे।"

तब तक दूसरा टेंपो वाला उसके पास आकर खड़ा हो गया और बोला, "बल भाई जी, कल ज़रासा चूक गए दुग्गी निकली, पर दस ही ख़रीदे थे, चाय पानी का खर्चा निकल गया।''

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