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"मैं तो कल ख़रीद ही नहीं पाया कुछ भी, सारा दिन इस ससुरी गाड़ी ने पी लिया, ठीक कराकर चला ही था कि नहर के मोड़ पर दीवान जी मिल गए, बोले चल ज़रा, मेज़ कुर्सी उठा कर लानी है शरनपुर के बाज़ार से। अब क्या कहा, गया, लदवा कर लाया उनका सामान, घर पर छोड़ा। अब पैसे इनसे कैसे माँग लें, अपने आप उन्होंने दिए नहीं।" विशाल का टेंपो वाला कुढ़न से बोला।
"भाई जी, इन्हीं लोगों की दाईगिरी है हर तरफ़।" दूसरे टेंपो वाले ने कहा।
तब तक दो लोग और आकर टेंपो में ड्राइवर के पास बैठ गए, उसने कहा, "गोविंद मैं अभी आया चक्कर लगा कर।" और टेंपो आगे बढ़ा दिया।
विशाल देखता रहा, दाईं ओर वाले खेत पर पके गेहुओं के सुनहरेपन को। दूर निचाई की तरफ़ नदी बड़ी अच्छी लग रही थीं। वो सोच रहा था कि पहाड़ में आना कितना सुखद लगता है, ख़ासकर जब किसी बड़े मैदानी शहर की भीड़भाड़ से यहाँ आया जाए।
"ऑफ़िस पर उतरेगा कोई?" टेंपो वाले ने पूछा।
विशाल ने कहा, "हाँ भाई रोक कर चलना।"

टेंपो से उतर कर विशाल ने पैसे दिए और घर की तरफ़ चलने लगा तो देखकर आश्चर्य हुआ कि सरकारी दफ़्तरों की इमारतों के सामने सड़क पार जगह-जगह स्टूल और स्टैंड सहित लॉटरी के टिकट बेचने वाले खड़े हुए थे, उन्हें घेरे हुए थे टिकट ख़रीदने वाले और उन सबकी भिन-भिन ने अच्छा ख़ासा शोरगुल मचाया हुआ था, लगा ही नहीं कि पर्वतीय अँचल की इस छोटी-सी जगह में लॉटरी का इतना वृहद रूप से फैलाव हो सकता है।

तब तक उत्तरांचल का निर्माण नहीं हुआ था और कभी-कभी, कहीं-कहीं, राज्य के निर्माण की माँग करने हेतु प्रदर्शन आदि होने लगे थे, राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद वाले ढाँचे को ढाए हुए अभी एक ही बरस हुआ था पर कुल मिलाकर इस पर्वतीय भाग में अमन और शांति थी।

तेज़ हवा चली तो ज़मीन पर फैले पड़े लॉटरी के बेजान टिकट उड़कर उसके पास से जाने लगे, उसने पैर से टिकटों को दबाना चाहा, दो तीन टिकट पैर के नीचे दब कर रुक गए, झुककर एक टिकट उठाया तो उस पर लिखा पाया ''स्टार दैनिक लॉटरी'', उसे फेंककर वो घर की ओर बढ़ गया।

पूरे एक साल बाद विशाल घर आ पाया था। आसपास काफ़ी बदलाव दिखाई दे रहा था, शाम को घूमने निकला तो सुनीलकांत जी से भेंट हो गई।

उन्होंने पूछा, "कब आए?"
"बस आज सवेरे ही।"
इधर उधर की सामान्य बातचीत होती रही।
विशाल ने ऐसे ही हल्के लहजे में कहा, "लॉटरी का बड़ा प्रकोप दिखाई दे रहा है यहाँ।"
"अरे बस आफ़त मचा रखी है, सब चौपट कर रखा है इस लॉटरी ने, हर आदमी दीवाना हो रहा है।"
"पर इसमें बड़ी बर्बादी है, यहाँ साफ़सुथरी जगह में कैसे आ गई लॉटरी की बुराई?" विशाल ने कहा।
"कुछ ना पूछो भाई कैसे आ गई पर पिछले आठ नौ महीनों से तूफ़ान उठा रखा है, फिर आने के बाद फैलने में कोई दिक्कत नहीं हुई। लॉटरी को पहाड़ में, हर आदमी फटाफट अमीर होना चाहता है यहाँ भी, शाम को दफ़्तर छूटते ही भीड़ लग जाती है, इन लॉटरी सेंटरों पर।"
फिजूल आशा में कितना पैसा बर्बाद कर देते हैं लोग, जुआ ही है ये भी।" विशाल ने चिंता दर्शाई।
सुनील जी ने तपाक से कहा, "पूरी-पूरी तनख़्वाह लगा दी लोगों ने लॉटरी खेलने में।"
"ये खेलना शब्द सही इस्तेमाल किया आपने।"
सुनील जी मुस्कुराकर बोले, "पूरी गणना करके टिकट ख़रीदते हैं लोग। पुराने कुछ महीनों के परिणाम देख कर अंदाज़ा लगाते हैं कि किस नंबर की संभावनाएँ हैं।"
"प्रायिकता का पूरा प्रयोग हो रहा है।" विशाल ने हँस कर कहा।
"हाँ, जहाँ देखो वहाँ नंबरों की ही बात होती मिलेगी। पता नहीं क्या नशा लोगों पर छा गया है, महिलाएँ ही नहीं, स्कूल के बच्चे भी लॉटरी के स्टॉलों पर दिखाई दे जाएँगे। किताबें बेचकर टिकट ख़रीदते पाए गए हैं। सुनील जी गहरी साँस लेकर बोले।
"पर धांधली खूब होती है लॉटरी में भी, याद होगा आपको, कुछ साल पहले इस्टैंट लॉटरी चली थी, उस केस में नवभारत टाइम्स के एक पत्रकार ने अदालत में, बिना लॉटरी से पन्ने हटाए अंदर छपा हुआ नंबर बता दिया था। अदालत ने रोक लगाई थी तब इंस्टैंट लॉटरी पर।" विशाल ने कहा।
इस बात पर सुनील जी लपक कर बोले, "धांधली! अरे खूब सट्टा चलता है, कौन-सा नंबर निकलेगा इस बात पर सट्टा लगता है। अब लोग लॉटरी का टिकट ख़रीदने के साथ-साथ इन सट्टों पर भी पैसा लगाने लगे हैं। लॉटरी और इसके नंबरों पर सट्टा लगवाने वालों के लिंक्स रहते हैं आपस में, जिस नंबर पर सबसे ज़्यादा सट्टा लोग लगाते हैं वो नंबर अक्सर नहीं निकलता।"
"अपना नुकसान क्यों करेंगे ये लॉटरी और सट्टेवाले लोग, धर्मखाता तो खोल नहीं रखा है, जनता को ही समझना है।" विशाल ने चिंता से कहा।
सुनील जी उसकी ओर झुककर दबे हुए स्वर में बोले, "सट्टे को मटका बोलते हैं, यदि एक आदमी दो लॉटरियों के अंकों पर सट्टा लगा रहा है तो उसे कंबाइंड बोला जाता है।"
विशाल ने चकित स्वर में पूछा, "परंतु लॉटरी आदि के परिणाम तो अधिकारी निकालते हैं, फिर ये सट्टेवाले लोग कैसे मेनिपुलेट कर लेते हैं।"
"मैं बताता हूँ, आखिरी अंक का निर्णय लॉटरी वाले खुद घोषित करते हैं। ये सब सट्टेबाजी इसी आख़िरी अंक के मिलान पर है।" सुनील जी ने ज्ञान बढ़ाया।
"अच्छा तभी लोग खोजते रहते हैं कि दुग्गी के टिकट चाहिएं या चार नंबर वाले टिकट ही चाहिए।"
"हाँ, इस एक अंक वाले खेल में रकम बड़ी चाहिए, नंबर तो लग ही जाता है, इतना पैसा पास में होना चाहिए कि जब तक आपका छाटा हुआ नंबर निकल ना जाए तब तक आप पहले दिन से दोगुने टिकट उसी नंबर के ख़रीदते रहें।

विशाल को असमंजस में अपनी ओर देखता पाकर वो आगे समझाते हुए बोले, "मानो आज आपने छ नंबर वाला टिकट लिया, कल छ नंबर वाले दो टिकट, उससे अगले दिन आपने छ नंबर वाले चार टिकट लिए, इसी तरह आप दोगुने टिकट ख़रीदते रहो, अगर महीने भर में भी छ नंबर लग गया तो आपको, जितना खर्चा आपने किया है, उससे कई गुना धन मिल जाएगा। आख़िर नौ ही तो नंबर हैं, आपका छाँटा हुआ नंबर निकलना तो है ही।"
विशाल ने हँसी में पूछा, "आपने कभी कोशिश नहीं की, आपको तो सब गणित स्पष्ट है।"
"एक दिन बड़ा खला, सुबह से लग रहा था कि चार नंबर निकलेगा आज। दिल भी था कि टिकट ख़रीद कर देखा जाए पर फिर लिया नहीं और शाम को चार नंबर ही निकला, बड़ी कोफ्त हुई।" उन्होंने पछतावे के स्वर में कहा।

विशाल को उनके कहने के अंदाज़ पर हँसी आई, पर हँसी दबाकर वो उनसे विदा लेकर घर आ गया। घर में घुसते हुए देखा कि एक पचास-बावन के क़रीब उम्र का आदमी साइकिल पर चला जा रहा था और उसे घेर कर लगभग आठ नौ कुत्ते चल रहे थे, जैसे मंत्रियों को लेकर एस्कोर्ट चलता हैं।
विशाल ने घर पर माँ से पूछा कि ऐसे कौन महाशय हैं तो उन्होंने कहा, "भीम सिंह होगा, अकेला है सो इतने सारे कुत्ते पाल रखे हैं, इन्हीं पर सारा खर्चा करता है। ड्यूटी से आते हुए सब कुत्तों के लिए डबलरोटी और अन्य सामान लेकर आता है।''''
"अच्छा कुत्तों की प्रजा बना रखी है राजा भीम सिंह ने", विशाल ने हँसकर कहा।
"ये कुत्ते ही कौन-सा उसका पीछा छोड़ते हैं, जब ड्यूटी जाता है तो उसे शिफ्ट बस तक छोड़ने जाते हैं फिर बस के आने के समय पर उसे लेने पहुँच जाते हैं, पता नहीं कौन-सी घड़ी कुत्तों को बता देती है कि अब उसकी बस का समय हो गया है। बताते हैं कि वो खाना बनाने बैठता है तो उसे घेरे बैठे रहते हैं और उसकी चारपाई के चारों ओर सोते हैं।" माँ ने विशाल को बताया। "फिर कुत्तों के भाग्य से ही उसकी एक लाख रुपयों की लॉटरी लगी है, उस अकेले को क्या करना है, अपनी नौकरी की आमदनी से ही काम अच्छा चल जाता है।" माँ ने आगे बताया।

विशाल ने मन में सोचा, फिर लॉटरी और इतने मनोरंजक प्रसंग में।
और सुनो, "जब भीम सिंह की लॉटरी निकली तो रात में कुछ लोग उसे लूटने उसके घर में कूद गए, ये कुत्ते ना होते तो मार ही जाते बेचारे को। कुत्तों ने भौंक-भौंक कर भगाया उन्हें, पर तब भी भीम सिंह के सिर में एक लाठी मार गए, बिचारे के सिर में कई टाँके आए।" माँ ने सहानुभूति के स्वर में कहा।
"वाह!" विशाल के मुँह से निकला, "क्या साथ है भीम सिंह और उसके कुत्तों का।"
उस रात विशाल को नींद में सपने आते रहे, लॉटरी के उड़ते हुए टिकटों के, कभी लगता टिकटों की नदी बह रही है, टिकटों के बिस्तर पर वो सो रहा है। कभी भीम सिंह दिखाई देता अपने कुत्तों के साथ लॉटरी के टिकट हवा में उछालता हुआ जिसे उसके कुत्ते दौड़-दौड़ कर अपने मुँह में पकड़ते और फिर उसके पास ले आते।

अगले दिन शाम को बाज़ार से होता हुआ विशाल, नदी किनारे वाली सड़क की तरफ़ चला तो सरकारी अस्पताल के पास काफ़ी भीड़ दिखाई दी। जाना वहाँ से होकर ही था सो नज़दीक जाकर देखा विशाल ने तो पाया कि एक औरत रो रही थी और कह रही थी कि हमारी तो किस्मत ही फूट गई इस लॉटरी के चक्कर में।

विशाल ने भीड़ में खड़े एक व्यक्ति से पूछा तो उसने बताया कि इसका पति टेंपो चलाता है, पैसे के कारण परेशान रहता था, उपर से लॉटरी का चस्का लग गया। पता चला पहले पंजाब में कहीं उसकी दुकान थी और ठीकठाक उसका काम चलता था पर पंजाब में आतंकवाद के ज़माने में कुछ लोगों से उसकी वहाँ झड़प हो गई और फिर जान बचाने को रातोंरात उसे पंजाब में अपना सब कुछ छोड़कर आना पड़ा, अपना और परिवार का पेट पालने के लिए पहले उसने मज़दूरी की और फिर टेंपो चलाने लगा किराए पर लेकर और बाद में अपना टेंपो किस्तों पर लिया और चलाने लगा। धीरे-धीरे टेंपों की सारी किस्तें चुकाई। दस सालों में काफ़ी ठीकठाक उसने कर लिया था।

पहले ठीक था पर इधर कुछ परेशान रहने लगा था और जब से लॉटरी की तरफ़ उसका ध्यान चला गया था, रोज़ की कमाई में से काफ़ी पैसे वो लॉटरी में लगा देता। कभी-कभी छोटी-मोटी रकम निकल भी आती थी। हर व्यक्ति समान रुचि वाले लोगों को खोज ही लेता है या लोग उसे ढूँढ़ लेते हैं, ऐसे ही उसके साथ भी सारे दिन लॉटरी की बातें करने वाले लोग रहने लगे थे। घर में कलह बढ़ गई थी लॉटरी के कारण।"
कल सुबह उसकी पत्नी ने उसे कहा कि बच्चों के स्कूल की फीस जानी है, और भी कुछ ज़रूरी खर्चे बताए होंगे बस दोनों में इन्हीं सब बातों को लेकर झगड़ा हो गया। दिन भर वो टेंपों को लेकर बाहर रहा, रात देर से घर गया और सो गया।

सुबह बहुत जल्दी उठा और छ बजे ही बिना कुछ खाए पिए टेंपो लेकर चला गया, वो लौट कर आया तो दोपहर के बारह बजे होंगे, टेंपो उसके साथ नहीं था। पत्नी ने सोचा शायद कुछ-कुछ ठीक होने के लिए मैकेनिक के यहाँ छोड़ आया होगा, कई दिन पहले कह भी रहा था।
उसे खाना देते हुए बात छेड़ने के लिए पूछ लिया कि टेंपो क्या ठीक होने दे आए?
उसने खाने की तरफ़ तो देखा नहीं, उसे एक थैला देते हुए बोला कि टेंपो बेच दिया है और सब रुपयों के लॉटरी के टिकट ले लिए हैं और आज उसका ख़रीदा हुआ नंबर ही लगेगा, सब दरिद्र दूर हो जाएगा। उसने खोज-खोज कर पाँच नंबर के टिकट लिए थे।
उसकी पत्नी का तो सिर चकरा गया।

वो इतना कह कर घर से बाहर चला गया कि अब शाम को लॉटरी का परिणाम निकलने पर ही आएगा और वो टिकट सँभाल कर रख ले। उसके जाने के बाद उसकी पत्नी को होश आया तो उसने टिकटों से भरा थैला उठाया और बाज़ार की तरफ़ चल दी। जितने टिकट वो बेच सकती थी उसने रोते हुए बेचे, कुछ शुभचिंतक भी उसकी सहायता करने लगे। किसी तरह वो टिकट बेच पाई तब भी सौ के क़रीब टिकट उसके पास रह गए। शाम को बच्चों के स्कूल से आने के समय पर वो वापस घर आ गई।

उधर उसके पति ने अपनी मंडली में कह दिया कि नदी किनारे जा रहा है वहीं बैठेगा यदि आज उसका नंबर लगेगा तो ठीक वरना वही नदी में कूद जान दे देगा। शाम को परिणाम आया और निकला भी तो पाँच नंबर ही, लोगों ने टेंपों वाले को नदी किनारे जाकर ख़बर दी वो खुशी से उछलता हुआ घर आया। पर यहाँ तो सीन दूसरा ही था, जब उसे टिकट बेचने की बात पता चली तो वो गश खाकर गिर पड़ा। लोग उसे अस्पताल ले आए, होश में आने के बाद से उठपटांग गा रहा है, दिमाग़ हिल गया है। विशाल को उसकी गाथा सुनकर बड़ा अफ़सोस हुआ और वो वापस घर आ गया। सोचता रहा ये लॉटरी क्या कर रही है लोगों के साथ इस शांत जगह में।

अगले दिन विशाल ने अख़बार में पढ़ा-
महिलाओं ने जिले में लॉटरी के ख़िलाफ़ जलूस निकाला, जिलाधिकारी का घेराव किया और जबतक जिलाधिकारी ने जिले से लॉटरी ख़त्म करने का आश्वासन नहीं दे दिया, घेराव समाप्त नहीं किया गया।

विशाल को पढ़कर शांति मिली और उसने सोचा कि जनता ऐसे ही जागरुक होकर सामाजिक कुरीतियों के ख़िलाफ़ खड़ी हो जाए तो काफ़ी सुधार हो जाएँ। और एक बात उसके दिमाग़ में आई कि चाहे लॉटरी हो या शराब बंदी पहाड़ में हमेशा महिलाओं को ही मोर्चा सँभालना पड़ता है। वनों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन भी महिलाओं ने ही शुरू किया था। ऐसा क्यों? वह सोचता ही रहा।

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२४ मई २००५

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