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"चाहे मैं सौ बार में रोड टेस्ट पास करूँ, तुमसे मतलब। तुम्हारी गंदी सूरत तो नहीं देखनी पड़ी न मुझे। न ही तुम्हारी घटिया बातें सुनी मैंने।"
"ये सरकारी दफ़्तरों में काम करनेवाले अपने आप को विशिष्ट समझते हैं। सोचते हैं हमारे हाथ में अधिकार हैं, हम कुछ भी कर सकते हैं। इनके मुँह न ही लगो तो अच्छा।" राजीव ने उसे शुरू में ही समझा दिया था। यही वजह थी कि वह ज़ब्त कर गई। वरना ड्राइविंग सीखते वक्त तो उसके ड्राइविंग टीचर ने इतना ही बतलाया था कि सुबह आकर नाम दर्ज़ कराना पड़ता है और दोपहर में परीक्षा होती है। तब उसे ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि यहाँ इस तरह लंबी लाइन होती होगी ऑफ़िस के सामने और लोग मुँह अँधेरे से लाइन में खड़े हो जाते होंगे। या कि यह सड़क पर गाड़ी चलाने की परीक्षा वस्तुत: दिन भर चलती है, जिसका जब नंबर आए।
जब दस घंटे का ड्राइविंग कोर्स लेने के बाद भी उसने कार समानांतर पार्क करने में दक्षता हासिल नहीं की तो राजीव ने तय किया कि ड्राइविंग टीचर को विदा कर देना चाहिए। इतनी सी चीज़ वह खुद सिखा देंगे। यों भी दस घंटों की ट्रेनिंग के चार सौ डालर बहुत थे।

उसके बाद फिर से उनके झगड़े शुरू हो गए।
राजीव उसे लेकर पार्किंग एरिया में जाते। वह कभी ठीक पार्क करती, कभी ग़लत। राजीव का धीरज छूट जाता। गुस्सा बढ़ता जाता और वह उनसे दुगुना गुस्सा होकर, फिर कभी ड्राइविंग न करने की कसम खाकर लौट आती। फिर महीनों बीत जाते स़ुलह हो जाती। फिर एक दिन ठंडे दिमाग़ से राजीव उसे ले जाते कि इस बार वे गुस्सा नहीं करेंगे। फिर नियंत्रण खो बैठते, फिर वह लौट आती।
सड़क पर कार चलाने का अभ्यास करने के लिए लर्नर लाइसेन्स उसने एक ही बार में लिखित परीक्षा पास करके ले लिया था। उस लाइसेन्स को भी अब साल भर होने को आ रहा था। उसकी समाप्ति की तिथि क़रीब थी। सुनीता की घबराहट अंदर ही अंदर बढ़ती जा रही थी।
वह जब-जब राजीव की डाँट खाकर ड्राइविंग प्रैक्टिस अधूरी छोड़कर घर लौटती तो राजीव पर चिल्लाती, "जब चार सौ डॉलर खर्च किए तो सौ पचास और दे देने में आपका क्या जा रहा था? मैं थोड़ी और प्रैक्टिस करके उसी टीचर से समानांतर पार्किंग भी सीख जाती और फिर ड्राईविंग टेस्ट पास कर लेती।"
"और जाकर गाड़ी कहीं ठोक आती।" राजीव मुस्कराते।
सुनीता की खीझ बढ़ जाती।
"खुद दस सालों से चला रहे हो, ठोका नहीं तो क्या! कितने टिकट मिले हैं, यह तो बताओ?"
राजीव चुप लगा जाते।

वे असावधान ड्राइवर नहीं थे। लेकिन तब भी गति सीमा से अधिक गति से गाड़ी चलाने के लिए उन्हें कई बार ट्रैफ़िक टिकट मिले थे। सुनीता यह बात जानती थी इसलिए ऐसे मौकों पर वार करने से न चूकती। उसे यह बात परेशान भी करती थी। सत्तर मील प्रति घंटा क्या कम गति है कि इन्हें अस्सी नब्बे पर चलाने का मन होता है। लेकिन ऐसे मौकों पर आम तौर पर मौन ही रहती।
उसे ड्राइविंग नहीं आती थी।
पर कटी चिड़िया की तरह वह शादी के बाद घर में कैद हो गई थी। घर जेल लगता। अक्सर ही अत्यधिक कुंठाग्रस्त हो जाती जब लंबे समय तक घर में अकेली रहती। सुबह के निकले राजीव साँझ ढले घर लौटते।
सुनीता दिन भर करे क्या!
अगल बगल रहने वाले स्पैनिश, वियतनामी, अमेरिकन पड़ोसियों से मित्रता थी लेकिन घरों में बैठकर बतकट्टी करने का सुख केवल भारतीयों के बीच मिल सकता था। और इस अजनबी देश के अजनबी शहर में अपने देशवासियों पर भी इतना भरोसा नहीं था कि उनके सामने दिल खोले। और चाहे भी तो उन तक पहुँचे कैसे। कार चलाना तो नहीं आता!
यानी कि पैर नहीं हैं उसके।
अमेरिका की सड़कों पर कार ही पैर हैं।
कहाँ से कब आएँगे पैर?
अभी तो अपने ही पैरों पर भरोसा नहीं है उसे। ब्रेक के बदले एक्सीलरेटर दब जाता है।

उस दिन राजीव के साथ थी। वह आवासीय कॉलोनी थी जहाँ सुनीता प्रैक्टिस कर रही थी। अपनी कॉलोनी से दूर। राजीव के लेक्चर बढ़ते जा रहे थे। सुनीता का धीरज छूट रहा था। जुबान पर सौ-सौ ताले। वह कसम खाकर निकली थी, आज एकदम चुप रहेगी। राजीव की किसी बात का जवाब नहीं देगी। बेकार की बहस से इस इंसान की उत्तेजना और बढ़ती है।
आत्मनियंत्रण की हद करीब थी।
राजीव के अगले आदेश पर उसने गाड़ी को अगली गली में मोड़ा।
"दाहिनी ओर।"
"सिग्नल दो। क्या करती हो!"
"चलाओ चलाओ।"
उसने एक्सीलरेटर पर पैर दबाया।
"रुको, दीखता है सामने क्या है? आँखें खोलकर गाड़ी चलाओ।"
उसने ब्रेक मारा।
"ब्रेक लगाओ।" राजीव चीखे।

घबराहट में उसका पैर वापस ऐक्सलरेटर पर आ गया और वह सँभले इससे पहले गाड़ी सामनेवाले घर के अहाते में जा चढ़ी। घर के ठीक सामने लगी पत्रपेटी अपने लकड़ी के खंभे के साथ धराशाई हो चुकी थी।
तबतक उसे होश आ चुका था। पैर वापस ब्रेक पर थे।
वह पस्त हो गई।
नहीं कभी नहीं। वह कभी भी कार नहीं चला पाएगी।
"गाड़ी तोड़ो। इस घर के मालिक को लेटरबॉक्स तोड़ने का हर्जाना दो।" राजीव चीख रहे थे। खै़रियत थी कि वह दोपहर का वक्त था। कोई आस पास नहीं था। सड़क भी सूनी-सी। राजीव चुपचाप गाड़ी निकाल ले गए।
उस दिन के बाद राजीव ने कभी भी उसे ड्राइविंग सिखाने की बात नहीं की।
वह चुपचाप घर में घुटती।
कंप्यूटर पर उपलब्ध हिंदी की पत्रिकाएँ पढ़ती।
उसे इस पराए देश से कोई प्यार नहीं था।
न यहाँ के रहनेवालों से।

इस देश की व्यवस्था को वह ज़रूर प्रशंसा भरी नज़रों से देखती। साफ़-सुथरी सड़कों को सराहती। दो सालों के अंदर ही उसने पूरा अमेरिका देख लिया था। राजीव को ड्राइविंग का शौक था। वह उसे लेकर हवाई जहाज़ से भी कहीं जाते तो दो शहर पहले तक का टिकट बुक करते। फिर भाड़े की कार लेकर तमाम दर्शनीय स्थलों की सैर कराते।

यहाँ यह सब सहज सुलभ, संभव था। तब भी वह उस तरह खुश नहीं हो पाती जैसी राजीव को अपेक्षा थी। लगातार कार में बैठे-बैठे उसके पैर दुखते, कमर दुखती। हर अगले विश्राम स्थल पर कार से उतरकर वह टहलती। पानी पीती। पानी की बोतल भरने का बहाना हो या फिर कुछ खा पी लेने का, वह उतरती ज़रूर। तब भी ज़िंदगी बँधी-सी लगती। हर वक्त, हर हाल में। कोई स्वतंत्रता नहीं। किसी चुनाव की स्वतंत्रता नहीं। स्वतंत्रता की कीमत पर व्यवस्था।
व्यवस्था जिसमें वह है राजीव की पत्नी।
घर के सारे काम सँभालती, घर के अंदर बंद।
जैसे कार की अगली सीट पर सीट बेल्ट से बँधी।
उसकी सीमा कार के बाहर दो कदम चलने तक की है। जैसे वह शाम को खाना खाकर अपने सबडिवीजन में थोड़ा चक्कर काट लेती है। वहाँ तक, जहाँ तक वह चलकर जा सकती है।
और वह दूरी बहुत थोड़ी है!

पहले दूरियों का भी अंदाज़ा नहीं था उसे। राजीव के साथ वह कार में बैठती। एक, दो, तीन सिगनल गिनती और सार्वजनिक पुस्तकालय का मोड़ आ जाता। उसे लगता, लाइब्रेरी तो बहुत नज़दीक है। एक दिन उसने खुद राजीव से प्रस्ताव किया, वह लाइब्रेरी जाया करेगी। वहाँ पढ़ने को बहुत कुछ है। इन दिनों वह अपने लिए कंप्यूटर पर टीचिंग जॉब ढूँढ़ती रहती है। अपने विषय के संपर्क में बने रहना बुद्धिमानी होगी। इंटरव्यू देना आसान हो जाएगा। जान सकेगी यहाँ क्या, कैसे पढ़ाया जा रहा है।
राजीव को उसकी बात जँची।
उन्होंने कहा, "ठीक है। मैं तुम्हें लाइब्रेरी छोड़ दूँगा। तुम वापसी में 108 नंबर की बस ले लेना। वह बस क्रोगर तक पहुँचाएगी। वहाँ 94 मिलेगी। उससे कॉलोनी के मोड़ तक पहुँच सकती हो। वहाँ से थोड़ा पैदल चलकर घर तक पहुँच जाना। दो डालर लगेंगे। ठीक है?"
उसे मन ही मन हँसी आई। प्रकटत: उसने सहमति में सिर हिलाया। इतना तो वह कर ही सकती है। बल्कि वह बस के लिए क्यों रुकने लगी। तीन सिगनल पैदल नहीं चल सकती। युनिवर्सिटी से घर पैदल चली जाती थी कितनी बार। इतनी दूर था तब भी!
राजीव को उसकी सोच का अंदाज़ा नहीं था।
वह उसे लाइब्रेरी छोड़ कर चले गए।

वह शुरू में थोड़ा घबराई, फिर सुस्थिर मन से किताबों की दुनिया में खो गई। शीशों से छनकर धूप जब उसकी टेबल पर आने लगी तो उसने चौंक कर महसूसा कि शाम हो गई है। अपनी योजना के मुताबिक वह सड़क पर निकल आई। राजीव के लौटने से पहले घर पहुँच जाएगी वह। बाहर की खुली हवा उसे अच्छी लगी। वह आज़ाद महसूस कर रही थी। अपने पाँवों से दूरियाँ नाप रही थी।
जल्दी ही सड़क पर चलती गाड़ियों का शोर उसके कानों के पर्दे फाड़ने लगा। कार के अंदर बैठे हुए उसने कभी इस शोर को नहीं महसूसा था। शाम हो चुकी थी। सामने पार्क के अंदर चहलकदमी कर रहे लोगों की भीड़ थी। लेकिन सड़क पर पैदल चलने वाला उसके अतिरिक्त कोई नहीं था। सड़क नहीं, सड़क किनार की घास पर चल रही थी वह। आती जाती गाड़ियों से बचती बचाती। फुटपाथ था ही कहाँ!
थोड़ी ही दूर चलकर उसे अपनी बेवकूफ़ी का अहसास होने लगा। जो सिगनल इतने पास लगते थे वे अब बहुत दूर नज़र आ रहे थे। कार ४५ मील की गति से चलती थी और वह! लेकिन 108 का स्टॉप पीछे छूट गया था।

गुज़रती गाड़ियों से लोग उसे घूरकर देखते। पहले सुनीता को लगता था इस देश में कोई किसी पर ध्यान नहीं देता। तुम जो चाहो करो।
108 उसके सामने से गुज़र गई। सुनीता तब तक अगले स्टॉप तक ही पहुंच लेती तो बस में चढ़ जाती लेकिन उसके वहाँ पहुँचने तक तीन बसें और गुज़र गईं। पैर दर्द से तड़क रहे थे। वह कुछ देर अनिश्चय की स्थिति में खड़ी रही। वहाँ भी उसके साथ को कोई नहीं था। अगली बस कब आएगी किससे पूछे? थोड़ी देर में ही धीरज जवाब दे गया। इससे तो अच्छा वह चल ही लेती!
उस दिन घर पहुँचने तक अँधेरा घिर आया। राजीव उससे पहले घर वापस आ चुके थे। लाइब्रेरी के चक्कर लगाकर और आस पास उसे ढूँढ़कर। बेचैनी और गुस्सा दोनों चरम पर। उसने उन्हें मोबाइल पर सूचित क्यों नहीं किया, इसका हिसाब माँगा गया। उसके पैदल चलने की तुलना गांधी जी के डांडी मार्च से की गई और सुनीता फिर से घर में बंद हो गई।
"मैं आठ बार में रोड टेस्ट में पास हुआ था। मैं समझता हूँ इतना अच्छा रिकार्ड शायद ही किसी का रहा होगा। हो, हो। स्टैनफर्ड युनिवर्सिटी का छात्र रह चुका सर्वेश सक्सेना ठहाके लगा रहा था। "लेकिन बीस सालों से गाड़ी चला रहा हूँ, कभी टिकट नहीं मिला। ये हुई न बात। यों भी आप अमेरिका आते हैं तो यह समझी हुई बात है कि आपको कार तो चलानी है। नए सिरे से जनम होता है आपका इस देश में। सोशल सिक्योरिटी नंबर, ग्रीन कार्ड और ड्राइविंग लाइसेंस। सोशल सिक्योरिटी नंबर मिला तो आप इस देश में पैदा हुए। ड्राइविंग लाइसेंस मिला तो चलना आ गया। बोल, ग़लत कह रहा हूँ?"

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