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प्रणव बैनर्जी को याद आया कि जब एक बार पहले भी कभी, दुर्गा माँ पूर्ण शृंगार के साथ, मिष्ठान भंडार पर लेटी, सपने में अवतरित हुई थीं और अपने ही नाम पर घर का नामकरण करने की सलाह दी थीं, तो भी बस वही एक बात कही थी माँ ने उनसे। बस यही कहा था तब भी तो, कि देख मैं तो हमेशा ही तेरे आस-पास हूँ, पर तू ही ध्यान नहीं देता मुझपर। तब भी तो बस उनकी आस्था को ही झकझोरा था माँ ने। आख़िर कौन हैं यह माँ -- गौरी, अंबा, दुर्गा, महाकाली? वह तो पूजा पाठ में विश्वास नहीं करते फिर माँ दुर्गा कभी शेर पर तो कभी सुअर पर, कभी गधे पर, तो कभी भैंसे और कभी हँस, हाथी, मयूर पर चढ़कर क्यों आ जाती हैं उनके पास? यों सपनों में बार-बार आना -- दर्शन देना आख़िर क्या चाहती हैं माँ उनसे? पहली बार तो नहीं हुआ यह कि माँ सपने में आईं, इसके पहले भी कम से कम दो तीन बार तो आ ही चुकी हैं माँ? याद है उन्हें कि कैसे खुशी की एक लहर दौड़ गई थी पूरे बदन में, शांति मिली थी उन्हें माँ के दर्शन से। परंतु आज तो मन बस उद्वेलित ही था -- अनजाने अशुभ की आशंका से काँप रहा था।

माँ कृशकाय, बेहद दयनीय रूप में, सूखे, सफ़ेद बालों को हवा में लहराती, पिछवाड़े आँगन में अति सूक्ष्म रूप ले प्रकट हुई थीं और हवा की सरसराहट सी गुज़र गई थीं उनके आँखो के आगे से। उनकी तरफ़ देखते-देखते, उसी पथरीली और सख्त़ ज़मीन पर बेचैन तेज़ी से लुढ़कती, पलट-पलटकर परिक्रमा लेती माँ पल भर में ही अदृश्य भी हो गई थीं - क्यों ये सपने इतने अस्पष्ट और धुँधले होते हैं? झुँझलाहट हो रही थी उन्हें खुदपर, सपना टूट जाने पर। कृशकाय और दरिद्र -- बूढ़ी कमज़ोर माँ। मारकीन की मैली कुचैली काली किनारी की धोती में लिपटी हुई, लिपटी क्या खोई हुई। कोई शृंगार नहीं और झुर्रियों भरे हाथों में त्रिशूल और पोपले होठों पर एक रहस्यमय मुस्कान, आधी खुली आँखों से एकटक उन्हें ही देखती हुई? आख़िर क्या अर्थ हो सकता है इस स्वप्न का? क्या कहना चाह रही थीं वह-- कैसा रूप था यह माँ का - बेटे की आस्था की परीक्षा ले रही थीं या फिर वह बस अवहेलना कर रही थीं उसकी, दंड देना चाहती थीं उसे? धिक्कार रही थीं पुत्र के कर्तव्य का दायित्व ठीक-ठीक न निभाने के लिए -- दूर-दूर रहने के लिए?

वैसे तो बुद्धिजीवी और विख्यात मनोचिकित्सक प्रणव बैनर्जी दुनिया की नज़रों में प्रमाणित और सही या गल़त समझे जाने वाले किसी भी मुद्दे की कभी परवाह ही नहीं करते थे परंतु हाड़ माँस के एक इंसान थे वह भी तो, और माँ के दुख-सुख से तो हर बेटा ही विचलित हो जाता है फिर वह ही कैसे अपवाद रह पाते?
पचास साल की इस लंबी उम्र में भलीभाँति जान गए थे वह भी कि सारा खेल मन का ही तो होता है। यह मन ही तो है जो अंदर ही अंदर एक संसार रचता है और फिर भरमाता है। उनके मतानुसार हर मन के अंदर सही ग़लत की एक अपनी ही अलग दुनिया है, हर व्यक्ति खुद ही अपराधी और निर्णायक भी स्वयं ही होता है अपना। और अपनी किसी भी दुख या आपदा से तबतक नहीं उबर सकता, जबतक कि खुद ना चाहे।

सब जानते और समझते हुए भी, अक्सर ही बेचैन हो उठना, किसी अनजाने और खोए को ढूँढते रह जाना, उसी में उलझे रह जाना, मानो एक आदत-सी पड़ती जा रही थी यह उनकी। परंतु यह भी तो जानते थे वे कि दुनिया या विद्वान कुछ भी कहें, कोई नहीं समझ पाया कभी अबूझ इन रहस्यों को। एक अकेला वह ईश्वर ही है जो जानता और समझता है सबकुछ। पूजा-पाठ ही नहीं, उन जैसों की आडंबरहीन सहजता को भी समझता है वह तो। वैसे भी, खुदपर बाँधे अनगिनत संयम और नियमों का अँधेरा भी तो उतना ही भटका सकता है जितना कि अज्ञान का? क्या समझता और माफ़ नहीं करता वह -- हमारी कमज़ोरियों को, क्रूर और अबोध हर तरह के अपराधों को, राग द्वेष के हज़ार विकारों के - आख़िर उसी का रचा तो है यह संसार? अगर ग्लानि और पश्चाताप के आँसुओं से मन निर्मल करना हम सीख लें, तो बस प्रकाश ही प्रकाश है चारों तरफ़। विद्वानों का ज्ञान ही नहीं, प्यासे मन की ज़रूरत और तड़प तक जानता है वह तो। फिर कैसी यह बेचैनी और उलझन? दंड देना ही नहीं, प्यार करना भी आता है उसे। तभी तो बार-बार ही भिन्न-भिन्न रूपों में आगाह और आवाज़ देती है माँ। जानते थे वे कि डरने की कोई ज़रूरत नहीं उन्हें, ना ही इस दुनिया में और ना ही उस दुनिया में। माना कि विधिवत कभी कोई पूजापाठ नहीं की थी उन्होंने, परंतु जानते थे वे कि कभी कोई ऐसा काम भी तो नहीं किया, जिसकी वजह से आत्मा कचोटें या कष्ट दें और फिर यह आत्मा ही तो परमात्मा है। चलो पल भर को मान भी लें कि आत्मा परमात्मा नहीं, अलग है, पर हैं तो आख़िर उसका ही अंश? "एको अहं, सर्वो अहं" पढ़ा ही नहीं, जिया भी था उन्होंने तो। प्रणव भास्कर बैनर्जी के होठों पर एक निरासक्त हँसी बिजली-सी कौंधी और बहते आँसुओं में विलुप्त हो गई - इतना अकेला और सूना क्यों हैं यह संसार- क्यों इतनी लाचार है "अहं ब्रह्मास्मि" का वेदमंत्र देती और पढ़ाती यह दुनिया?

प्रणव ने घड़ी देखी सुबह के पाँच बज चुके थे। परदे खोल दिए। कमरा उजाले से भर गया। याद आया आज तो महालय का दिन है, अर्थात हफ़्ते भर में ही नवरात्रि शुरू। सोच की उमंग मुक्त नर्तन करने लगी। फिर तो अब नव दुर्गा के स्वागत में लग जाएगा पूरा का पूरा बंगाल, बंगाल ही क्या पूरा भारत ही, गुजरात, पंजाब सब। सारी व्यस्तताओं के बाद भी उनका मन अक्सर ही भारत में ही रमा रह जाता। शरद ऋतु की वह गुलाबी ठंड और पूजा का जोश और उत्साह -- अश्विन मास के नव चंद्र का भव्य स्वागत करने वाली यह प्रथा बहुत ही प्यारी लगती है उन्हें। यों तो अश्विन और चैत्र, साल में दो बार माँ आती हैं, परंतु दशहरे से जुड़ जाने के कारण शरद की यह छटा कई गुना ज़्यादा हो जाती है। कहीं हँसी कहकहे, तो कहीं सुंदरियों और किशोरियों के रेशमी कपड़ों की सरसराहट। नई नवेली चूड़ी व पायलों की खनक। बच्चों के लिए कोने-कोने मिठाई, कपड़े, खिलौने सभी कुछ- चारों तरफ़ बस उल्लास ही उल्लास। हज़ारों बड़े बूढ़े और बच्चे- मानो खुशी से उमड़ पड़ता है पूरा शहर। भारत ही क्यों यहाँ ब्रिटेन में भी तो होती होगी देवी पूजा? वक्त मिला तो जाते ही रहेंगे वह भारत इसी वक्त, इसी महीने। एक वादा कर लिया था उन्होंने खुदसे भी और अपने भारत से भी।

मात्र याद करते ही एक अनोखी पुलक से भर गया मन। कभी वे भी गौरी के साथ सुबह शाम तीनों दिन ही पूजा के पंडाल पर जाते थे। नौ दिन बस पूजा पाठ, खाना पीना और सांस्कृतिक कार्यक्रम। वह धनुचि नृत्य-- ढोल मृदंग पखवाज़, शंखनाद में मिलकर बहती धूप, गूगल, कपूर और चंदन की महक, जो कपड़ों और बालों में ही नहीं आत्मा तक में रची बसी है - आज भी याद है उन्हें सबकुछ। माँ दुर्गा के बीसों रूपों की भव्य पूजा होती हैं इन नौ दिनों में। तीन दिन दुर्गा के अंदर के विकार नष्ट करने के लिए। फिर अगले तीन दिन लक्ष्मी के, उनकी कृपा और समृद्धि के लिए। और अंतिम तीन दिन माँ सरस्वती के, ज्ञान अर्जन के लिए। और फिर माँ की विदाई। साल में बस इन्हीं नौ दिन के लिए ही तो आ पाती है माँ अपने मायके। उनके परदादा के दादा शिरोमणि ने ही तो बनवाया था वह दुर्गा माँ का भव्य मंदिर, और वह भी, उसी स्थान पर जहाँ पर माँ प्रकट हुई थीं। तभी तो आजतक माँ की कृपादृष्टि है उनके परिवार पर।

साफ़ स्वस्थ होकर, संयम व शांति लेकर ही तो मन ज्ञान अर्जन के लायक हो सकता है, इतनी-सी बात तो देवी की पूजा के बिना भी, बचपन से ही जान गए थे वह। सोलह वर्ष की नाजुक उम्र में ही पहली बार दर्शन दिए थे माँ ने बुद्धिजीवी प्रणव को। अपने रथ पर सवार माँ ने हज़ारों की भीड़ में से एक उसी को तो चुना था और वह आशीश माला पुजारी द्वारा फेंके जाने पर, सीधे उसी के गले में तो आकर गिरी थी। पता नहीं माँ के आशीश का फल था या फिर उससे उत्पन्न आत्मविश्वास और मेहनत का कि अपने स्कूल या शहर में ही नहीं, पूरे प्रांत में उच्चतम अंक आए थे प्रणव बैनर्जी के। माँ-बाप, परिवार, विद्यालय और गुरुजन, सबका ही सीना गर्व से तन गया था।

ऐसा नहीं कि पूजा में आस्था नहीं थी, अच्छा लगता था उन्हें माँ का शृंगार और असुर महिषासुर का मर्दन। सत्य की असत्य पर विजय। बस अष्टमी के दिन दी गई बलि को नहीं स्वीकार पाते थे सुकुमार भावुक प्रणव। ना ही बकरे की और ना ही प्रतीकात्मक दिए गए कुम्हड़े की बलि। कोई भी अच्छी नहीं लगती थी उन्हें। कोई न्याय संयम या बलिदान और त्याग की भावना नहीं जगा पाती थी यह प्रथा उनके अंदर। इस प्रथा को छोड़कर सबकुछ अच्छा लगता था उन्हें नवरात्रि और माँ के बारे में -- सैंकड़ों देवी माँ के रूपों और पौराणिक कथाओं के बारे में सबकुछ जाना था उन्होंने भी।

कैसे कभी बालरूप में तो कभी रमणी रूप में दर्शन देती आई हैं माँ अपने भक्तों को, पता था उन्हें भी। जन्माष्टमी से ही तैयारी शुरू हो जाती थी दुर्गा पूजा की। और यह महालय का दिन जिस दिन माँ अपने ज्ञान चक्षु खोलती हैं उन्हें विशेष रूप से ही भाता था। ज्ञान की एक अतृप्त भूख जो थी उनके जिज्ञासु मन में।
महालय यानि कि माँ दुर्गा की अधगढ़ी मूर्ति की चक्षुदान का दिन। पूर्वजों को याद करने और तर्पण का दिन। मन एक बार फिर बेचैन हो उठा- आख़िर क्या चाहती है माँ उनसे - क्यों देखा उन्होंने विचलित करने वाला माँ का यह रूप, वह भी आज के दिन, कौन से नेत्र खोलना चाहती हैं माँ? क्या आज ही भारत जाना चाहिए उन्हें, हफ़्ते बाद तो जा ही रहे थे वह। पिछले तीस साल से एक आध वर्ष को छोड़कर हर दुर्गापूजा पर बनारस के दुर्गा कुंड वाले अपने घर में ही तो होते हैं वे। पूरा दिन यों ही, एक उहापोह में निकल गया। डॉ. प्रणव बैनर्जी का मन आज मरीज़ों में नहीं लग पा रहा था। किसी भी मन की गुत्थियाँ नहीं सुलझा पा रहे थे वे, क्यों कि खुद उनके अपने मन में एक गाँठ लग चुकी थी अब।

रात खाना खाने के बाद पत्नी और बच्चों के साथ ड्राइंग रूम में बैठकर टी.वी. देखने के बजाय अकेले स्टडी में बंद कर लिया था प्रणव ने खुद को। हाथों ने मजबूरन, जाने किस याद की उँगली पकड़ें, पास पड़े काग़ज़ पेंसिल उठा लिए थे और बेचैन उँगलियों ने स्केच बनाना शुरू कर दिया था। हमेशा की तरह एकबार फिर आज तस्वीर के नाम पर वही दो हृदय-भेदी रहस्यमय आँखें उभर आईं थीं उस सादा सफ़ेद काग़ज़ पर। आँखें जो हूबहू गौरी की याद दिलाती थी उन्हें-- आँखें जिनकी गुत्थियों में प्रणव तरुणावस्था से ही पूरी तरह से डूब चुके थे, आँखें जो आजतक, छह हज़ार मील दूर बैठकर भी पीछा करती रहती हैं उनका।
"यह तुम आँखें ही पहले क्यों बनाते हो प्रणव? हमलोगों की तरह चेहरे का बाहर का आकार क्यों नहीं?" गौरी ने भी आख़िर एक दिन पूछ ही डाला था उनसे।
"क्यों कि आँखों के सहारे ही किसी के मन या आत्मा में उतरा जा सकता है गौरी। उसे पढ़ा जा सकता है।" और तब उनकी सहपाठिनी, बरसों से ही, वहीं दुर्गा कुंड पर, पड़ोस में रहने वाली गौरी प्रियदर्शिनी डर गईं थी। भावों की तीव्रता से भी और उनके सोचने के तरीकें से भी। न जाने क्या सोचकर तब न सिर्फ़ दोनों हाथों से चेहरा छुपाकर आँखें बंद कर ली थीं उसने, अपितु चुपचाप सर झुकाए वहाँ से तुरंत ही चली भी गई थी वह - मानों प्रणव हमउम्र नहीं, एक जादूगर थे और उनके आगे कुछ पल और रुके रहने से सारे भेद खुल जाने का अंदेशा था उसे। क्या छुपा रही थी गौरी उनसे, यह तो प्रणव बरसों बाद ही जान पाए थे, मन को पढ़ने का जादुई तिलिस्म जो नहीं आता था उस वक्त। और तब पहली बार प्रणव ने गौरी की वे शर्मीली झुकी आँखें काग़ज़ पर उतारी थीं। उसके बाद तो अक्सर ही वे आँखें स्केच पैड पर उभरी आतीं और बात करने लगतीं उनसे - बातें जो घंटों पेंटिंग स्कूल में साथ-साथ रहते हुए भी वे एक दूसरे से कह या सुन नहीं पाते थे। हाल यह था कि प्रणव पूरे हफ़्ते मेडिकल स्कूल में अपने लेक्चर्स में बैठे-बैठे ही वह सब बातें दोहराने लगते जो उन्हें शनिवार को गौरी से कहनी होती थीं और वह जो गौरी के आते ही, उसके सौम्य रूप को देखते ही, भूल जाया करते थे वे। एक अकथ सुख में डूबे, घंटों बिना कुछ कहे, बगल में बैठे रह जाते थे वे। शब्दों का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता था तब और ना ही अनकहे अर्थों के लिए उपयुक्त शब्द ही।

सभी पहचान गए थे इस राग-अनुराग -- अनकही प्रीत को। प्रणव के डाक्टर बनते ही गौरी की माँ खुद ही रिश्ता लेकर आ गई थीं और तब ज्योतिषाचार्य किशन देव की बेटी ज्योतिर्मयी ने गौरी की कुंडली चुपचाप वापस लौटा दी थी। यह कहकर कि जिसके सातवें घर में मंगल और शनि बैठें हों, काल सर्प योग हो, ऐसी कुलच्छिनी को कैसे अपनी बहू बना सकती है वह -- आख़िर एक ही तो बेटा है उनका। और तब अपनी बचपन की सहेली कावेरी की बेटी नंदिता से तुरंत ही शादी रचा दी थी प्रणव की। मद्रासिन की बेटी का अशुभ ख़तरा सर पर मंडरा रहा था उनके बंगाली ब्राह्मण परिवार पर और ख़तरों को न्योता देने की आदत नहीं थी ज्योतिर्मयी बैनर्जी की।

"सूरत शक्ल पर मत जा। देखने में ही भोली लगती है वह बस। देखना शादी के बाद दो बरस भी पति रह पाए तो बहुत समझना।" अस्सी घाट पर पुजारी के टूटे और आधे पानी में तैरते पुराने पट्टे पे आँखें बंद किए लेटे बेटे को समझा लिया था उन्होंने अपने असंगत तर्क-वितर्कों के साथ -- बिना परवाह किए या देखें कि कैसे शाम का अँधेरा गंगा की छाती पर ही नहीं, बेटे के मुँह पर भी फैल चुका था और वह सुर्ख सूरज आँसू भरी आँखों को अपनी ही पलकों में छुपाए चुपचाप ही बहती नदी तक को ले डूबा था। बात वह यों ही आई गई हो जाती, अगर दो बरस बाद ही एकबार फिर से मुलाक़ात न हो जाती गौरी से उनकी।

नंदिता को लेने ससुराल गए थे प्रणव। वहीं कमच्छा की चौमुहानी पर ही थी प्रणव की ससुराल। सामने ताज़े संतरों को देखकर गाड़ी रुकवा ली थी उन्होंने। अकेले ही उतर गए थे वह, साल भर के बेटे तन्मय को गाड़ी के अंदर ही सोता हुआ छोड़कर। लौटे तो हाथों के तोते उड़ गए। बेटा नहीं था गाड़ी में। मिनटों में ही पूरी दुनिया घूम गई थी। अब किससे पूछें, क्या करें, सोच ही रहे थे वह, कि किसी ने बताया कि सामने के घर में रहने वाली महिला ले गई हैं बच्चे को यह कहकर कि बच्चे के माँ बाप आएँ तो, वहाँ सामने उस घर पर भेज देना।

धड़कते मन से दौड़े थे घर की तरफ़ वह और दरवाज़े पर ही पत्थर का बुत बन कर जम गए थे। सामने दरवाज़े पर रंजन शास्त्री का नाम पत्र था और तन्मय को गोदी में लिए खुद गौरी खड़ी थी उनके आगे-- बंगाली लाल बॉर्डर की सफ़ेद साड़ी से सर ढके और चमकते लाल सिंदूर से माथे के बीचोबीच निकली लंबी पूरी माँग भरे हुए। कानों में दुहरे झूमर वाले सोने के झुमके और गले में मंगलसूत्र और हाथ भर-भर कर हाथी दाँत के लाल हरी नक्काशी वाली चूड़ियाँ और चाँदी का कड़ा। गोरे सुंदर माथे पर सूरज-सी चमकती सिंदूर की वह बिंदिया-- पल्लू से बँधा बाएँ कंधे पर झूलता ताली का गुच्छा-- बंगालिनों से ज़्यादा बंगालिन लगी थी वह मद्रासन उन्हें।

"आओ भास्कर, अंदर आओ।" मानो प्रणव को कहीं पीछे छोड़ आई थी वह, हाँ इसी नाम से पुकारा था उस वक्त उन्हें। प्रणव ख़ामोशी से देहली लाँघकर अंदर आ गए थे। मन में होती उथल-पुथल से काँपते घुटनों को बैठने की, सहारे की सख़्त ज़रूरत महसूस हो रही थी। कुछ भी पूछ पाएँ वह, इससे पहले ही लुंगी बाँधते, रंजन दा आ गए थे बैठक में, "कब आए प्रणव तुम?" रंजन दादा गौरी से ज़्यादा सहज लग रहे थे उस वक्त। कम से कम उसी पुराने प्रणव नाम से तो पुकारा था उन्होंने उसे। एक ही झटके में पूरा अतीत, सारी पहचान झुठलाई तो नहीं थी।
"मैं तो तुम्हारे बेटे को देखते ही समझ गया था कि यह प्रणव का ही बेटा है- वही रूप रंग सबकुछ ही तो तुमपर गया है। मैंने ही गौरी से कहा था कि अंदर ले चलो बच्चे को, यहाँ घर में आराम से सोएगा। आख़िर हम भी तो कुछ लगते हैं इसके।"

सब कुछ ही चुभ ही रहा था प्रणव के मन में- जो सहज था वह भी और जो असहज होने के कारण अनदेखा नहीं कर पा रहा था वह, वह भी। झुकी आँखों से ही एकबार फिर गौरी के मन को पढ़ना चाहा उन्होंने, पर वह तो बेल के शरबत से भरे दोनों गिलास मेज़ पर टिका, बेटी के साथ मग्न खेल रही थी। गोदी में खेलती छह महीने की वैदेही माँ सी ही सुंदर थी।
"किस्मत वाले हो भास्कर तुम, जो तुम्हारा बेटा पसंद आया इन्हें। हँसकर बोली थी वह (प्रणव नाम न लेने की मानो कसम खा ली थी उसने) "मेरी वैदेही में तो पेंटिंग की तरह नुक्स निकालते रहते हैं ये। (उसके मुँह से निकला 'ये' शब्द सहज होते हुए भी अंदर तक बींध गया था प्रणव को) "नाक नक्श तो बहुत अच्छे हैं गौरी, बस रंग में ज़रा सफ़ेद और मिलाना भूल गईं हो तुम।" रंजन दादा ने बीच में ही उसकी बात काटते हुए कहा और फिर तो उनके खुद के हँसी ठहाकों से पूरा कमरा गूँजने लगा। यह वही रंजन दा थे जो गौरी और प्रणव को अपने सबसे ज़्यादा होनहार शिष्य समझते थे। शांति निकेतन की परंपरा के अनुसार गुरु श्री नंदलाल बोस से व्यक्तिगत रूप में मिलाने ले गए थे उन दोनों को। कितना आदर करते थे प्रणव और गौरी भी उनका। रंजन दा की हर बात ब्रह्म वाक्य थी। दादा द्वारा परोसे गए किसी तिरस्कार, किसी अपमान या डाँट का कभी बुरा नहीं माना था गौरी और प्रणव ने। उस दिन भी नहीं, जब गौरी से दादा ने माँ की प्रतिमा बनाने के लिए शीशे के आगे नग्न होकर खुद ही को स्केच करने को कहा था। और गौरी ने वैसा ही किया भी था। दादा को दिखाते समय कोई शरम या विकार नहीं उठा था उस किशोरी के मन में - ठीक भी तो है माता-पिता गुरु और ईश्वर से कैसा परदा-- इन्हीं के हाथों से तो हमारी संरचना और भरण-पोषण हुआ है। पल भर में ही प्रणव ने पढ़ लिया था उसके पारदर्शी मन को। पर उसकी नज़र जब स्केच पर गई थी तो पूरी बीर बहूटी हो गई थी वहीं गौरी और यह देखकर अच्छा लगा था प्रणव को। उसका पुरुषत्व भी तो सचेत हो उठता था गौरी के टमाटर से लाल गालों को देखते ही पर आज कितना बदल गया है सब कुछ- कोई भाव नहीं आए-गए थे गौरी के शांत चेहरे पर। एक शादी मात्र ने कितनी दूरी ला दी थी उन दोनों के बीच। चिढ़ हो रही थी उसे सामने बैठे गौरी के पति से।

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