मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


2

कॉलेज की पढ़ाई अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि एक दिन नासा वाले उसे गोडार्ड स्पेस सेंटर में वैज्ञानिक के रूप में काम करने का ऑफ़र दे गए थे, जहाँ वह अब भी, जबकि उसके कई सहपाठी नौकरियाँ बदल-बदल के आज भी कोई स्थायी ठौर ढूँढ़ रहे थे, नासा में ही तरक्की कर रहा था, छह अंकों में वेतन पा रहा था और अपने माँ-बाप के घर के निकट अपने अलग फ़्लैट में रह रहा था।

उसके माँ-बाप मुंबई के एक कुलीन परिवार से थे और अमेरिका के मेरीलैंड राज्य की एक उच्च मध्यवर्गीय आबादी में रहते थे। ऐसा भी नहीं था कि लड़कियों ने जय को पसंद न किया हो। उसमें ग़ज़ब की विनोदप्रियता थी और जिस किसी को भी उसने 'डेट' किया, चाहे वह शालिनी थी या सुशीला, वह उसकी वाकपटुता की कायल भी हुई, उसकी बातें सुन बेसाख्ता हँसती रही। हर बार जय को लगता कि जो लड़की उसकी बातों पर नारी-सुलभ शील-संकोच भुला कर खुल कर हँस रही है वह उसके साथ विवाह करने से इंकार क्यों करने लगी? लेकिन अंत उसी एक वाक्य पर होता. . .क्या हम दोस्त बने नहीं रह सकते?

कभी-कभी जय को लगता कि जिस कमी की वजह से वह ठुकराया जाता रहा है, शायद वह है उसका नाटा क़द और उसका लड़का-लड़का-सा दिखना। उसका कद मुश्किल से पाँच फुट था। 16 -17 साल की उम्र तक उसे लगता रहा था कि उसका क़द एकाएक बढ़ेगा। वह एक दिन सुबह सो कर उठेगा और पाएगा कि वह पाँच फ़ुट पाँच-छह इंच तक पहुँच गया है। कइयों का क़द अचानक 16- 17 वर्ष में बढ़ने की बातें उन्होने सुनी थीं। दीवार के साथ सिर सटा कर, सिर का कभी अगला और कभी पिछला भाग ऊपर कर के उसने दीवार पर पेंसिल का निशान लगा कर अपना कद कई बार मापा था लेकिन वह दो-तीन मिलिमीटर ही अधिक हो पाता। हार कर उसने यह हक़ीक़त स्वीकार कर ली थी कि वह पाँच फ़ुट है और इतना ही रहेगा। उसे अपने नाप के वस्त्र दूकानों के 'मैन्स सैक्शन' की बजाए 'बॉयेज़ सैक्शन' में मिलते थे। चेहरे पर उसने किनारों से ऊपर ऊठी लंबी मूँछ रख रखी थी ताकि वह अपने सहयोगियों को बच्चा-बच्चा-सा न दिखे, जिस कोशिश में वह काफ़ी हद तक सफल था। वह सोचता कि वह इतना ठिगना भी नहीं था कि कोई लड़की उससे विवाह करने से मना कर दे, और यह तथाकथित कमी उसके अन्य गुणों पर भारी पड़े। लेकिन कामाक्षी कृष्णन से, जो भरतनाट्यम नृत्यांगना थी, मुलाक़ात करने के बाद उसे यकीन-सा होने लगा था कि वह कद से मार खा रहा है। उसने विनम्रतापूर्वक कामाक्षी कृष्णन से पूछा था, "तुम कहती हो तुम मुझे पसंद भी करती हो, तुम्हें हमारा परिवार, मेरे माँ-बाप, भाई-बहन, मेरी नौकरी, मेरी बातचीत, सब पसंद है, तो फिर वह कौन-सी बात है जो तुम्हें मेरे साथ शादी करने से रोक रही है?"
कामाक्षी, अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से उसे देखती रही थी, पर उत्तर देना टाल गई।
उसने पूछ ही लिया, "क्या तुम मेरे नाटे कद के कारण मना कर रही हो?"
कामाक्षी ने भरतनाट्यम की शंकिता भंगिमा अपनायी, मुँह से निकला, "नो ओ..आ आं।" जिस तेज़ी से कामाक्षी ने प्रतिवाद किया था, उसमें कहीं 'हाँ' की ध्वनि भी थी।

अगर उसका क़द कुछ उन्नीस रह गया था तो उसमें उसका क्या दोष? वह जो है जैसा है उसकी जीन्स की बदौलत है। जय का कद उसके पिता पर गया था। उसके पिता छोटे कद के थे, माँ उनसे लंबी थीं। दोनों को देखकर उसे कभी ऐसा नहीं लगा था कि पिता जी के छोटे क़द को लेकर उसकी माँ के मन में कोई गाँठ है, उसके उलट दोनों में बहुत प्यार नज़र आता।

उस दिन वह अपने फ्लैट में अपने पलंग पर लेटा टेलीविजन देखता हुआ सोच रहा था कि वे लोग कितने खुशकिस्मत थे जिनके माँ-बाप बच्चों की शादी पालने में ही तय कर दिया करते थे, बाद में कौन लंबा निकलता है कौन ठिगना, यह कोई मुद्दा ही नहीं था। फिर उसे ख़याल आया कॉलेज की उसकी सहपाठिनी लिंडा जैकसन से उसकी शादी हो सकती थी। वह उससे लंबी थी, लेकिन जय का कद उसके लिए कोई मुद्दा नहीं था। पर जय की माँ अड़ गई कि जय को विवाह भारतीयमूल की लड़की से ही करना होगा। अगर लड़की अमेरिका में न मिली तो वह भारत से लाई जाएगी। इसलिए लिंडा से शादी होना रह गया।
तभी टेलीफ़ोन की घंटी बजी। माँ थीं। और इस बार भी इधर-उधर की दो चार बातें करने के बाद उनकी वही टेक, "बेटा, एक लड़की है. . ."
इससे पहले की वह बात पूरी करतीं, उसने बीच में ही टोक दिया, "मां!" जिसका मतलब था फिर वही राग। माँ जब उस पर भी बोलती गईं तो उसने खीज कर कहा, "मैं आपको इतनी बार समझा चुका हूँ कि कोई दूसरी बात करो, आप हैं कि समझती ही नहीं!"
माँ बोली, "मैं अभी हारी थोड़े ही हूँ। और देख उसका नाम तेरे नाम से मिलता-जुलता है. . .विजया।"
उसके बाद वह इतनी पीछे पड़ गईं कि उसे कहना ही पड़ा, "अच्छा-अच्छा, ठीक है।" साथ ही माँ को अल्टीमेटम दे दिया, "यह आख़िरी बार है। इसके बाद यह अध्याय बंद।"
यह लड़की, नाम विजया। नाम मिलता-जुलता है, क्या इसीलए जय ने विजया से मिलने के लिए हाँ तो नहीं कर दी ? नाम मिलता-जुलता हो, तो हमनाम व्यक्ति के साथ कुछ अमूर्त किस्म का रिश्ता महसूस होता ही है। विजया माध्यमिक स्कूल में टीचर थी, उसकी विशेषज्ञता विकलांग बच्चों को पढ़ाने में थी। चेहरे पर नाम-मात्र का मेकअप, प्रकृति से शांत-सौम्य, स्वल्पभाषी, उम्र में वह उससे दो वर्ष छोटी और ऊँचाई में उससे एकाध इंच कम थी। हीलवाले सैंडलों में वह उसके जितनी ही लग सकती थी, लेकिन वह मामूली हीलवाले सैंडल पहनती थी, जिससे यह स्पष्ट था कि उसमें अपने क़द को लेकर कोई हीनभावना नहीं थी। उसे देख जय के ज़हन में उड़ता-सा ख़याल आया कि उन दोनों के कद छोटे होने के कारण उनकी संताने भी नाटी निकलीं तो? लेकिन इस ख़याल को उसने दो चार मुलाक़ातों के बाद यह सोच झटक दिया कि उसके अपने और विजया दोनों के परिवारों में लंबे कद-काठीवाले भी तो हैं, और जीव विज्ञान बताता है कि संताने दादा-परदादा की पीढ़ी की शारीरिक बनावट, लक्षण, क़द कामत लेती आई हैं। उनके अपने बच्चे भी दादा-दादी, नाना-नानी पर जा सकते हैं। फिर यह भी था कि वह खुद मानता आया था कि नाटे क़द के कारण किसी को नापसंद नहीं किया जाना चाहिए। वह किसी दूसरे को इसी बिना पर अस्वीकार कैसे कर सकता था? साथ ही, क्यों कि किसी लड़की को प्रभावित करने की यह उसकी आख़िरी कोशिश थी, वह अपने को अपने उत्तमोत्तम रूप में पेश कर रहा था। अधिक उदार, धैर्यवान, संवेदनशील, विनोदप्रिय। यहाँ तक की जब विजया ने कहा कि शादी के बाद वह अपना उपनाम अग्रवाल नहीं बदलेगी, उसने कहा, "नो प्रौब्लम।'' विजया ने कहा,  ''तुम्हें अपना अपार्टमेंट छोड़ कर नया मकान मेरे माँ-बाप के घर के निकट लेना होगा, उसने कहा, ''नो प्रौब्लम।'' विजया ने यह भी माँग की कि वह फेरों के बाद अपने ससुराल न जा कर, नवविवाहित अमेरिकी दंपतियों की तरह सीधे हनिमून पर जाएगी। वह समझ गया कि विजया हाँ करने से पूर्व विवाहित जीवन के सारे ठीये-ठिकाने सुरक्षित कर लेना चाहती है ताकि बाद में परेशानी न हो। वह बोला,  ''नो प्रौब्लम। यह तो होना ही चाहिए। लड़का-लड़की दोनों बराबर हैं। अगर दोनों में कोई फ़र्क नहीं है तो यह दान. . .कन्यादान का क्या मतलब? लड़की क्या कोई गाय-भैंस है जो दान की जाए? लड़की का अपने माँ-बाप का घर छोड़ कर ससुराल जाना, सब पुरानी रस्में हैं। यह नए युग के साथ मेल नहीं खातीं, इन्हें छोड़ा जाना चाहिए।''

इसके अलावा उसका ह्यूमर विजया को इतना हँसा रहा था कि उसे लगा कि विजया उसके काफ़ी नज़दीक आ चुकी है और कि अब वह किसी आधार पर उसे मना नहीं कर सकती। एक शाम जब वह विजया को अपनी कार में उसके घर के आगे उतार रहा था, उसने उस से आश्वस्ति भरे अंदाज़ में कहा, "तो. . .इस दोस्ती को कोई ठोस शक्ल कब दी जाए?"
विजया कुछ देर चुप रही, फिर संजीदा हो गई। बोली, "सुनो, क्या हम दोस्त नहीं रह सकते?"
फिर वही वाक्य ! इस बार उसे इस वाक्य की बिलकुल उम्मीद नहीं थी। वह अपना धीरज खो बैठा। उसे समझ नहीं आया कि क्या जवाब दे। उसने यह तक पूछना ज़रूरी नहीं समझा कि तुम मेरा प्रस्ताव क्यों ठुकरा रही हो। कार के स्टीयरिंग पर उसकी उँगलियाँ द्रुत लय में चलने लगीं। वह आवेश में बोला, "ओके, ओके। लैट अस बी फ़्रेंड्स। हम दोस्त बने रहेंगे। अब खुश?"
जय ने यह बात भले ही खीज कर कही थी, लेकिन बाद में उसने ऐसी दोस्ती निभाई कि वह विजया का सच्चा दोस्त, हमदर्द, आत्मीय, शुभाकांक्षी तक कहा जाने लगा। विजया को अपने काम पर सहकर्मियों के साथ या अपने घर पर माँ-बाप, भाई-बहनों के साथ, उनके अलावा अपनी सहेलियों के साथ अगर किसी प्रकार की कोई भी दिक्कत पेश आती तो वह उसी का ही नंबर घुमाती। लोग यह तक कहने लगे कि वह विजया का 'सोल-मेट' यानी अनुपूरक है, और अगर किसी को विजया से बात करनी है तो उस समीकरण में जय को भी रखा जाना होगा। यहाँ तक कि जय के अपने मित्र, जिन्हें लगता था कि विजया अच्छी जीवन संगिनी बन सकती है, पहले उसी से संपर्क करने लगे। इसे जीवन की विडंबना कहिए या दोस्ती का तकाज़ा कि जय अपने कई एक मित्रों के पैग़ाम तक विजया तक पहुँचाने लगा और भावी उम्मीदवारों के साथ उसकी मुलाक़ातें तय कराने लगा।

इस तरह की तीन चार मुलाक़ातों के बाद भी जब किसी मुलाक़ात का कोई अनुकूल परिणाम न निकला, तो जय को क्रोध आ गया कि यह लड़की अपने को समझती क्या है?

एक से एक होशियार, सुंदर नैन-नक्शवाले, ऊँचे-लंबे डील-डौल, सुदर्शन व्यक्तित्व वाले लड़कों से मिलवा चुका हूँ और यह सभी को इंकार करती जा रही है। उसने विजया को फ़ोन किया और कहा, "शाम को काम के बाद 'स्टार बक' में मिलो।"
विजया आई। दोनों कॉफ़ी लेकर एक अलग मेज़ पर बैठ गए। उसने पूछा, "यह क्या है? हर किसी को ठुकराती जा रही हो। जान सकता हूँ क्यों?"
विजया ने दायें देखा फिर बायें। फिर उसे निहारती-सी नज़रे कॉफ़ी के गिलास पर गड़ा दीं।
वह अधिकारभरे स्वर में बोला, "मैं कुछ पूछ रहा हूँ?"
विजया ने नज़र भर कर उसकी ओर देखा।
"मुझॆ वह ठीक नहीं लगे" कह कर विजया ने फिर नज़रें झुका लीं। किसी लड़की के चेहरे पर उस तरह के भाव उससे पहले उसने फ़िल्मों मे ही देखे थे। ज़िंदा लड़की के चेहरे पर उन्हें पहचानने में उसे देर न लगी। उसके मुँह से निकला, "ओह!. . .तो. . ."

दो दिन मानों जय किसी नशे में घूमता फिरा। कभी अपने फ्लैट की बालकनी में आकर खड़ा हो जाता, कभी लिविंग रूम से सोफ़े पर आकर बैठ जाता, कभी फ्रीज का दरवाज़ा खोलता, कुछ देखता, फिर बंद कर देता। प्यार का वैसा अहसास उसे इससे पहले कभी नहीं हुआ था। कभी कार उठाता और किसी मॉल में जाकर दूकानों में सजा सामान देखने लगता। किसी सोफे, अलमारी के दाम पूछता, फिर यह सोच कर आगे बढ़ जाता कि विजया की सलाह से ख़रीदेगा। एक ही चीज़ थी जो वह विजया से पूछे बग़ैर ख़रीद सकता था। वह थी अंगूठी। वह एक ज्वेलर-शॉप में घुस गया। तरह-तरह की अंगूठियाँ देखने के बाद उसने हीरे की एक अंगूठी ख़रीदी और अगले ही दिन विजया को पहना दी। उसी सप्ताह शादी की तारीख़ तय कर ली। शादी कब, कहाँ हो, खाना किस से केटर करवाया जाए आदि सब छोटे-बड़े मामले दोनों ने मिलकर तय किए। उसके माँ-बाप ने अगर किसी बात को लेकर आपत्ति की तो उसने विजया की तरफ़ से मोर्चा लिया। एक महीने के बाद शादी के दिन वंदनवार और जगमगाती बत्तियों के बीच जय तास्कर और विजया अग्रवाल दोनों के माँ-बाप, भाई-बहन, सगे-संबंधी, दोस्त- अहबाब, सभी ने मिलकर नवविवाहित जोड़ी को विदा किया क्यों कि लड़की ही नहीं लड़का भी विदा किया जा रहा था। वो दोनों लिमोज़ीन में सीधे अपने नए बड़े मकान तक गए, वहीं एक रात बिताने के बाद अगली सुबह हनीमून के लिए रवाना हो गए. . .हवा-ई।

यों तो हवा-ई समुद्र क्षेत्र में मणि-मनकों से हज़ारों द्वीप बिखरे हुए हैं, लेकिन उन में केवल छह द्वीप ऐसे हैं जहाँ पर्यटक सैर-सपाटे के लिए जाते हैं। जय की दिलचस्पी 'बिग आइलैंड' नामक मुख्य द्वीप में जाने की अधिक थी, क्यों कि वहाँ खगोल-विज्ञान की बहुत बड़ी प्रयोगशाला है। वह खगोल-विज्ञानी होने के कारण उसे देखना चाहता था। पर विजया ने कहा, "हम हनीमून के लिए जा रहे हैं, उसके लिए सबसे बेस्ट है मओवी।" मओवी के बारे में उन दोनों ने सुन रखा था कि वह सारे द्वीपों में सबसे बढ़िया है, प्रेमियों के लिए तो आदर्श, मानों प्रकृति ने वह द्वीप बनाया ही प्रेमियों के लिए हो। जय ने कहा, ''एग्रीड, रहेंगे मओवी में, एक प्रयोगशाला वहाँ भी तो है।''
मीलों तक फैले समुद्री-तट में उन्हें एक किनारे रहने के लिए 'रिज़ोर्ट' भी मिल गया था। वे सुबह-सवेरे ही अपने-अपने स्विमिंग-सूट पहन कर रिज़ोर्ट से निकल आते, और समुद्र के किनारे बैठ कर समुद्री-क्रीड़ाएँ करनेवालों का नज़ारा लेते।
जय बोला, "कहते हैं इन लहरों पर जब दो जन साथ-साथ 'विंड-सर्फिंग' करते हैं, तो फिर उन दोनों को कोई अलग नहीं कर सकता।"
विजया बोली, "तो आओ, चलो करें।"

दोनों ने विंड-सर्फ़िग सिखानेवालों से संपर्क किया, दो पाल-बोर्ड लिए, विंड-सर्फिंग करने के लिए अन्य पहनावे से सज्जित, हवा में अपने-अपने पालों को नियंत्रित करते हुए, समुद्री लहरों पर सैर करने लगे। कभी-कभी वे एक-दूसरे से दूर भी भटक जाते, लेकिन फिर पास भी आ जाते। विजया की रुचि 'सर्फिंग' में भी होने लगी। सर्फिंग' में बिना पाल के बोर्ड पर पैरों को बाँध कर समुद्री-तरंगों की ताक़त और प्रवाह का अंदाज़ा लगाते हुए उन पर चढ़ा और कूदा जाता है। जय ने कहा, "अगली बार विजया- ऐसा न हो कि जोश-जोश में हाथ-पाँव तुड़ा बैठें, और अगली बार ही न आए। ऐक्साइटमेंट उतनी ही अच्छी जिसमें हाथ-पैर सुरक्षित रहें।"

अगले दिन पर्यटकों की एक टोली के साथ वे दोनों भी बस में हालियाकाला राष्ट्रीय उद्यान से होते हुए ज्वालामुखी पर्वत देखने निकल पड़े। दस हज़ार फुट ऊपर पहाड़ की चोटी पर ज्वालामुखी का मुख, उसका बीस मील का घेरा, जिसमें पूरा मेंनहैटन समा जाए। कहीं-कहीं तो उसका रिम ढाई हज़ार फुट ऊँचा उठ आया था। ज्वालामुखी के ऊपर तिरते बादलों के झुंड। एक छोर पर तो बादल इतने नीचे थे कि लगता जैसे ज्वालामुखी को सहला रहे हों।

मंद ब्यार का आनंद लेते हुए जय-विजया ने दूसरे छोर पर नीचे बादलों में अपनी विशाल हो आई परछाइयाँ देखीं, उसके बाद जो क्रेटर के चंद्रमा-सरीखे तल को देखा तो देखते ही रह गए। अन्य पर्यटक आगे निकल गए, तो वो सहसा चौंके, फिर क्रेटर की घुमावदार पगडंडियों और जले कोयले के पहाड़ों के बीच से बचते-बचाते, क्रेटर की ऊँची उठती दीवारों की तरफ़ देखते हुए नीचे उतर गए। क्रेटर के तल में जंगल, रेगिस्तान, चरागाह, झील, सभी कुछ। विजया बोली, "यहाँ एक कॉटेज है, सुना है लॉट्री पड़ती है, जिसकी निकलती है वह फिर शायद एकाध दिन वहाँ रह सकता है।" जय बोला, "ज्वालामुखी ऊँघ रहा है।"

मओवी द्वीप रोज़-रोज़ उन्हें नए से नए अनुभव दे रहा था। तट पर लहरों का धड़ाम से सिर टकराना, लौट जाना। विशाल काय व्हेल का. . .मानो एक पहाड़ का समुद्र से अचानक उछलना, फिर उसी में लुप्त हो जाना। स्वच्छ पारदर्शी नीले जल में समुद्री कछुओं के साथ-साथ मछली की तरह तैरते तैराकों को देखना। कहीं खिली धूप, कहीं रिमझिम, कहीं मूसलाधार वर्षा। कहीं बादलों का सड़क पर उतर आना। कहीं ज्वालामुखियों से बिना विस्फोट के गैसों और अन्य द्रव्यों का निकलना, और कहीं लावा का निकलते रहना। जमें लावा के तट। कहीं पहाड़ों के बाज़ुओं में गहरी सब्ज़ घाटियाँ, कहीं बाँस के जंगल।

पृष्ठ : 1. 2. 3

आगे-

 
1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।