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उनमें सूर्योदय और सूर्यास्त देखना। वाहन में पहाड़ की चोटी तक के नयनाभिराम सफ़र, और फिर तीन-चार मील की ऊँचाई से पहाड़ की ढलान से साइकलों पर नीचे उतरना। चट्टानों पर बने हाई-वे। हाई-वे के एक ओर झरनों का गर्जन और दूसरी ओर रेगिस्तानी सन्नाटा। कहीं आम और अमरूद के पेड़। कहीं ऊँचे-ऊँचे घने वृक्षों की ओट में अचानक किसी झरने का प्रकट हो जाना। कहीं किसी निर्जन स्थल पर सिर्फ़ चिड़ियों की चहचहाहट। सभी कुछ उन्हें मओवीमय किए दे रहा था। वे बार-बार एक दूसरे से प्यार करने लगते।

दो-तीन दिन वे अन्य द्वीप देखने के लिए भी निकल गए। अंतिम दिन बिग आइलैंड से वापसी की उड़ान लेने से पूर्व जय ने एकाएक विजया को बाहों में लेते हुए कहा, "एक बात बताओ, तुमने मुझ में क्या देखा था जो आख़िर में शादी करने के लिए राज़ी हो गई?"
विजया बोली, "ऐसा कुछ ख़ास नहीं।"
"तो भी. . .?"
विजया कुछ देर चुप रही, फिर शरारती अंदाज़ में बोली, "तुम्हारा कद।"
वह बोला, "मज़ाक नहीं, सच-सच बताओ।"
" मोटी-मोटी दो तीन बातें देखी थीं। कि तुम ठीक-ठीक कमाते हो, सेहत भी ठीक है, चरित्र भी ठीक है, ज़िंदगी ठीक-ठाक कट जाएगी।"
"बस।"
" हाँ एक बात और। तुम्हारा कद।"
फिर वह हँस पड़ी। जय ने कहा, " बी सीरियस।"
विजय ने पूरी संजीदगी से कहा, "हाँ, तुम्हारा कद। मेरे लिए आदर्श।" उसने विजय को चूम लिया।

लेकिन जैसा कि अधिकतर शादियों में देखा गया है उन का हनीमून-पीरियड बहुत दिन तक नहीं चला। मओवी का असर कुछ महीने तो रहा, फिर हल्का पड़ने लगा। जय को लगा कि उन दोनों के प्यार में जवानी के उबाल-उछाल की जगह परिपक्वता ने ले ली है, उसमें बचपना कम, गांभीर्य अधिक आ गया है, शांत समुद्र में विंड-सर्फ़िग करने की तरह। दोनों हवा के बहाव में कुछ देर के लिए एक दूसरे से दूर भले ही चले जाते हैं, लेकिन फिर पास भी आ जाते हैं। उनमें से कोई भी अगर बहुत दूर निकल जाए तो दूसरा ज़ोर से आवाज़ देकर बुला लेता है कि इतनी दूर मत जाओ।

एक दिन जब वह काम से लौटा तो उसने पाया कि विजया रसोई की दीवार से लगे टेलीफ़ोन की तार खींच कर लिविंगरूम तक ले गई है और रिसीवर मुँह से लगाए किसी से बातें कर रही हैं। अपनी माँ से बात कर रही होगी, उसने सोचा, और उनसे मिलने जाने का प्रोग्राम बना रही होगी। उसे यह बात कभी समझ नहीं आई कि ऐसा क्यों होता है कि लड़कियाँ शादी से पहले तो अपने माँ-बाप के घर से बाहर निकलना चाहती है, शादी हो जाने के बाद मायके जाने की रट लगाने लगती हैं। वह अपना हैंड बैग लेकर बैसमेंट में गया जहाँ उसने अपना अध्ययन कक्ष बना रखा था। हैंड बैग रख कर जब चार-पाँच मिनट बाद वह ऊपर आया तब भी विजया टेलीफ़ोन पर व्यस्त थी और टेलीफ़ोन की उलझी तार के गुंजल सुलझा रही थी। विजया ने उसे देखा और रिसीवर टेलीफ़ोन पर टाँग कर चाय बनाते हुए उससे मुख़ातिब हुई, ''हाय।''
जय बोला, "मम्मी से बात हो रही थी?"
"नहीं, मैं कॉन्फ्रेंस कॉल पर थी।"
"कॉन्फ्रेंस कॉल?"
"हाँ, रीटा, आशा, लिज़ और हम कुछ महिलायें कल 'गर्ल्ज़ नाइट' पर जा रहे हैं।"

उसका माथा ठनका। यानी 'गर्ल्ज़ नाइट आउट'। मतलब अपने-अपने बच्चों को अपने पतियों के सुपुर्द कर महिलाओं द्वारा किसी रेस्त्रां में आयोजित गप्प-गोष्ठी। जय को लगता था कि अमेरिका में पारिवारिक जीवन की यदि कोई चीज़ सबसे बड़ी दुश्मन है तो वह है 'गर्ल्ज़ नाइट आउट'। इन गोष्ठियों में, कहने को तो महिलायें चूल्हे-चौके और घर-गृहस्थी के बंद माहौल से निकल कर कुछ देर के लिए ताज़ा हवा खाने के लिए मिलती हैं, लेकिन उसे लगता, वे बैठ कर अपने-अपने पतियों और सास-ननदों के दुखड़े अधिक रोती हैं। और रीटा, आशा, इज़ाबेल के साथ महिला-गोष्ठी! बाप रे। रीटा अपने पति और छोटे-छोटे बच्चों को छोड़ कर एक बार घर से भाग गई थी, आशा के दो बेटे थे, उसका गोरा अमेरीकी पति उसे तलाक़ दे गया था, वह किसी पुरुष को डेट कर रही थी और लिज़ ने विवाह नहीं किया था। लोगों का ख़याल था कि वह समलिंगकामी है। जय को लगा कि विजया विंड-सर्फिंग करते हुए कुछ दूर निकल गई है।

विजया ने उसके सामने चाय का प्याला ला कर रखा।
जय बोला, "मेरे ख़याल से तुम्हें गर्ल्ज़ नाइट पर नहीं जाना चाहिए।"
"क्यों?"
"तुम्हारे लिए यह ठीक नहीं है।"
"क्यों?"
"तुम जानती हो वे सब किस तरह की महिलाएँ हैं।"
"लेकिन वे मेरी सहेलियाँ हैं।"
"यही तो समस्या है।"
"क्या ख़राबी है उनमें?"
तुम्हें नज़र नहीं आती क्या?"
जय आगे बोला, "हम शादी-शुदा हैं। हमें ऐसे लोगों को दोस्त बनाना चाहिए जो घर-गृहस्थी की अहमियत समझते हों, शालीन-सुसंस्कृत हों।"
कुछ देर खामोशी रही।
जय बोला, "हमने 'फ़ैमिली प्लैन' करनी है। हमें अपने आचरण के बारे में सावधान रहना चाहिए। अगर ऐसे लोगों के बीच उठे-बैठेंगे तो हम अपने बच्चों को क्या वेल्यूज़ देंगे।"
विजया उसे देखती रही। फिर उठी और चली गई। चाय के प्यालों में पड़ी चाय बिन पिये ठंडी हो गई।

उस रात और अगले दिन सुबह भी दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई। हाँ, विजया ने सुबह उसे चाय का प्याला ज़रूर ला कर दिया और स्कूल जाने से पहले उस का नाश्ता भी तैयार कर के मेज़ पर रख दिया। जाते-जाते कह गई, ''मैं शाम को देर से आऊँगी।''
जय उस वक्त पहली मंज़िल पर अपने बेडरूम से तैयार होकर नीचे उतर रहा था। "मैं शाम को देर से आऊँगी।" जय को यकीन नहीं आया कि उसने यही वाक्य सुना है।
- तो वह शाम को गर्लज़ नाइट पर जा रही है। वह नहीं चाहता फिर भी। गर्लज़ नाइट आउट ! यह गर्लज़, यानी लड़कियाँ, कैसे हो गईं! इज़ाबल, आशा, रीटा और बाकी दूसरी भी. . .दो-दो बच्चों की माएँ. . .तलाकशुदा. . .हट्टी-कट्टी औरतें. . .यह लड़कियाँ कैसे हो गईं? अमेरिकी समाज की एक तो ये ही मुश्किल है औरतों को गर्लज़ कहेंगे, और बच्चियों को 'यंग लेडी'। शब्दों के अर्थ ही बदल दिए हैं।
दिनभर वह ऑफ़िस में कंप्यूटर काम करते हुए भी इसी विषय पर सोचता रहा। उसे ग्लानि हुई कि वह महिलाओं के लिए उसे 'हट्टी-कट्टी औरतें' जैसे कड़वाहटभरे अपशब्द इस्तेमाल नहीं करने चाहिए। तब वह सारी बात को विजया की नज़र से सोचने लगा।

शायद विजया को सहेलियों की ज़रूरत महसूस होती है। विजया भी अन्य औरतों की तरह किसी से बात करना चाहती है। यह स्वाभाविक है। भले ही वह उसका पति है, इसका मतलब यह तो नहीं कि वह उसे दूसरों से बात न करने दे। अभी कल ही की बात है माँ बता रही थी कि उनके ज़माने में मोहल्ले की औरतें अपने-अपने पतियों को काम के लिए विदा कर घरों के सामने के खुले मैदान में चारपाइयाँ डाल सर्दियों में धूप सेका करतीं थीं, शाम ढलने तक दुनिया-जहान की बातें होतीं थीं। जब कोई अपने पति को लौटे देखती, तभी कहती, "अच्छा बहन मैं चलूँ, मेरे 'वह' आ गए।"
वक्त बदल गया है। वैसे आस-पड़ोस नहीं रहे। औरतें दिनभर काम पर जाती हैं, शाम को घर-गृहस्थी। उन्हें गर्लज़ नाइट आउट की ज़रूरत है। प्रश्न यह है कि 'गर्लज़ नाइट आउट' वह किन के साथ कर रही है।

शाम को जब जय लौटा, विजया घर पर नहीं थी। उसने दिन में उसे फ़ोन किया था। वह मिली नहीं थी। उसने उसके मोबाइल पर संदेश छोड़ा था कि शाम को घर पर वह उसकी प्रतीक्षा करेगा। विजया इसके बावजूद चली गई थी इसका उसे दुख था। वह रीटा के बारे में सोचने लगा पति से उसे शिकायतें हो सकती हैं, कि उसने उसकी बेक़द्री की, लेकिन छोटे-छोटे बच्चों को छोड़ कर किसी दूसरे के साथ भाग जाना, यह बात समझ नहीं आती और आशा! जैसा खुले गले का ब्लाउज़ वह पहनती है, आप नहीं चाहते कि आपको कोई उसके साथ बैठा देख लें और लिज़, लैस्बियन। साफ़ मतलब है कि वह मर्दों से नफ़रत करती है। क्या समागम है। नहीं, यह विजया के लिए ठीक नहीं है।

वह विजया का शुभचिंतक था। वह विजया को किस तरह समझाए उसे समझ नहीं आ रहा था। कभी लगता उसे अल्टीमेटम दे दे, एक तरफ़ मैं हूँ, दूसरी तरफ़ तुम्हारी सहेलियाँ। या मुझे चुन लो या उन्हें। वह सोचता अगर विजया ने उन्हें चुन लिया तो? क्या वह विजया को बुरी सोहबत में जाने दें? नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकता। बिल आख़िर उसकी पत्नी है। वह विजया से प्यार करता था और उसे किसी भी सूरत से खोना नहीं चाहता था।

रात को विजया लौटी तो उसने उसे कुछ नहीं कहा। इस तरह पेश आया जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। हँस-हँस के बातें करता रहा। जैसी उसकी आदत थी पुराने वक्तों की याद ताज़ा करते हुए उसने दो-चार पुराने मज़ाक तक सुना दिए। मोवी में बिताए हनीमून के दिनों की बात छेड़ी। वह हनीमून के दिनों की एलबम उठा लाया। दो ज्वालामुखियों के टकराव से बना मोवी द्वीप। अब प्रसुप्त। कितना सुंदर। कितने-कितने मौसम। हनीमून के दो सप्ताह में जैसी-जैसी चढ़ाइयाँ-उतराइयाँ महसूस कीं, उसके आगे विजया के साथ यह छोटा-सा तनाव क्या है।

रात को सोने के लिए जब बिस्तर पर लेटा तो बोला, ''माँ कह रहीं थीं, अब घर में - पोता या पोती - किसी को आना चाहिए।'' विजया बोली, "समझ गई, तुम मुझे घर में बाँधने की तरक़ीबें सोच रहे हो।"
यह बात किसी हद तक सच भी थी। उसका ख़याल था कि घर में अगर आज बच्चे होते तो विजया का दिमाग़ 'गर्ल्ज़ नाइट' जैसी खुराफ़ात की तरफ़ न जाता। लेकिन घर में बच्चों का होना क्या औरत को घर से बाँधने की मर्दों की कोई चतुर युक्ति है? कैसी ऊल-जलूल सोच। यह हो न हो, 'गर्ल्ज़ नाइट' में रीटा या आशा या लिज़ की संगत का ही नतीजा है। उसने उस रात पत्नी से प्रेम करने का विचार दिमाग़ से निकाल दिया।

अगले दिन विजया ने उसे बताया कि 'गर्ल्ज़ नाइट' महिलाओं का अपनी समस्याएँ एक दूसरे से बाँटने, मन हल्का करने का मौका देती है, और कि सभी सहेलियों ने मिलकर योजना बनाई है कि हमें सप्ताह में एक बार, हो सके तो हर शुक्रवार को, 'गर्ल्ज़ नाइट' ज़रूर करनी चाहिए।
जय विजया को देखता रह गया। आँखें फटी की फटी। बोला, "क्या? नो वे।"
"मैं उन्हें नहीं छोड़ सकती।"
"एक तरफ़ मैं हूँ, दूसरी तरफ़ वे, तो भी नहीं।"
"नहीं, तो भी नहीं। वह हमारा सपोर्ट-सिस्टम है।"
"तुम जानती हो, क्या कह रही हो?"
"हाँ, उन औरतों को हमदर्दी चाहिए, नफ़रत नहीं।"
"हमदर्दी! रीटा घर से भाग गई थी।"
"हाँ, क्या करती, सुनील उसे पैर की जूती समझता था।"
" बच्चों को छोड़ गई।"
" वह इतना आसान नहीं होता।"
"आशा! पैंतालीस की होगी, डेट कर रही है।"
"वह महीनों इंतज़ार करती रही कि पति लौट आएगा।. . .उसने बच्चों को किस तरह अकेले पाला, वह तुम्हें नज़र नहीं आया ! अब वह बड़े हो गए हैं, उनकी अपनी दुनिया बन रही है. . .। उसे साथी चाहिए. . .।"
"कैसा ब्लाउज़ पहनती है. . .इतना लो-कट, इतने खुले गले का कि. . ."
"गले के नीचे नहीं. . .ऊपर देखा करो. . .इतना उदास चेहरा। ठुकराये जाने का भाव जैसे चेहरे पर जम कर रह गया है। मन से इतनी भोली है. . ."
"और वह लिज़!"
"हाँ, हाँ लेसबियन है, पर है तो इंसान। दर्दमंद साथी. . .वह होना ज़्यादा बड़ी बात है।"
कुछ देर दोनों खामोश रहे। फिर विजया बोली, "वहाँ और औरतें भी तो होंगी।"
"पर यह तीन क्यों. . .? जो भी है यह ग़लत है। मैं इस तरह की वैल्यूज़ का सहभागी नहीं हो सकता।"
"तुम मर्दों की यह बात समझ नहीं आती। किसी औरत से जीवन में अगर कोई ग़लती हो जाए तो तुम उसे बहिष्कृत ही कर देना चाहते हो।"
"चाँद पर पहुँचना है तो अंतरिक्ष यान के सब कलपुर्जे परफ़ैक्ट होने चाहिए।"
" मुझे कमज़ोर और पिछड़े लोगो को पीछे छोड़ना इंसानियत नहीं लगती।"
"यह सब बड़ी-बड़ी बातें हैं, इनका ज़िंदगी से कोई ताल्लुक नहीं है।"
"मैं ज़मीन पर रहती हूँ।''

जय अभी भी नहीं हारा। वह सोचने लगा कि अगर विजया शुक्रवार के शुक्रवार 'गर्ल्ज़ नाइट' में जाती रही तो उसका कुप्रभाव पड़ कर रहेगा। मुमकिन है कि एक दिन वह उसे भी छोड़ दे। उसने देखा था कि समाज में तलाक़ काफ़ी आम हो रहे हैं। उसे लगा कि विजया को इस राह पर भटकने से रोका ही जाना होगा। वह सोचने लगा कि उसने पिछले दो साल में कब, कहाँ, क्या ग़लती कर दी कि विजया उससे दूर भटकती चली गई? एक समय था जब विजया को कोई परेशानी होती थी तो उसी से आकर बात करती थी। वह उसका सोल-मेट कहलाता था। कितनों को ठुकरा कर विजया ने उसे अपने लिए चुना था। ज़रूर मित्रता निभाने में उससे कहीं कोई लापरवाही हो गई जो कि आज उसे यह दिन देखना पड़ रहा है। उसे उस मित्र-भाव को फिर से जिलाना होगा।

वह एक दिन उसके लिए एक उपहार ले आया। हीरों जड़ा हार। दूसरे दिन घर के पीछे के डेक के लिए पैटिओ फ़र्नीचर ले आया। बोला, "हर वीकएंड मेज़ के छाते के नीचे कुर्सियाँ डाल कर बैठा जाए, क्या ख़याल है। घर में बैठे-बैठे ही घर के पीछे कुछ दूर ऊँचे झूमते घने पेड़ों के साथ झूमा जाए। और अक्तूबर-नवंबर के महीने! शरद ऋतु के दिन! न सर्दी न गर्मी। सुहावनी हवा। पेड़ों का क्या नज़ारा होगा जब उनके पत्ते लाल, नारंगी, संतरी, पीले, भूरे, रंग बदल रहे होंगे। क्यों?"

उस दिन शुक्रवार था। उस दिन राधा को 'गर्ल्ज़ नाइट आउट' के लिए जाना था। सुबह का समय था। दोनों अपने-अपने काम पर जाने के लिए तैयार हो रहे थे। ड्रेसिंग टेबल के शीशे में दोनों की नज़रें मिलीं। जय ने कहा, ''मैं तुम्हारे साथ अधिक समय बिताना चाहता हूँ।'' विजया चुप रही। वह आगे बोला, "क्या हम पहले की तरह दोस्त नहीं बन सकते?"
विजया ने शीशे में ही देखते हुए कहा, ''तुम्हें मालूम है कि जब तुम दोस्त थे तुम्हारी किस बात ने मुझे तुम्हारी तरफ़ सबसे अधिक आकर्षित किया था? तुम इतने पोज़ैसिव नहीं थे जितने अब हो रहे हो। तुमने जितने भी लड़कों से मिलवाया था, वे अधिक हैंडसम तो थे, देखने मे बलिष्ठ और ऊँचे-लंबे भी। लेकिन वे मेरी ज़िंदगी का रिमोट अपने हाथ में रखना चाहते थे। मेरी 'मूवमेंट्स' को 'मैनेज' करना चाहते थे। कोई भी मुझे मेरी आज़ादी देने के लिए तैयार न था। तुम मुझे अधिक संवेदनशील और उदार जान पड़े थे। उनकी तुलना में कहीं अधिक कद्दावर इंसान। मुझे मेरी आज़ादी देते थे। सोचने की वह आज़ादी अब भी दे पाओगे?''

जय बालों में कंघा कर चुका था। फिर भी शीशे में देखते हुए अपने बालों को कंघे से सँवारता जा रहा था, और शीशे में ही विजया को कमरे से बाहर जाते देखता रहा. . .

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24 अप्रैल 2007  

 
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