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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.के. से महेन्द्र दवेसर दीपक की कहानी- शारदा


वह लक्षमण-रेखा लाँघ आई है और छोड़ आई है वे कन्धे जिनपर उसकी अर्थी निकलनी थी। साथ में छोड़ आई है कॉफ़ी टेबल पर खुला पत्र और घर की चाबियाँ। लैच लॉक वाला दरवाज़ा अब बंद हो चुका है। अब पीछे मुड़कर देखना नहीं हो सकेगा।
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अपने पत्र में उसने लिखा –
“प्रिय रजत, प्रभा, मैंने पाप सोचा। तुमने उसे पूरा किया। मेरी सोच दंडनीय हो गयी। तुम्हारा पाप हो गया पुण्य-स्वरूप! यदि यही विधाता का न्याय है तो मुझे स्वीकार है क्योंकि मैं स्वयं अपनी मौत के षडयंत्र की भागीदार हूँ। तुम मुझे पूरी तरह भूल सको इसलिए मैं अपनी हर निशानी – शादी का एल्बम, विडियो रिकॉर्डिंग और दूसरे फ़ोटोग्राफ़ साथ लिए जा रही हूँ। तुम लोग सुख वैभव में जियो मेरे सच्चे मन से यही प्रार्थना है। छोटे रिंकु को मौसी का प्यार देना।
सस्नेह, तुम्हारी, शारदा”
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घर के बाहर टैक्सी खड़ी थी। उसने पिछली सीट पर अपने को फेंका और ड्राइवर से कहा, “हीथरो एयरपोर्ट”।
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सिनेमा शो के बाद रजत, प्रभा और रिंकु जब घर लौटे तो अंधेरा हो चुका था। कार ड्राइव में रुकी तो घर के अंदर की सभी बत्तियाँ गुल थीं। कॉल-बेल बजाने पर भी जब दरवाज़ा नहीं खुला तो रजत ने अपनी चाबी से उसे खोला।

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