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उसे दुनिया की दौड़ में कदम से कदम मिलाकर उल्लासपूर्ण आधुनिक जीवन में आंनद से भरपूर जीवन की अभिलाषा थी। समय के साथ आगे बढ़ने की तन्मयता के बावजूद पढ़ने लिखने में उसका मन नहीं लगता था। फैशन के प्रति उसका रूझान था और सजने-सँवरने का उसे शौक था। डोरीन ने सोलह वर्ष की आयु में ही अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा समाप्त कर सहेलियों के साथ लिंकन शहर में एक कपड़ों की फैक्ट्री में मशीनिस्ट का काम आरंभ कर दिया। माँ ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा, ‘उच्च शिक्षा के बिना भविष्य का क्या होगा, अपने जीवन के बारे में सोचो।’

‘नो! माम मैं अब और नहीं पढ़ूँगी, मेरी यही मर्जी है।’
माँ के बार-बार समझाने के बावजूद डोरीन ‘ए’ लेवल के लिए कालेज नहीं गई, माँ उसके भविष्य के लिए चिंतित रहती।

चार्नवुड गाँव के रहने वाले पीटर जान्सन के साथ डोरीन ने ‘सिविल मैरिज’ करने का इरादा माँ को बताया। अठ्ठारह साल की डोरीन ने माँ को यह कहकर चुप कर दिया, ‘माँ यह जीवन मेरा है जिसे मैं अपने अनुसार जीना चाहती हूँ। जीवन बस एक ही बार मिलता है। तुम शादी का यह फैसला मुझ पर छोड़ दो।’

ऐसे में माँ करती भी क्या? वह भौंचक सी देखती रह गई और कहा, ‘अपने निर्णय पर पुनः विचार करना, बिना पढ़ाई पूरी किये शादी का फैसला उचित नहीं है।’

बेटी के विद्रोह पर वह दुःखी थी लेकिन चुप रही। वह अपने जीवन के अनुभवों के बावजूद बेटी को यह न समझा सकी कि जीवन साथी की तलाश करना तो बेटी का जन्मसिद्ध अधिकार है लेकिन एक सही पति का चुनाव होना कितना कठिन है।

शादी के बाद पीटर और डोरीन का दाम्पत्य जीवन प्रसन्नता और प्रेम के साथ तेजी से बीतने लगा। एक बेटा डेविड तथा दो बेटियों को डोरीन ने जन्म दिया। बेटियों के नाम लूसी तथा एना रखे। मातृत्व का आंनद लेती हुई वह घर के कामकाज सुघड़ता से करती। गृह कार्यों से निकलकर अपने पति की सहायता के लिए छोटे से फार्म पर मुर्गियों के अंडे इकट्ठा करके अपने पति की सफेद रंग की चारों तरफ से जंग लगी हुई मिनी वैन में बाजार बेचने के लिए रख देती। थोड़े दिनों के बाद मुर्गियों तथा सफेद टर्कियों के पंख भी साफ करके वह बेचने के लिए मार्किट में हर शनिवार को पति के साथ भेजने लगी। दिसंबर के महीने में विशेषतः क्रिसमस के आस-पास मुर्गियों और टर्कियों की माँग बढ़ जाने के कारण काम और अधिक हो जाता, लेकिन डोरीन उसे भी चुनौती मानकर अपना उत्तरदायित्व भली प्रकार निभाती। क्रिसमस प्रेजेंट्स के लिए नए उत्साह के साथ वे ओवर टाईम करते।

पीटर डोरीन से कहता, ‘तुम्हारी सहायता से अपने इस लघु व्यवसाय में अच्छी आमदनी होने लगी है।’ वह लौटते समय रास्ते से ही खाने-पीने की चाजें खरीद कर घर ले आता तथा डोरीन अपनी रसोई के केक, बिस्कुट, डबल रोटी तथा पेस्ट्री स्वयं ही बनाती थी। डेविड से अक्सर कहती, ‘अगर अवसर मिले तो बजाय फार्म पर काम करने के मैं अपना एक काफी हाउस या छोटा सा रेस्टोरेन्ट खोलना पसंद करूँगी।’ डोरीन बच्चों के स्वेटर बुनती तथा कपड़ों की सिलाई भी स्वयं करती। तीनों बच्चे निर्भीकता से टामी कुत्ते के साथ आपस में खेलते, किलकारियाँ भरते तथा भेड़ों को पकड़ने की कोशिश करते हुए नए-नए खेल प्रतिदिन बनाया करते थे।

एक दिन डेविड न जाने कहाँ खो गया? उसे पुकारते हुए सब जगह ढूँढा, फार्म का कोना-कोना छान डाला, लेकिन पाँच वर्षीय डेविड कहीं नहीं मिला। इंग्लैंड के बरसाती मौसम की कौंधती बिजली तथा सर्दी के वातावरण में भय और आशंकाओं से उसका मन भर आया। तरह-तहर के बुरे विचार मन में आने लगे। ‘मेरा नन्हा सा बच्चा न जाने किस हाल में होगा? बारिश भी रुकने में नही आ रही है... वह भूखा-प्यासा न जाने कैसा होगा?’ माँ की ममता के साथ बच्चे की सुरक्षा तथा पति के घर वापस लौटने पर घर में झगड़ों की कल्पना से घबरा गई। वह पसीने-पसीने हो गई! उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करे? कई घण्टों ढूँढने के बाद डेविड भेड़ों के पास भूसे के बार्न में आराम से सोता हुआ मिला। फूल से मासूम चेहरे को देख कर उसने चैन की साँस ली। डोरीन ने खुशी के आवेग के साथ बच्चे को गोद में समेट लिया। ‘ओह! थैंक गुडनैस... मदर मेरी तेरा बहुत धन्यवाद।’

डोरीन के पास दिन में एक पल भी खाली न होता था। वह गृहस्थ जीवन में ऐसे व्यस्त हो गई कि बाहर की दुनिया उसके लिए एक अजनबी चीज बन गई थी। उसने एक दिन पीटर से कहा, ‘ चलो बच्चों को उनकी नानी से मिलवाने के लिए शहर ले चलते हैं। शादी के बाद अब तक मैं भी माँ से मिलने न जा सकी। वे भी हमें उतना ही याद करती होंगी।’ पीटर ने कुछ नहीं कहा और न कोई उत्साह ही दिखाया।’ अगले रविवार छुट्टी के दिन हम माँ से मिलने लिंकन जायेंगे।’ डोरीन को खुशी और उमंग के कारण नींद नहीं आई। रात में सोने से पहले उसने बच्चों को गर्म पानी से नहलाकर सुला दिया। उनके पहनने के कपड़े, बिस्तर के पास मेज पर रखकर वह अपने लिए एक ड्रेस ढूँढने लगी। फिर बैठकर धीमी रोशनी में अपनी एक नीली तथा सफेद फूलों की ड्रेस की तुर्पई करने लगी। पीटर ने उंची आवाज में कहा, ‘बिजली बन्द कर दो, वरना इसका बिल कौन देगा?’ डोरीन ने दबी आवाज में कहा-’सात वर्ष हमारी शादी को हो गए हैं, तुमने आज तक मेरे लिए कोई भी नए कपड़े या जूते नहीं खरीदे हैं। मैं अपनी माँ से मिलने कल फटे कपडों में कैसे जाऊँगी। हमारे तो कोई पड़ोसी या मेरी सहेली भी नहीं है जिससे मैं कपड़े माँग सकूँ! मैं पन्द्रह या बीस मिनट में अपनी पुरानी ड्रेस ठीक कर लूँगी, तुम सो जाओ वरना बच्चे जाग जायेंगे और अगर वे जाग गए तो उनको पिलाने के लिए घर में दूध भी नहीं है।’ सुबह उठकर डोरीन ने जल्दी-जल्दी घर का सब काम किया तथा बच्चों को तैयार करने लगी। तभी पीटर ने रसोई में आकर पूछा, ‘मेरा नाश्ता कहाँ है, मुझे बहुत भूख लगी है।’ डोरीन ने थोड़े कड़वे व मीठे अन्दाज में कहा, ‘आज खुद तुम अण्डे उबलने के लिए रख दो। मैं बच्चों को तैयार कर रही हूँ। हमें आज शहर माँ से मिलने जाना है।’ पीटर ने पैर पटके, ‘मैं नाश्ता बाहर ही कर लूँगा’ और घर का दरवाजा बाहर से बन्द करके अपनी वैन में बैठकर कहीं चला गया। डोरीन ने वैन के स्टार्ट होने की आवाज सुनी और मन ही मन कहा, ‘शायद पेट्रोल भरवाने के लिए गया है, अभी आ जाएगा।’

बच्चे साफ-सुथरे कपड़ों में बड़े सुन्दर लग रहे थे। वे आपस में गेंद फेंकते हुए टामी कुत्ते के साथ खेलने लगे, टामी बार-बार फेंकी हुई गेंद को बाहर से उठाकर लाता तथा मुंह में दबाकर भाग जाता। डोरीन ने कहा, ‘बाहर कोर्टयार्ड में मत जाना, वरना कपड़े गंदे हो जायेंगे।’ खेलते-खेलते बच्चे थक कर सो गए। पीटर का कहीं नामो-निशान नहीं था। डोरीन दुखी होकर घर का दरवाजा खोलने लगी। लेकिन आश्चर्य कि दरवाजा बाहर से बंद था। आज पीटर के संकीर्ण व्यवहार से व्याकुल होकर बिलख-बिलख कर रोने लगी। आज वह माँ से मिलने की उमंग तथा अपने बच्चों को नानी से मिलवाने की कल्पना में ही उल्लसित हो रही थी। माँ का स्नेह तथा उससे मिलने की खुशी में वह पिछले ही घर के दैनिक कार्य निबटा रही थी। पीटर के इस व्यवहार से वह बहुत दुखी हुई। क्रोध और आशंकाओं से रह-रह कर अनजाने भय और विचित्र विचार मन में घर करने लगे। पीटर कहाँ चला गया?’ ‘कहीं पीटर हमेशा के लिए तो नहीं चला गया?’ बेचैन होकर उसने फिर से एक बार दरवाजे को खोलने की कोशिश की। दरवाजे पर बाहर से ताला लगा हुआ था। उसकी चिन्ता बढ़ने लगी। उसे पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ कि पीटर इतना स्वार्थी कैसे बन गया? वह पीटर को धन लोलुप तो मानती थी, लेकिन वह अपने स्वार्थ को ही श्रेय और श्रेष्ठ मानने की भूल भी करेगा, उसे यकीन न था। ‘अगर किसी बात से नाराज था तो बता क्यों नहीं दिया? बच्चों का तो ध्यान रखा होता? इतना बड़ा धोखा! इस विषम स्थिति में वह अपमान से कांप रही थी।

शाम को पीटर दरवाजा खोलकर धड़ाधड़ सीढ़ियाँ उतर कर घर में दाखिल हुआ तथा किचन टेबल पर बैठकर सारी कहने के बजाय खाने की माँग करने लगा। डोरीन ने उस की ओर विस्मय से देखा और कोई भी जवाब नहीं दिया। वह अभी तक उसके धोखे एवं दुस्साहस से नाराज थी। ‘देर से घर क्यों आए? दरवाजे पर ताला क्यों लगाया?’ भीगे गालों को पोंछते हुए बार-बार डोरीन ने प्रश्न पूछे। पीटर ने डोरीन को एक लापरवाह निगाह से देखा। डोरीन को समझ नहीं आ रहा था ऐसा बर्ताव उसके साथ क्यों हुआ? कर्तव्य एवं प्रेम में उसने कभी कोई कमी नहीं रखी थी। वह तो हमेशा मन और तन से अपने परिवार का काम स्वार्थ-रहित करती रहती थी। उसे नहीं मालूम कि पीटर के मन में क्या था? क्षमा याचना की उसे पीटर से अब उम्मीद नहीं थी। गुस्से और अपमान से व्याकुल मध्य रात्रि के उपरांत न जाने कब डोरीन को नींद आ गई। उदास मन से सुबह बच्चों को स्कूल भेजकर वह घर के कामकाज में लग गई। बाहर के लोगों से डोरीन का सम्पर्क न के बराबर था। कभी-कभी उसकी माँ या बड़ी बहन का पत्र आ जाता था। वह पत्र लिखकर पीटर को पोस्ट में डालने के लिए दे देती थी। टेलीफोन की लाईन फार्म तक नहीं पहुँची थी। वार्तालाप के लिए पड़ोस में कोई भी नहीं था।

धीरे-धीरे समय के साथ बच्चे बड़े हो गए। सोलह वर्ष की आयु में डेविड ने चार्नवुड पार्क में ग्रीनकीपर के साथ काम करना आरंभ कर दिया। वह काम मेहनत से मन लगा करता था। अपना दायित्व समझता था। पहले माँ को घर के खर्चे के लिए थोड़े पाउण्ड हर सप्ताह देता था। फिर उसने अपना एक कमरा किराए पर ले लिया। पश्चिमी वातावरण में अक्सर नवयुवक आत्मनिर्भर होकर रहना पसंद करते हैं। दोनों बेटियाँ लूसी एवं एना दिन में पढ़ाई करती थीं और शाम के समय दोनों ‘बुल-हैड’ नाम के एक ‘पब’ में काम करती थीं। डोरीन की दिनचर्या में व्यस्तता और बढ़ गई थी। उसका फार्म पर काम करने में ही दिन बीत जाता था। पसीना बहाकर भी उसे कोई आमदनी नहीं थी। पीटर से वह भयभीत रहती थी। वह सब पैसा अपने पास ही रखता था। पीटर भी कई बार देर से घर आने लगा था और बात-बात में कहता, ‘मुझे आराम करने दो मैं थक गया हूँ।’ बच्चे कहते, ‘माम, हमें डैडी प्यार नहीं करते हैं।’

डोरीन अधिक धार्मिक न होते हुए भी कभी-कभी रविवार को चर्च जाने के लिए इच्छुक होती, लेकिन पीटर ने कभी उत्साह नहीं दिखाया। वैवाहिक जीवन में दोनों की केमिस्ट्री कैसे बदल गई, इसका पता ही नहीं चला। पीटर को डोरीन या बच्चों से कोई लगाव नहीं था। अब डोरीन को जीवन अभिशाप प्रतीत होता था। वह कर्तव्य समझकर काम और व्यवस्था करती, लेकिन अपने विचार व्यक्त करने में लाचार एवं असमर्थ होती थी। पीटर कभी-कभी बाहर से घर का दरवाजा बंद कर जाता था ताकि वह कहीं आजादी से स्वयं बाहर न जा सके। डोरीन का मनोबल और साहस अब कमजोर होने लगे थे। उसकी मानसिकता एवं आत्मशक्ति कमजोर पड़ गई थी। पीटर की आदतें अब बदलनी मुश्किल थीं। बच्चों की सोलह वर्ष की आयु के उपरान्त हर हफ्ते का चाईल्ड अलाउंस बंद हो जाने की वजह से डोरीन और भी पैसों के लिए चिंतित रहने लगी थी। पीटर भी हफ्ते की हाउस-कीपिंग मनी नहीं देता था। ऐसी आर्थिक स्थिति में डोरीन बड़ी मुश्किल से घर चला रही थी। उसका किसी भी काम में मन नहीं लगता था।

पीटर एक दिन ‘पब’ होता हुआ शाम को जल्दी घर आया। उसे आज घर का वातावरण कुछ अलग सा प्रतीत हुआ। मन ही मन उसे संशय हुआ, ‘कोई है घर में, भोजन की खुशबू भी नहीं आ रही, ऐसी लगता है कि ओवन भी ठंडा पड़ा है?’ रसोई में सब जगह ढूँढने पर भी उसे खाना नहीं मिला। क्रोधित होकर पुकारा, ‘मेरा डिनर कहाँ है?’ डोरीन ने जबाब दिया, ‘क्या पत्नी का काम केवल खाना बनाना ही है? क्या मेरी यही ड्यूटी है?’ पीटर ने गुस्से में डोरीन पर हाथ उठाया।

इस घटना से डोरीन का मन व्याकुल होकर निराशा में डूब गया। अपने अस्तित्व को उसने कुचला हुआ महसूस किया। अपने अंदर की विभिन्न प्रतिरोध शक्तियों के जागरण से डोरीन ने दृढ़ता के साथ परिस्थिति का सामना करने का फैसला किया। आत्मसम्मान के लिए घर छोड़ने का निश्चय आज कर लिया। ‘जब पीटर काम पर जाएगा, मैं इस घर में एक मिनट भी नहीं रूकूंगी।’

वह हिम्मत जुटाकर गंभीर विचार में मग्न बस-स्टाप पर चुप-चाप आकर खड़ी हो गई। हाई बूट पहने हुए दबे पांव चलती रास्ते भर भय से त्रस्त वह पीछे मुड़कर बार-बार देखती कि कहीं किसी ने देख तो नहीं लिया। सिर पर बंधे स्कार्फ को संभालती, सड़क पर पड़ी हुई पतझड़ की पत्तियों की आवाज से वह घबरा जाती। हाथ में हैंड बैग को कस कर पकड़े हुए मन ही मन प्रार्थना करती कि आने वाली बस निकल न जाए क्योंकि शहर जाने के लिए दिन में केवल दो बार ही बस आती थी।

इस समय वह अपने बच्चों, समाज या किसी अंजाम के बारे में नहीं सोच रही थी, बस नए जीवन की तलाश में तेज गति से आगे बढ़ती जा रही थी।

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२८ जनवरी २०१३

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