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रचना प्रसंग

जन्म एक लेखक का
--पूर्णिमा वर्मन

लेखक का जन्म कैसे
हर रचनाकार को अपने भीतर सोए लेखक को जगाने का प्रयत्न करना होता है। जो इस बात की प्रतीक्षा करते हैं कि अचानक एक दिन एकाएक कुछ हो जाएगा, कोई महान ग्रंथ लिख जाएगा और वे इस चमत्कार को देखते रह जाएँगे वे बहुत बड़ी गलती पर हैं। लेखन एक सतत विकासशील प्रक्रिया है। आप जितना लिखेंगे उतना

अभ्यास होगा। उतनी ही लेखन शैली और रचना विन्यास बेहतर होंगे साथ ही कलम का पैनापन और कम शब्दों में अधिक व सटीक बात कहने की क्षमता बढ़ेगी। यह सही है कि अचानक बिना मेहनत के भी कभी कोई रचना बहुत अच्छी लिख जाती है और कभी मेहनत कर के भी उतना अच्छा नहीं लिखा जाता। पर यह तभी होगा जब आप नियमित लिखेंगे ना कि अपने आप अच्छा लिख जाने का इंतज़ार करेंगे। तो लेखक का पहला काम लिखना है न कि सही समय या मूड का इंतज़ार करना।

नियमित लिखने के लिए दो बातों की आवश्यकता होती है- आत्मानुशासन और अध्यवसाय। आत्मानुशासन यह कि हर रोज ठीक समय पर लिखने बैठ जाएँ और अध्यवसाय यह कि इस काम को दृढ़ता से नियमपूर्वक जारी रखें। भले ही यह समय आधा घंटा ही हो पर इसका परिणाम तुरंत दिखाई देने लगता है आपकी ताज़ी रचनाओं में जो आपकी मेहनत का फल हैं। हो सकता है कि इन्हें फिर से और बेहतर बनाने का मन हो, हो सकता है कि इन पर बार बार काम करने का मन चाहे तो यह सब अच्छे लक्षण हैं।

अवसर और प्रेरणा की खोज
सफल लेखक और पत्रकार प्रेरणा के लिए अवसरों को खोजते नहीं बैठते। वे तय समय पर नियमित रूप से कलम काग़ज़ या कंप्यूटर पर लिखने बैठते हैं। वे नियमित लिखते हैं क्यों कि उन्हें ऐसा करना पसंद है और उन्होंने अपने लिए यह अनुशासन निश्चित किया है। जिसका काम लिखना है उसे हर हाल में लिखना ही है, मूड का इंतज़ार नहीं करना है। सोचिए डॉक्टर अगर मूड आने पर ऑपरेशन करे, तो मरीज़ का ज़िंदा बचना मुश्किल हो जाए। जिस तरह मरीज़ को देखते ही डॉक्टर अपने काम में जुट जाता है उसी प्रकार लेखक के सामने विषय आते ही उसको लिखने बैठ जाना चाहिए। हो सकता है कि एक ही बार में अच्छा लेख, कहानी या कविता न बने पर धीरे धीरे उसको बेहतर बनाया जा सकता है। ज़रूरी नहीं कि लेख या कविता या कहानी पूरी लिख जाए या रोज़ एक लेख पूरा हो जाए। कभी कभी कुछ पंक्तियाँ ही बनती हैं, कभी केवल लेख की रूपरेखा, कभी सारा समय पत्र इत्यादि लिखने में चला जाता है तो कभी भविष्य के लिए कुछ नोट्स बनाने में-- ये सभी आपके नियमित लेखन का हिस्सा हैं। इन्हें संभालकर रखें और ज़रूरत आने पर सही जगह इनका प्रयोग करें।

कब और कहाँ लिखें
कब लिखा जाए वह इतना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि नियमित लिखा जाए। जो लेखन के व्यवसाय में हैं वे अधिकतर 9 से 5 के बीच लिखते हैं। पर यह लेख उनके लिए नहीं है। वह तो पहले ही विश्वविद्यालय में यह सब पढ़ चुके हैं या अनुभव से सीख चुके हैं। यह लेख उन लोगों के लिए है जो अपना अलग व्यवसाय चुन चुके हैं पर लिखने का शौक रखते हैं और व्यवसायिक लेखक की तरह बढ़िया लिखना चाहते हैं। ऐसे सभी लोग सुविधानुसार लिखने का समय निश्चित कर सकते हैं। कुछ लोग सुबह नाश्ते से पहले लिखना पसंद करते हैं क्यों कि उस समय मन मस्तिष्क में अधिक स्फूर्ति और ताज़गी होती है। कुछ लोग रात के खाने के बात देर रात लिखना पसंद करते हैं क्यों कि उस समय सब लोग सो चुके होते हैं और हर ओर फैली शांति में लिखना उन्हें अधिक पसंद आता है। हर व्यक्ति की अलग परिस्थिति और जीवन शैली होती है और उसी के अनुसार उसे लिखना होता है। कोशिश यह होनी चाहिए कि लिखने की जगह और समय रोज रोज बदलता ना रहे।

कुछ लेखकों को लेखन के समय व्यवधान पसंद नहीं तो वे अपनी मेज़ दीवार से सटाकर रखते हैं। कुछ लेखकों को चहल पहल प्रेरित करती है तो वे अपनी मेज़ खिड़की के सामने रखते हैं। कुछ लेखकों को काम करते समय प्रकृति का सान्निध्य पसंद है तो वे लिखने के लिए बगीचे में मेज़ लगाते हैं। पर उनकी सोचिए जो लेखन के व्यवसाय में हैं वे लोगों की चहल पहल, बातचीत, आना जाना, फोन की घंटियों, अतिथियों की खातिरदारियों और बॉस की पुकार के बीच निरंतर समय पर अपने आलेख तैयार करते हैं। सौभाग्य से घर में बैठकर आराम से शौकिया लिखने वाले लेखकों को इतनी निष्ठा की ज़रूरत नहीं पड़ती। वे अपनी मर्ज़ी से अपने लिखने की जगह तय कर सकते हैं। बहुत शांत जगह में भी मन विचलित करने वाले साधन हो सकते हैं। बस ध्यान इतना ही रखना है कि लिखने की मेज-कुर्सी या चौकी-आसन ऐसे स्थान पर हों जहाँ बैठकर आराम से लिखा जा सके।

जो नहीं किया जाना चाहिए
कुछ लोग ऐसा करते हैं कि कुछ दिन तक दिन-रात लगातार लिखते हैं और इतना थक जाते हैं कि फिर हफ़्तों तक कुछ नहीं लिख सकते। इसका फल होता है अनुशासनहीनता और अरचनात्मकता। रोज़ नियमित लेखन की आदत बनाकर बेहतर परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं। ऐसा महसूस हो सकता है कि जब मूड बने तब बेहतर लिखा जा सकता है इसलिए जब तक मूड है जितना लिखा जा सकता है लिख लो। पर इस प्रकार की आदत से रचनात्मक और आनंददायक परिणाम नहीं पाए जा सकते। यह शरीर और मन के स्वास्थ्य के लिए अहितकर और अरचनात्मक है। इससे बचना चाहिए। अनुशासन और रचनात्मकता लेखक के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। केवल इसी से नियमित लेखन की प्रेरणा, आत्मविश्वास और सफलता पाई जा सकती है। इसलिए लेखन का पहला नियम है नियत समय पर लिखने के लिए बैठ जाएँ और रोज़ लिखें।

शुरूआत कैसे करें
कंप्यूटर के सामने बैठें, वर्ड फ़ाइल खोलें और लिखना शुरू करें।
पर क्या लिखें?
कुछ भी जो भी दिमाग में आए बस लिखना शुरू कर दें। मनुष्य का दिमाग इंजन की तरह होता है। उसको गरम होने में समय लगता है पर एक बार गरम हो जाए तो पटरी पर दौड़ने लगता है। लिखना शुरू करना ज़रूरी है क्यों कि इसके बिना इंजन चलने वाला नहीं। आप देखेंगे कि एक दो अनुच्छेद लिखते ही दिमाग पटरी पर दौड़ने लगा है और नया आलेख निकल पड़ा है। हो सकता है कि कुछ हिस्सा बेकार लिख जाए और उसे हटाना पड़े। कोई बात नहीं। अगर वह बेकार न लिखा गया होता तो काम के लेख तक नहीं पहुँचा जा सकता था।

कभी कभी ऐसा भी लगेगा कि रोज लिखते लिखते विचारों का टोटा पढ़ गया है। मानो दिमाग बंद हुआ जा रहा है हम थके जा रहे हैं। अगर ऐसा लगे तो-

  • लिखना रोकें। सब कुछ बंद करें और चहल-कदमी पर निकल पड़ें, बच्चों के साथ खेलें, टीवी देखें या कुछ और मनोरंजक काम करें। दिमाग के शांत होते ही फिर से नए विचार आने लगेंगे।

  • किसी पुस्तकालय में जाएँ, नई किताबें देखें, हर उस चीज़ में रुचि लें जो आपको पसंद है, कही न कहीं से नए विचारों की गंगा बह निकलेगी या कुछ ऐसे तथ्य मिल जाएँगे जिनपर नए लेख की नींव रखी जा सकेगी।

  • दूसरों के लेखों को देखें, ध्यान से पढ़ें, अख़बारों के रविवारीय परिशिष्ट पर ध्यान दें और सोचें कि इसमें से आपके लेखन के लिए किस चीज़ का कैसे उपयोग किया जा सकता है।

अंत में एक सुझाव- अपने साथ एक छोटी नोटबुक और कलम या पेंसिल रखें और दिमाग में बिजली कौंधते ही विचार को नोट कर लें। इस विचार पर अगले दिन के लेख की दीवार खड़ी की जा सकती है और आज नहीं तो कल इसका कुछ न कुछ उपयोग अवश्य हो सकता है।

२ जून २००८

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