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आत्मकथा (सातवाँ भाग)

अभिज्ञात

मैं तो बस लिखता हूँ और शेर समझ लेता हूँ

वेणु दास की आवाज में माधुर्य था, बाँग्ला गाने के ऑफर बहुत मिलते थे मगर वे उसमें रुचि न लेते। उनका ख्वाब रहा है गज़ल गायक बनने का। और फिर वह दिन भी आया कि वे एक होटल के कमरे में टी सीरीज के गुलशन कुमार को दो मिनट के लिए अपनी गज़ल सुनाकर दिल्ली पहुँचने का आमंत्रण पा गए। जिन गजलों की धुन उन्होंने पिछले दो वर्षों में मेरे सामने तैयार की थी लेकर दिल्ली कूच कर गए। लौटे तो पंद्रह दिन बाद। महँगा म्यूजिक सिस्टम लेकर। उन्हें रिकार्डिंग के एवज में टी सिरीज से मिला था। बताया कि पंकज उधास ने उन्हें पहले रिजेक्ट कर दिया। उनका मानना था कि जो उर्दू बोल नहीं सकता वह गज़ल क्या खाक गायेगा। वह तो किसी तरह उन्हें फिर से सुनने के लिए अनुराधा पौडवाल तैयार हो गईं तो उन्हें गाने का ब्रेक मिला। शर्त यह भी थी कि उनकी गज़लें तभी रिकार्ड की जाएँगी जब वे बाँग्ला भी गाने को तैयार हों। गज़ल का कैसेट निकालने के लोभ में उन्होंने बाँग्ला भजन और राष्ट्रीय भावनाओं वाले दो कैसेट के लिए गाया। इनकी रिकार्डिंग तो दिल्ली में हुई पर गज़ल के लिए उन्हें मुंबई ले जाया गया था जहाँ सन्नी देओल के सन्नी स्टूडियो में उनकी गज़लों की रिकार्डिंग हुई । इनमें चार गज़लें मेरी थीं। और दो महीने के भीतर उनके बाँग्ला गीतों के दोनों कैसेट बाजार में थे। भजन का कैसेट 'चरणे तोमार’ तो लोकप्रिय भी हुआ। पर गज़लों का कैसेट आज तक बाजार में नहीं आया। और उनका गज़ल गायक के तौर पर यशस्वी होने का सपना अधूरा ही रह गया।

एक बात और गौरतलब है कि वेणु दास ने टी सीरीज में अपने जो गाने रिकार्ड करवाए उसमें उन्होंने अपना नाम बदल दिया। वे वेणु दास से तपन दास हो गए थे। जो किसी ज्योतिष की सलाह पर उन्होंने किया था। इस नए नाम से भी वे उभर नहीं पाए। पिछली बार जब मैं कोलकाता गया था तो वे आए मेरे घर बरसों बाद। बताया कि गायकी से निराश होकर वे अनाज का व्यवसाय करने लगे हैं। और व्यवसाय चल निकला है। थोड़ी सम्पन्नता आ गई है। वे एक बार फिर गज़ल का कैसेट अपने पैसे से निकालने के मूड में हैं। मुझसे कुछ नई गजलें भी माँगीं। एक बात यह रह गई कि उनके पास मेरे परिचय के पूर्व जो गज़लें थीं जिसकी उन्होंने धुन बनाई थी उसमें एक गज़ल थी– 
सबके दिल में समाना नहीं चाहिए। 
खुद को तोहफा बनाना नहीं चाहिए। 
जिस बलंदी पे इन्सान छोटा लगे। 
उस बलंदी पे जाना नहीं चाहिए। 
यह गज़ल किसी और ने अपनी रचना बताकर उन्हें दी थी यह शहूद आलम आफाकी की थी। शहूद जीते जी मिथ बन गए थे।

मनोज तिवारी मृदुल

यों तो शास्त्रीय संगीत के गायक सुदामा सिंह ने भी मेरी दर्जन भर गज़लों की धुनें तैयार की थीं‚ मगर उन्हें भी भोजपुरी गीतों के कैसेट से ही संतोष करना पड़ा कोई म्यूजिक कंपनी उनकी गाई गज़लों का कैसेट निकालने को तैयार नहीं हुई और यही हाल मनोज तिवारी मृदुल का रहा। मनोज महफिलों में भोजपुरी गीत और गज़ल में गाते थे। उनके एक रिश्तेदार साधुशरण तिवारी ओएनजीसी में हैं। उन्होंने मुझे कड़की के दिनों आर्थिक संरक्षण दिया था। ओएनजीसी के हिन्दी आयोजनों में न सिर्फ उन्होंने मुझे निर्णायक रखा था‚ बल्कि कवि–सम्मेलनों में भी बुलाकार पैसा दिया। मेरी किताबों के सेट भी खरीदवाए। उन्हीं के कारण मनोज मेरे संपर्क में आए मुझे सुना और मेरी गज़लें माँगीं। मेरी कुछ गज़लों की तो उन्होंने बहुत अच्छी धुन तैयार की थी–
'बातों–बातों में जो ढली होगी
वो रात कितनी मनचली होगी।’ 

वे कभी –कभी मेरे घर भी आते थे और एक बार हारमोनियम पकड़ लेते तो दो तीन घंटे बाद ही छोड़ते। उन्होंने अपनी बहन के नाम पर एक म्यूजिक कंपनी भी शुरू की थी माधुरी प्रोडक्शंस के नाम से। अपने साथ गाने के लिए उन्होंने प्रतिभा को कई बार आमंत्रित किया‚ मगर वह तैयार नहीं हुई। प्रतिभा के कुछ कैसेट तब तक बाजार में आ चुके थे। वह दूसरी जगह गाकर अपनी कंपनी को नाराज नहीं करना चाहती थी। इस इंकार से उपजे हालात को मैंने किसी तरह सँभाला तो फिर एक घटना ऐसी घटी कि मनोज से फिर मिलना नहीं हो पाया। वे बनारस में एक प्रोग्राम में प्रतिभा को ले जाने की हामी अपनी ओर से भर आए थे। रकम इतनी कम थी कि प्रतिभा उस पर जाने को तैयार नहीं हुई । उसके बाद तो मनोज कभी हमारे यहाँ नहीं आए न ही उनका फोन। प्रतिभा के फेर में वे मुझसे भी ख़फा हो बैठे थे। इधर साधुशरण तिवारी का कोलकाता से मुंबई ट्रांसफर हो गया तो उनसे भी संपर्क टूट गया।

मनोज की अपनी कंपनी से तो उनके कई कैसेट आए थे पर बात नहीं बनी थी। आम लोगों के बीच उसकी स्वीकृति नहीं मिली। मगर इसी बीच टी सीरीज ने उनका कैसेट निकाला तो वे सहसा पॉपुलर हो उठे पर एक भोजपुरी गायक के तौर पर। वे बातचीत में कहते भी थे कि मैं दो राहे पर खड़ा हूँ एक तरफ भोजपुरी गीत हैं दूसरी तरफ गज़ल।गज़ल में कांपीटीशन बहुत है। भोजपुरी का रास्ता आसान है। जाहिर है उन्होंने आसान राह चुनी है। जालंधर में मेरे आवास स्थल के पास ही कैसेट की दुकान थी देखता रहता था मनोज के कई कैसेट बाजार में उपलब्ध थे।

'बाहरवाली’ तो अक्सर बजता ही रहता था। इस बीच कोलकाता गया था तो अखबारों में विज्ञापन देखा कि मनोज भी अन्य गायकों के साथ नेताजी इंडोर स्टेडियम में गाने आ रहे हैं। दिल में बात उठी की शायद वे अबकी आएँ या फोन करें पर यह नहीं हुआ।

मुलाकात शायरा रेहाना नवाब से

कवि–सम्मेलनों के अलावा कभी–कभार मुझे भी मुशायरों में बुला लिया जाता था। ऐसे ही कार्यक्रमों में मेरी मुलाकात शायरा रेहाना नवाब से हुई । रेहाना का गला अच्छा है। वे जब अपनी दर्द भरी आवाज में मंच पर गज़ल सुनाती हैं तो समय रुक–सा जाता है। पहली बार तो उन्हें मैंने बिरलापुर में सुना था। वह काव्य–पाठ का अद्भुत कार्यक्रम था‚ जिसमें बाँग्ला कवि सुभाष मुखोपाध्याय‚ सुनील गंगोपाध्याय‚ उर्दू से रेहना नवाब और हिन्दी से डॉ बुद्धिनाथ मिश्र और डॉ॰ चंद्रदेव सिंह हिस्सा लेने गए थे। यह आयोजन मंच पर हुए कार्यक्रम की वजह से महत्वपूर्ण नहीं था‚ बल्कि कवियों की संगत की वजह से महत्वपूर्ण था। यह रमजान का महीना था और रेहाना के रोजे शुरू थे। मंच पर पहुँचने से पहले पाँच घंटे हमारी आपस में गपशप चली थी। हुगली के तट पर हम घूमे भी थे। यह वह अवसर था जब सुभाष दा ने बेबाकी से स्वीकार किया था कि– 'मेरा प्रिय रंग लाल‚ मेरा प्रिय फूल गुलाब’ लिखने के वामपंथी रुझान के कारण पाठकों से कवियों का संबंध टूटा है। साहित्य शुष्क होता चला गया।

उसमें बदलाव की जरूरत है। उन्होंने सुनील को सही राह पर चलने की शाबाशी भी दी। बुद्धिनाथ मिश्र की तारीफ सुनील दा और सुभाष दा दोनों ने की कि गीतों को मंच पर जीवित रखने का प्रयास सार्थक है। बाँग्ला में इसकी आवश्यकता है। सुभाष दा ने ही बताया कि सुनील तो अपने दोस्तों के बीच बैठकर टेबल पर थाप देकर गीत सुनाते हैं। पर रात को हुआ कवि सम्मेलन रेहाना नवाब का रहा। उन्हें बेहद पसंद किया गया। उससे पहले सुभाष दा की फरमाइश पर वे गेस्ट हाउस में जहाँ हम ठहरे थे‚ अपनी दो गजलें सुना चुकी थीं। उसके बाद तो ओएनजीसी‚ कॉपर इंडिया एवं स्टील अथॉरिटक के हिन्दी दिवस समारोहों के कवि–सम्मेलन में मुझे रेहाना के साथ कविता पाठ का आमंत्रण था। भारतीय भाषा परिषद में आयोजित ओएनजीसी के कार्यक्रम में तो सुनील दा भी बुलाए गए थे और नई पीढ़ी के समर्थ कवि जय गोस्वामी भी थे। जिनकी तरफ मेरा ध्यान इसलिए भी गया था कि उनके हाथ से काव्य–पाठ के पूर्व वे पन्ने छूट गए जिसे देखकर वे पढ़ने वाले थे। और वे बगैर हड़बड़ाए बेपरवाह उन्हें एक–एक कर सहजने में लग गए।

रेहाना से घनिष्ठता बढ़ी और मैं उनके घर कभी–कभी जाने लगा था। घर क्या वे मस्जिद में ही सबसे ऊपर रहती थीं। मुझे डर भी लगता था वह लकड़ी की लगभग टूटती सी घुमावदार सीढ़ियाँ चढ़कर उनके यहाँ जाना पड़ता था। ढेर सारे कबूतर वहाँ उड़ते रहते थे। और फिर जिस दरवाजे पर मैं दस्तक देता था उसके पीछे घर कैसा था मैं नहीं जानता। क्योंकि वे उससे निकल कर बाहर आ जातीं और सीढियों के पास ही बड़ी सी खिड़की थी उसी पर हम बैठ जाते या फिर मैं सीढ़ियों पर होता और वे खिड़की पर। यों इस तरह बैठकर उनसे बातें करना‚ उनकी गजलें सुनना और अपनी सुनाना अच्छा लगता। पर उनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं जान पाया। इतना भर याद है कि वे अपने को मुर्शिदाबाद के नवाब खानदान की बतातीं। फिर ये कि निकाह हुआ था पर जल्द तलाक हो गया। और उन दिनों वे फिर निकाह करने की ख्वाइशमंद थीं। गपशप के बाद वे मुझे मस्जिद के पास ही के 'जायका’ रेस्टोरेन्ट की फिरनी खिलातीं। उन्होंने पहले–पहल खिलाया तो जाना कि फिरनी क्या है।

यह उन्हें बेहद प्रिय था। यह जानने के बाद कि मैं उस प्रतिभा सिंह का शौहर हूँ जो कव्वाली गाती है तो उन्हें हैरत हुई थी कि मैंने इसकी इजाजत कैसे दी हुई है। उनकी नजर में कव्वाली गाने वाली औरतें चिड़िया थीं। जो कभी भी उड़ सकती हैं। फिर तो मेरे घर का जब भी वे हाल पूछतीं मैं कहता–'नहीं अभी चिड़िया नहीं उड़ी।’

दो–तीन आयोजनों में हम और मिले। इस बीच जनसत्ता 'सबरंग’ के लिए मैंने बंगाल की उर्दू शायरी पर ९ सफे की कवर स्टोरी लिखी। जिसके साथ प्रकाशनार्थ मैं रेहाना नवाब की तमाम वे तस्वीरें ले गया जिसमें वे दुनिया भर के नामचीन शायरों के साथ अलग–अलग देशों के मुशायरों में थीं। पर मैं यह उन्हें कभी लौटा नहीं पाया। उन दिनों अरविंद जी 'सबरंग’ के संपादन प्रभारी थे। और ये तस्वीरें उनकी अत्यधिक व्यस्तताओं के कारण कहाँ दबी रह गईं खोजा नहीं जा सका। रेहाना उन तस्वीरों के प्रति इस कदर आसक्त थीं कि उसके आगे हमारी दोस्ती नगण्य हो गई। उन्हें तस्वीरें नहीं मिलीं और मैं उन्हें न लौटा पाने की शर्म से बचने के लिए इस कदर कतराया की बरसों से संबंध ही नहीं रहे।

शहूद ज्यादातर मुशायरों में सदारत ही करते थे। दो मुशायरे ऐसे रहे जिनकी सदारत शहूद ने की थी। और वहाँ उन्होंने भी बाकी शायरों की तरह सराहा था। उर्दू के शायरों से मेरे खयाल अलग तरह के थे जो उन्हें ताजगी का अहसास दिलाते थे। मुझे यह देखकर अजीब लगता था कि मुशायरों में मुझे रचनापाठ के लिए आमंत्रित करने से पहले यह जरूर याद किया जाता है कि हिन्दू भी शायरी करते हैं और उनमें फिराक साहब से लेकर कृष्ण बिहारी नूर और शीनक़ाफ निजाम तक को याद किया जाता है। गोया उर्दू और शायरी केवल मुसलमानों से जुड़ी है और हम विजातीय हैं। यह बात मुझे जरूर सालती रही है पर प्रमाद ऐसा कि उर्दू नहीं सीख पाया। वह तो प्रतिभा थोड़ा–बहुत पढ़ और समझ लेती है सो टीस कम होती है। कभी–कभार 'इंशा’ और 'शहूदी’ हमारे यहाँ आ जाती हैं तो प्रतिभा से उसमें का कुछ पढ़वा लेता हूँ।
यों मुशायरों में एकाध बार कोलकाता से बाहर भी गया हूँ। कथाकार संजय का एक बार आसनसोल से बुलावा आया था। तब तक वे अपनी कहानी 'कामरेड का कोट’ के लिए खासे चर्चित हो चुके थे। आसनसोल के इस आयोजन में हिन्दी के प्रतिनिधित्व के खयाल से दो कवियों को भी शामिल किया गया था। दूसरे थे अरविंद चतुर्वेद। हमें पहले अंदाजा नहीं था कि खलिस मुशायरे में शामिल होने जा रहे हैं। आसनसोन के इंकम टैक्स कमिश्नर उसमें खास मेहमान थे। संजय जी हमें रिसीव करने रेलवे स्टेशन पर पहुँचे थे और स्टेशन से कमिश्नर साहब के घर पहुँचे थे और वे केवल हम दोनों के मेजबान बनाए थे। अरविंद जी दूसरी ट्रेन से पहुँचे थे सो मैं अकेले ही उनका मेजबान रहा। और कमिश्नर की कार से हम आसनसोल से १०-१२ किलोमीटर दूर पहुँचाए गए जहाँ मुशायरा था। 
यह अद्भुत था कि वहाँ एक सिनेमा हॉल का नाइट शो रद्द कर दिया गया था और शायर पर्दे के सामने बैठाए गए थे। मुशायरा खूब जमा। रात भर लोग जमे रहे। मैंने तो खैर अपनी गजलें सुनाई थीं और उनके बीच खप गया। खप ही नहीं गया पसंद भी किया गया। यहाँ तक कि लोग और सुनना चाहते थे। संजय ने बाद में कहा भी कि यार और सुनाना था। लोग सुनना चाहते थे। मगर अरविंद अपनी आदत के मुताबिक डायरी में मुँह गड़ाए हुए श्रोताओं की हूटिंग से बेपरवाह अपनी कविताएँ पढ़ने में मशगूल रहे। उनके लिए सभागार में वे थे और उनकी कविता की डायरी थी। जिन्हें उन्हें पढ़ना था। उनकी कविताएँ सभागार के श्रोताओं को नहीं किन्हीं अदृश्य शक्तियों को संबोधित थीं। मानो वे मंत्र पढ़ रहे हों। उनकी महत्वपूर्ण कविता– 'मेरे सीने में एक बच्चा है’ को भी मुशायरे के श्रोताओं ने हूट कर दिया था। किसी ने ऊँची आवाज में कहा था –'सीने में बच्चा। यह कैसे मुमकिन है।’ दूसरे ने कहा था–'यार औरत के पेट में होता है बच्चा। यह मर्द है इसके सीने में है।’ इस मुशायरे में कोलकाता से डॉ मुजफ्फर हन्फी जैसे शायर भी थे।
शहूद रोजमर्रा की जिन्दगी पर लिखने वालों में से नहीं थे। वे जिन्दगी में गहरे पैठ कर वह बयाँ करना चाहते थे जो काल के परे हो। वे उस दर्द की अभिव्यक्ति देना चाहते थे‚ जो इंसान को एक माने देता है। जीवन की सार्थकता और मूल्यवत्ता उनकी चिन्ता का केंद्र रही। उनका एक शेर है–
'रीढ़ की हड्डियाँ भी चटखने लगें। 
खुद को इतना झुकाना नहीं चाहिए।’
गरीबों को उन्होंने क़रीब से देखा था। पर गरीबी से नफरत नहीं की। वे चाहते थे गरीबों के प्रति समाज का हमदर्द चेहरा–
'कुछ हँसी गरीबों की ऐ अमीर मत छीनो
इक जमाना लगता है इनको मुस्कुराने में।’
बिहार‚ उत्तरप्रदेश से बंगाल के कल–कारखानों में काम करने आने वालों के हालात पर वे मर्माहत थे। इस पर लिखा उनका शेर मुझे अक्सर याद आता है– 
'मैं तो फुटपाथ पे रहता हूँ तुम्हें क्या लिक्खूँ
उसने खत भेजा है कलकत्ता बुला लो मुझको।’
उन्नत ललाट‚ अच्छी कद काठी‚ बड़े–बड़े अर्ध घुँघराले बाल‚ अमूमन पायजामा–कुर्ता और मुशायरों में शेरवानी पहने शहूद भाई की शक्ल याद हो आती है। उनसे व्यक्तिगत तौर पर बात कभी नहीं हो पाई । ऐसा कभी नहीं हुआ कि हम दोनों अकेले गुफ्तगू कर पाते। चूँकि वे प्रतिभा से जुड़े थे‚ सलीम भाई से जुड़े थे। मैं खुलकर नहीं मिल पाता था। मैं नहीं चाहता था कि सलीम भाई जाने कि मैं पीता हूँ। शहूद से इसलाह करने वाले मुझे बताते थे कि वे पीकर ही शायरी पर बात करना पसंद करते थे। सलीम भाई के घर के पास ही बेलगछिया बस्ती में वे रहते थे। मैं सलीम भाई के घर जाकर भी उनके घर नहीं जा पाया‚ इस भय से कि वे पीने के लिए बैठा लेंगे तो न हाँ करते बनेगा न ना। सलीम भाई हाजी हैं। महज कव्वाली गाकर जहाँ कलाकारों के लिए अपनी रोटी का इंतजाम करना भारी लगता है वहीं उन्होंने न सिर्फ खुद हज किया‚ बल्कि अपनी माँ को लेकर वे हज गए।
जिस समय वे और उनकी माँ हज पर जा रहे थे बस्ती वालों का उनके प्रति सम्मान देखकर प्रतिभा इतनी भाव विह्वल हो उठी कि उसके जी में आया था कि काश वह भी कभी हज पर जाए जो किसी तरह मुमकिन नहीं।
सलीम भाई से मेरे कई रिश्ते हैं। कुछ परिभाषित‚ कुछ अपरिभाषित। अव्वल तो वे प्रतिभा के संगीत गुरुओं में से एक हैं। कव्वाली गायन का वह हुनर जो श्रोताओं के सिर चढ़ कर बोलता उन्हीं से सीखा है। दूसरे उनकी पत्नी नाजिमा मुझे बरसों से राखी बाँधती आई है। यहाँ कोलकाता से बाहर होता हूँ तो यह जरूर हुआ है कि मेरी बहनों की राखी देर से मिली या मिली ही नहीं पर उसकी राखी हमेशा समय पर मिली। कुछ और भी रिश्ते हैं जो अपनी जगह खुद बना लेते हैं। मेरी बेटी की दोस्त है उनकी बेटी–रूबी और दोनों मिलकर फिलहाल पेंटर बनने की तैयारी में जुट जाती हैं और कला की बुलंदी पर पहुँचने के ताने–बाने बुनती रहती हैं। उनकी सबसे छोटी बेटी का नाम प्रतिभा के पापा ने रखा है। वे सीमा सुरक्षा बल में हैं। कश्मीर में ड्यूटी पर उन्हें जब फोन से सूचना मिली की उन्हें चौथी बेटी ही हुई है तो उन्होंने वहीं से उसका नामकरण कर दिया–शबनम। जो रख दिया गया और पहले से सोचे और तयशुदा नाम बेकार हो गए। और एक रिश्ता जो बना नहीं पर मेरी जिन्दगी को उसकी उजास रोशन किए रखेगी वह यह कि उनकी बड़ी बेटी रेशमा ने एक बार इच्छा जताई थी कि वह चाहती है कि हम उसे गोद ले लें।
मेरा कोलकाता में नया घर बनना शुरू होता इससे पहले मुझे अमृतसर में 'अमर उजाला’ का ऑफर मिल गया। पर घर बनाने का काम जो शुरू हुआ तो वह अंजाम तक पहुँचा। वह जो आज हमारा घर है उसमें सबसे अधिक योगदान किसी का है तो सलीम भाई का। हम हम जब कभी साथ खाने बैठते हैं तो सलीम भाई कहते हैं कि –'भाई श्री गणेश वाले श्री गणेश करें हम बिस्मिल्लाह करते हैं।’ मेरे घर काम करने वाली बाई को दुर्गा पूजा में तो तोहफा हम देते ही हैं ईदी भी देते हैं। वह उन्हीं लोगों में से जिन्हें उर्दू वाले अपनी जाति का बताते हैं। यह बताने की बात नहीं है उनकी वजह से हमारे घर में 'झटका’ नहीं चलता और शायद हमारी वजह से उनके घर में 'दो नंबर का मीट’ नहीं आता। हमारे घर के कोनों में पाँचों वक्त के नमाजी भी बसे हैं। यह ऐसा घर है हिन्दी वाले का जिसकी तामीर हाजी ने करवाई है और जिसे लोग हमारी बगैर सहमति जाने 'कव्वाली बाड़ी’ कहते हैं। मैं क्या बताऊँ कि उर्दू वाले शहूद से मेरा क्या रिश्ता था और मैं उसे क्यों चाहता था।
ईद के मौके पर कोलकाता दूरदर्शन के कव्वाली गायन के लिए सलीम नेहाली और प्रतिभा सिंह को आमंत्रित किया था‚ तो इसकी सराहना हुई थी। पर यह प्रायोजित था। सरकारी आयोजनों में साम्प्रदायिक सद्भावना दिखलाने की कोशिश होती है। इत्तेफाक से यह नकली और प्रायोजित कार्यक्रम न था। यहाँ आरएसएस को बातचीत के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। सलीम और प्रतिभा का कैसेट हिन्दलवली ख्वाजा कुछ वर्ष पहले निकला तो किसी प्रपोगेंडा के तहत नहीं। नुसरत अली खाँ का मुरीद मैं भी हूँ अकेली प्रतिभा नहीं। वह तो नुसरत साहब से गंडा बँधवाना चाहती थी। पर वे नहीं रहे। हम दोनों ने ही सुना था एक साथ उनका प्रत्यक्ष गायन। कोलकाता के युवा भारती क्रीणांगन में। खुशी यह देखकर भी हुई कि नुसरत साहब का वह आयोजन उन्होंने बड़े गुलाम अली खाँ साहब को समर्पित किया था। और बड़े गुलाम अली खाँ साहब के पौत्र उस्ताद रजा अली खाँ न सिर्फ उस आयोजन में मंच पर थे‚ बल्कि मंच पर इकलौती कुर्सी लगाई गई जिस पर इस युवा गायक को पूरा सम्मान सहित नुसरत साहब ने बैठाया। उनके दादा के और भारत के महान शास्त्रीय संगीत के गायक के प्रति सम्मान प्रकट करने का यह तरीका मोहक लगा।
जिस समय मंच पर बिछे गद्दों पर बैठकर नुसरत साहब ने गाया उनके अनुरोध पर पूरे समय रजा अली कुर्सी पर बैठे रहे। लगभग अस्सी हजार दर्शकों के सामने। बाद में रजा अली ने ही बताया कि खाँ साहब उनके घर भी गए थे। उनके घर पर उनके परिवार वालों के साथ ली गई तस्वीरें भी उन्होंने मुझे दिखाईं। खाँ साहब के गायन वाले दिन ही मुझे लगा कि यह मेरे लिए भी गौरव का विषय है कि रजा अली से मेरे दोस्ताना ताल्लुकात हैं और समय–समय पर मैं २१ बालू हकाक लेन‚ पार्क सर्कस‚ कोलकाता–१७ स्थित उनके घर पर भी जाता–आता रहा हूँ। अपने गायन की कुछेक महफिलों में भी सुनने के लिए उन्होंने बुलाया तो मैं पहुँचा था।
कुछेक बार उन पर लिखा भी। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही मानता हूँ कि पटियाला घराने के सबसे महत्वपूर्ण गायक और अपने पिता उस्ताद मुनव्वर अली खाँ से संगीत की तालीम याफ्ता रजा को बड़े गुलाम अली खाँ का वारिस नहीं माना जाता‚ जबकि उस्ताद मुनव्वर अली खाँ के ही शिष्य पंडित अजय चक्रवर्ती को उनका वारिस माना जाता है। मैंने दोनों का गायन सुना है। हालांकि मैं संगीत नहीं समझता पर रजा की आवाज दिल में जगह बनाती है। बड़े गुलाम अली खाँ की संगीत परंपरा का सही वारिस होने पर भी कोलकाता में कुछ वर्ष पहले विवाद चला और संगीत रिसर्च अकादमी के निदेशक पंडित विजय किचलू ने पंडित अजय चक्रवर्ती के पक्ष में इसकी पुरजोर वकालत की थी। तो मैं बात दूरदर्शन के कार्यक्रम की कर रहा था। प्रतिभा ने कार्यक्रम से लौट कर बताया कि इसका आयोजन ए के खान ने किया है‚ तो मुझे खुशी हुई। मैं उनसे अच्छी तरह से परिचित था। वे उर्दू के अच्छे कथाकार हैं और एजाज साहब मैं और खान एक साथ जाम भी टकरा चुके थे। पर प्रतिभा ने उनसे मेरा जिक्र नहीं किया था। जब उनका तबादला किसी और शहर के दूरदर्शन में हुआ तो उन्हें सलीम भाई ने अपने यहाँ दावत दी थी। यह जानने के बाद कि खान साहब मेरे भी परिचित हैं, मुझे और प्रतिभा को भी दावत में शामिल कर लिया था और बेलगछिया से शामिल किए गए थे शहूद। उस दिन शहूद ने कई उम्दा गजलें सुनाई थीं और एक नज्म। पर नज्म मुझे कमजोर लगी थी। मेरी गजलें उन दोनों ने पसंद की थी। पर मेरी एक गज़ल का रदीफ से काफिया नहीं मिल रहा था। शहूद मुझे समझाने की कोशिश कर रहे थे उर्दू में धुआँ के रदीफ से कुआँ का काफिया नहीं मिलता। चूँकि मैं उर्दू नहीं जानता था इसलिए मेरी गजलों की किताब 'रतजगे’ नहीं आई।

लिखे जाने के बावजूद। मैं उर्दू वाला नहीं हूँ न–जहाँ एक ओर उर्दू दाँ होने का दर्द बयाँ करते हुए कई आलेख सामने आए हैं पता नहीं मेरा उर्दू वाला न होने का दर्द समझा जाएगा या नहीं। यह दर्द अनायास मेरी कलम से फूटा है– 
'मैं बशीर बद्र नहीं हूँ कि कोई शेर लिखूँ।
मैं तो बस लिखता हूँ और शेर समझ लेता हूँ।’ 
शायद उर्दू वालों के दर्द के रदीफ से मेरे इस हिन्दी वाला होने के दर्द का काफिया मिल जाए। या फिर उस तपन दास के दर्द से ही‚ जो अच्छा सुरकार है‚ गज़ल गाने का हुनर जानता है‚ पर उर्दू वाला नहीं है।

१ दिसंबर २००२

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