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तीसरा भाग

मेरे शुरू के पाँच-सात दिन के साथ ही बीते। मैं बिटिना के साथ सोती थी। बिटिना की आदत थी ढेर रात तक पढ़ने की मगर मुझे जल्दी सोने की आदत थी। समझौता हुआ मैं आँखों पर पट्टी बाँध लिया करूँ। लेकिन सुबह उठना फिर आठ के करीब हेल्गा के साथ निकल जाना। वह मुझे हाउस ऑफ रेवलोन में मेकअप की ट्रेनिंग के लिए छोड़ती हुई अपने रेस्टोरेंट में चली जाती थी। हेल्गा सुबह पाँच बजे उठती। आधे घंटे पिछवाड़े के पुल में तैरना फिर टेलीफोन। कान से टेलीफोन लगा रहता लेकिन साथ ही वह कसरत करती जाती। पता नहीं कितनी जगह वह फोन करती थी और कितने नंबर उसके दिमागी कंप्यूटर में भरे थे। साढ़े छः बजे डॉ. बेरी एक कप कॉफी लेकर घर से निकल जाते। फिर वह आधा घंटा का समय हेल्गा का निजी वक्त होता। कहा करती, ''यह वक्त हे मेरे जीने का, कुछ सोचने का, कुछ करने का और भविष्य के सपने देखने का।''
''कौन-से सपने हेल्गा?''
उसके पतले होठों पर एक मुस्कुराहट फैल जाती कहती, ''तुम नहीं समझोगी।''
''क्यों क्या हम दोस्त नहीं?''
''ज़रूर हो, पर मैंने कहा न यह मेरा निजी कोना है। हर आदमी के ख़यालों का, अनुभवों का एक अलग भरा-भरा कोना होता है, जिसमें किसी का साँझा नहीं हो सकता।''
''मुझे तो अपने में ऐसा कोई कोना नहीं लगता।''
''है। तुम उससे परिचित नहीं।''
फिर मुस्कुराकर उसने पूछा, ''अच्छा बताओ तो, ये जो चिठ्ठियाँ तुम पूल के कोने में बैठकर चुपचाप पढ़ती हो और प्रायः उदास हो जाया करती हो, वे किसकी हैं?''
''है कोई अंतरंग...''
''बस इतना भर जवाब? इससे अधिक का साँझा नहीं कर सकीं ना?''
''नहीं, मैं तुमसे सबकुछ कहूँ तो भी नक्शा अधूरा रहेगा, तुम उस माहौल से परिचित नहीं।''
''नहीं, यह बात नहीं। परिचित होते हुए भी हम, 'हम' होते हैं और दूसरा, 'दूसरा'। एक सीमा तक ही अंतरंगता बर्दाश्त होती है। उसके बाद आदमी बिल्कुल अकेला।''
''हेल्गा! तुमने कॉलेज में दर्शन पढ़ा था?''
''नहीं, ज़िंदगी इतनी रहमदिल मुझपर नहीं रही।''
''क्यों?''
''मैं पोलिश यहूदी हूँ। डॉ. बेरी द्वितीय विश्वयुद्ध में सेना में डॉक्टर थे।''
''ओह! तो बड़ी रोमांटिक शादी...''
''पहले पूरी बात सुनो। तुम्हारी आदत भी बिटिना की तरह है। बात सुने बिना निष्कर्ष पर आ जाती हो।''
''सॉरी हेल्गा।''
''ओ.के. हाँ तो मैं और मेरे पिता, मेरा छोटा भाई, जहाज़ पर चढ़ने की तैयारी में खड़े थे। भागनेवालों की एक लंबी कतार थी। वह जनवरी का महीना था। बर्फ़ गिर रही थी। पापा आगे खड़े एक कोट में ठिठुर रहे थे। तब तक एक रूसी सैनिक आया। पापा से उसने कोट माँगा। तुम सोचो, वह पुराना मैला कोट भी शरीर पर नहीं रह सका। सैनिक ने तलवार से पापा की गर्दन काटी, कोट उतारा। उसने खून से रंगा हुआ गीला कोट पहना और थूककर चला गया। बास्टर्ड, प्रभा। इस कहानी को मैं दोहराती रहती हूँ। दोहराती रही हूँ हर किसी के सामने। सब कहते हैं भूल जाओ, लेकिन मैं भूलना नहीं चाहती। मैं नहीं चाहती कि मेरे भीतर की आग, रात दिन की यह दहकती हुई आग ठंडी पड़ जाए। उस दिन के बाद मेरी आँखों में कभी आँसू नहीं आए, कभी नहीं। विश्वास करो, मेरे छोटे भाई की मौत पर भी नहीं।''
''फिर क्या हुआ?''
''हम लोग जहाज़ पर नहीं चढ़ सके। दस दिनों में निमोनिया से मेरा भाई भी चल बसा। पर मैं नहीं रोई। मैं कभी नहीं रोई। अस्पताल में ही डॉ. बेरी से मुलाकात हुई। उन्होंने शादी का प्रस्ताव रखा। ठीक है, वे एक दयालु इंसान हैं। बहुत ही भले पर प्रेम? नहीं। इस दुनिया में प्रेम कोई करता ही नहीं।''
''हेल्गा! इतनी निराशा लेकर तुम यह गृहस्थी चला रही हो।''
''हाँ मुझे मेरे बच्चों से प्यार नहीं। वे मरें, जीयें या कहीं भी जाएँ।''
''यह तुम क्या कह रही हो?''
''ठीक कह रही हूँ। मेरा हर बच्चा इस बात को जानता है।''
''वे कुछ कहते नहीं?''
''बच्चे? बच्चे हर बात को स्वीकार लेते हैं यदि बात ईमानदारी से कही गई हो।''

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