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उपन्यास अंश

यू.एस.. से सुषम बेदी के उपन्यास 'लौटना' के एक अंश की
छह अंकों में समाप्य धारावाहिक प्रस्तुति


हवाई जहाज जब न्यूयार्क शहर की ओर उड़ने लगा तो मीरा अचानक वहाँ की धरती पर उतर आई। विजय से क्या कहेगी वह... यह सब क्योंकर हो गया? एकदम भूल कैसे गई कि वह एक शादीशुदा औरत है... और इस तरह की हरकत... पर अब क्या करे वह? कैसे सँभाले? 

कृष्णन के सामने बड़ी मजबूत सी बनकर वह कह गई थी कि कोई अपराध–भाव नहीं है, पर क्या सच में नहीं है? क्या उस अनुभव के सुख को स्वीकारने में ही वह कहीं विजय को अस्वीकार नहीं रही? क्या विजय के प्रति यह विश्वासघात नहीं? क्या कृष्णन से रिश्ता बनाकर वह विजय को दंडित करना चाहती है क्योंकि विजय ने उसकी कला की, उसके नृत्य की उपेक्षा की है? 

वह कैसी घड़ी थी जब सब कुछ भुलाकर उसने कृष्णन की वांछा की थी और पूरी तरह से उस वांछा को समर्पित हो गई थी, पर अब वह सब घट चुका था, उसकी हस्ती का अटूट हिस्सा बन चुका था। क्या अब उसे किसी तरह से भुलाया या मिटाया जा सकता है? 

कृष्णन ने उसके नृत्य को समझा है, परखा है। उसे प्रोत्साहित किया है। क्या उसे भुला देना मुमकिन हो पाएगा? कृष्णन नृत्य की भाषा जानता है। उसने मीरा से कहा था, 

"तुम्हारा अभिनय तो बहुत श्रेष्ठ है, मीरा, और तुम शब्दों पर नहीं, उनके अर्थों और व्यंजना की सारी संभावनाओं को अपनी मुद्राओं में आकार देकर अभिनय करती हो, इसके लिए बहुत उर्वर मस्तिष्क चाहिए होता है जो विरली ही नर्तकियों के पास होता है। जिस्म की लयात्मकता और मस्तिष्क की उर्वरता का ऐसा संगम कहाँ होता है, मीरा! तुम्हें तो सब छोड़छाड़ कर नृत्य में ही लगे रहना चाहिए।" फिर जब कृष्णन ने पूछा था कि उसकी अगली परफ़ॉरमेंस कहाँ हो रही है? तो मीरा कोई झूठ का परदा दोनों के बीच रख नहीं पाई थी। जिस नर्तकी के ऊँचे आसन पर कृष्णन ने उसे बिठा दिया था, उससे नीचे उतरकर बोली,
"तुम्हें क्या लगता है बहुत व्यस्त नर्तकी हूँ मैं? हर रोज एक से दूसरे शहर प्रदर्शन देने को भागी फिरती हूँ। देखो, एक तो हिंदुस्तानी नृत्य में रुचि रखने वाले ही सीमित हैं, फिर उसके लिए पैसा खरचना और फिर हिंदुस्तान से कोई भी नर्तकी यहाँ प्रदर्शन देने को आने के लिए तैयार होती है। मेरी बारी तो बहुत कम आती है और फिर अपने आप जाकर शो माँगना मुझे सम्मानजनक नहीं लगता।

"लेकिन जैसा टेलेंट तुममें हैं, तुम्हें सामने तो आना ही चाहिए। ख़ैर, देखता हूँ मैं क्या कर सकता हूँ। कम से कम यूनिवर्सिटियों में तो शो फिक्स करा ही सकता हूँ।

मीरा चुप रही थी लेकिन कृष्णन का उत्साह ही उसकी उम्मीद बन रहा था।
एक बार मीरा ने उसे छेड़ा था, "ये साइंस के स्कॉलर की नृत्य में इतनी दिलचस्पी कैसे हो गई?"
कृष्णन भावुक हो उठा था, "जानती हो मेरी माँ भी नर्तकी थी। स्कूल से लौटकर घंटों माँ का रियाज देखा करता था लेकिन वे परफ़ॉर्म नहीं करती थीं। तुम जैसी सुंदर नहीं हैं मेरी माँ लेकिन उनके नृत्य का क्रैफ़्ट ख़ासा परिपक्व है। उनको भी बचपन से ही शौक़ था। उनकी मौसी ने ही मद्रास में नृत्य का स्कूल भी खोला हुआ है। माँ का तो खानदान ही नर्तकियों से भरा है। लेकिन सच में वे नर्तकियाँ नहीं, बस नाचना सीखा हुआ है। वह एक तरह से शादी की रिक्वायरमेंट बन गई है। लेकिन मेरी माँ सच में अच्छा नाचती हैं, सिर्फ़ उनका जिस्म भारी है। बट यू आर परफ़ेक्ट, सिंपली परफ़ेक्ट, मीरा,

तीन दिन लगातार कृष्णन के साथ में हुई बातें और फिर विजय का सामना करने का ख़याल बार–बार मीरा को बादलों में उड़ाकर वापस न्यूयार्क की जमीन पर ले आता। ज्यादा वक्त नहीं है, मीरा को अभी ही जूझना है इस मसले से, कोई हल निकालना है। क्या विजय को सब कुछ बता देना चाहिए? क्या तब अपराध का बोझ हल्का हो जाएगा? परंतु किसी के भी सामने कमजोर पड़ना, अपने आप को अपराधी घोषित करना मीरा को कभी स्वीकार नहीं था। एक आत्मविश्वासमय खूबसूरत मुखौटा बनाए रखना तो यों भी स्वभाव बन गया है उसका। यह शायद उसकी अभिनय और नृत्यकला की ही देन थी, पर अब विजय के सामने भी उसे खुद को इस तरह पेश करना था कि जैसे कुछ हुआ ही न हो। न कोई अपराध भाव, न किसी अतिरिक्त सुख का आभास। सब कुछ सामान्य।

एकदम पहले जैसा, कभी मन होता विजय को बता दे, उदारदिल विजय शायद सहज रूप में स्वीकार ले पर फिर मीरा के भीतर की सजग नारी उसे सावधान कर देती है 'तू पुरुष स्वभाव को इतनी अच्छी तरह से जान–बूझकर यह ग़लती कैसे कर सकती है? और बताने से होगा क्या? कृष्णन से कभी फिर मिल पाने की संभावना भी ख़त्म' और उसकी तार्किक बुद्धि उसे कहती है 'जो कुछ भी हुआ बहुत सहज मानवीय था, नारी–पुरुष में एक बहुत सहज आकर्षण जो दोनों की शारीरिक निकटता में पराकाष्ठा पाता है, उसमें ग़लत क्या है ये नीतियाँ तो समाज की बनाई हैं। उन्हें मानना या न मानना उसका अपना चुनाव है और जो नहीं मानतीं तो फिर अनैतिकता कहाँ रही और जब अनैतिक या अनुचित कुछ नहीं किया तो फिर विजय को लेकर अपराध–भाव क्यों हो? विजय भी तो एक पुरुष है।

अगर वह उसका पति है तो क्या? पति होने मात्र से कोई तुम्हारे तन–मन का पूरा अधिकारी तो नहीं हो जाता और अगर किसी शास्त्र के अनुसार हो भी जाता है तो उसे मानने को मीरा क्यों बाध्य हो? अलग–अलग लोगों ने अलग–अलग बातें कही हैं। मीरा उनमें से किसी को भी चुन सकती है जो उसके मुताबिक पड़े या फिर वह खुद के बनाए नियमों को भी चुन सकती है'। सहसा मीरा अपने आप पर मुस्कराई और खुद से कहा, 'जीने के लिए सच में बौद्धिकता बहुत जरूरी होती है। आदमी अगर खुद के लिए सोच सके तो उसे दूसरों के बनाए नियम–आचारों को एकदम रफ़ादफ़ा कर सकता है और फिर किसी तरह की ग़लती या अपराध का अहसास भी नहीं।' उसने खुद–ब–खुद एक नुस्खा बनाया – मानसिक सेहत के लिए सबसे बड़ा उपचार है बौद्धिकता।

फिर उसने यह भी सोच लिया कि अगर उसका परिवार मध्यवर्ग का हिस्सा होता तो इस नैतिकता की शर्तों से यों भी बाहर होती वह। है तो नैतिकता–वैतिकता सब मध्यवर्गीय चोंचले। न निम्न वर्ग इनकी परवाह करता है, न उच्च वर्ग। सो आज से मीरा ने अपने आपको अपने वर्ग से भी आजाद किया। यों भी उसके पति की अमरीकी कमाई उसे हिंदुस्तान के संदर्भ में उच्च वर्ग में ही पहुँचा देती है।

लेकिन क्या सच में माली हालत बदलने से वर्ग बदल जाता है? वे सारे संस्कार, जिनकी खुराक़ पैदा होने से ही लगातार पिलाई जाती है, वे तो अब माँसपेशियों तक में घुसे हुए हैं। वे कैसे चले जाएँगे? नहीं, मीरा को अपने वर्ग से ऊपर उठना है, झूठ–मूठ की नैतिकता और संस्कारों के कब्ज़े लगाकर उसे जिंदगी के सहज स्वच्छंद प्रवाह को नहीं रोकना। जब उसने नर्तकी का जीवन चुना था तभी उसकी मध्यवर्गीय नैतिकता दाँव पर लग गई थी। शायद पापा इसीलिए उसे नर्तकी नहीं, एक एकेडेमिशियन बनाना चाहते थे, इंटलैक्चुअल बनाना चाहते थे। विजय से विवाह में भी शायद पापा की सहमति इसलिए थी कि मीरा का जीवन एक बँधी-बँधाई लकीर पर चलने लगेगा, जहाँ सर्वोपरिता माँ की नहीं, विजय की होगी। पर मीरा को किसी के भी बताए–दिखाए रास्ते पर नहीं चलना, अपना रास्ता उसे खुद ढूँढना है। लेकिन इस अपनी खोज में वह कहीं बँट नहीं गई? पहले मम्मी और पापा के बीच और अब विजय और कृष्णन के बीच।

ला गर्वाडिया हवाई अड्डे पर, सामान 'बैगेज क्लेम' से उठाकर मीरा बाहर आई तो उसे विजय कहीं नहीं दिखा। सामने टैक्सियों की कतारें थीं। टैक्सी रुकती, यात्री अपना सामान भरते और पलों में ही ओझल हो जाते। बड़ी ही जल्दी–जल्दी यह कारोबार चल रहा था। मीरा ने भी विजय का इंतजार नहीं किया। एक टैक्सी लेकर घर चल दी। विजय घर पर भी नहीं था, शायद किसी क्लायंट से उलझा होगा। पर विजय के घर पर न होने से मीरा को राहत–सी मिली जैसे कुछ और वक्त भी मिल गया हो मुकाबले के लिए, या फिर कुछ वक्त के लिए जैसे मुसीबत को टाल दिया हो। सामान अपनी जगह सँभालकर उसने 'बबल बाथ' की बोतल टब में उड़ेली और ग़र्म पानी का नलका छोड़ दिया। फिर घंटों टब में लेटी नहाती रही। विजय जब तक लौटा, मीरा गहरी नींद में सोई हुई थी।

एलिवेटर बुलाने का बटन दबाकर मीरा इंतजार करने लगी। धीरे–धीरे उसके आसपास पच्चीस–तीस लोग और जमा हो गए। सात–आठ एलिवेटर के बावजूद सुबह–शाम दफ़्तर शुरू होने, ख़त्म होने और लंच के वक्त भीड़ लग ही जाती थी। हर मंजिल पर क़रीब दो सौ लोग तो काम करते ही थे। ऐलिवेटर के रुकते ही लोग ठसाठस भरने लगे। दस नंबर वाला बटन दबाने से जला नहीं तो मीरा घबराई, शायद कुछ ख़राबी हो और दसवीं मंजिल पर रुका ही नहीं तो? उसने घड़ी देखी, साढ़े आठ बजाने में सिर्फ़ तीस सेकंड बाक़ी थे। नहीं, पहले दिन लेट नहीं होना चाहती, लाल लकीर लग जाएगी। पूरे आठ बजकर पैंतीस मिनट पर रिसेप्शनिस्ट एलिनोरा आख़िरी नाम के नीचे लाल लकीर खींच देती थी। इस तरह लेट आने वालों का हिसाब रखा जाता था। उसके बाद हर पंद्रह मिनट के बाद लाल लकीर खिंचती। मीरा अपने फ्लोर पर पहुँची तो पूरे साढ़े आठ थे। फ्लोर का रूप–रंग ऐसा बदला हुआ था कि उसे पल भर को लगा किसी ग़लत फ्लोर पर तो नहीं आ गई? उपर देखा-नहीं, दस की ही बत्ती जल रही थी। सामने संतरी भी वरदी पहने बैठा था। उसे इधर–उधर ताकते–झाँकते देख बोला, "मे आई हेल्प यू?"

संतरी बदला हुआ था वरना मीरा को पहचान जाना चाहिए था। जमीन पर सलेटी रंग का बिछा कार्पेट नया–नकोर लग रहा था। दीवारों का पेंट भी एकदम उजला था। तो रिनोवेशन करवा ही ली रे ने मीरा को दफ़्तर का यह साफ़–सुथरा नयापन अच्छा ही लगा।

"रिसेप्शन... " इतना मुँह से निकालते ही संतरी ने बाईं ओर के शीशे के दरवाज़े की ओर इशारा किया। दरवाजा खोलते ही हैरान रह गई मीरा। दफ़्तर का रूप–रंग पूरी तरह से बदला हुआ था। सारे फ्लोर पर तीन, चार या पाँच फीट उठी हुई दीवारों के साथ जुड़े डेस्क थे। दीवारें मोटे प्लास्टिक की बनी थीं, उन पर फ्लोरेसेंट ट्यूबें भी लगी थीं। बायीं ओर, पहले ही तरह, रिसेप्शन था। एलिनोरा ही थी वहाँ चार फुटिया दीवार से लगी डेस्कनुमा जगह के सामने कुर्सी पर बैठी काग़ज़ों में देखती हुई। उसने मीरा का घुसना नजर नहीं किया, ड़ेस्क के एक तरफ़ थोड़े उठे हुए हिस्से पर टाइम–शीट पहले की तरह रखी थी। मीरा शीट के साथ धागे से लिपटी बॉलपेन से हस्ताक्षर करने ही लगी कि सहसा उसे लगा इतना मेकैनिकल होना ठीक नहीं, अभी तीन–चार मिनट हैं, वह एलिनोरा से 'हलो' तो कर सकती है और उसने ऊँची–सी आवाज में उत्साह के साथ कहा, "हाय, एलिनोरा!" एलिनोरा ने आँख उठाई, जैसे सोए से जगी हो। पल भर में उसे पहचानते हुए 'हलो' कहा। फिर ज्यों ही एलिनोरा की निगाह उसके उठे हाथ के बॉलपेन पर पड़ी, एकदम घबराकर बोली,
"नो–नो, यू आर नॉट सपोज़्ड़ टू साइन हेयर . . .यू विल साइन इन पेरोल्ज़ दैट इज वेयर यू हैव टू वर्क।
"ओ .के "कह मीरा शीशे के दरवाज़े से बाहर आकर विरोधी दिशा में चलने लगी। पेरोल का दफ़्तर उधर ही था। दफ़्तर दरवाजा हमेशा की तरह बंद था। सीखचों वाली खिड़की पर एक लड़की खड़ी थी। मीरा ने उससे कहा कि उसे अंदर आना है। लड़की ने पूछा कि किससे मिलना है। मीरा ने बैन बिल्डर का नाम ले दिया। लड़की ने कुछ चौंककर उसे ध्यान से देखा और पूछा, "क्या पर्सनल काम है?"
तो मीरा ने कह ही दिया, "नहीं, मुझे आज ज्वाइन करना है।"

इस पर लड़की और भी हैरान हुई और उसे रुकने को कहकर अंदर कहीं गायब हो गई। थोड़ी देर में एक मोटी–सी काली औरत सीखचों के पीछे आकर खड़ी हुई। वह शायद उस लड़की की सुपारवाइजर होगी, मीरा ने सोचा। औरत ने अंग्रेजी में कहा, "क्या बात है?"
मीरा ने बताया, "मैं नौकरी ज्वाइन करने आई हूँ। बैन है?" उसने बेरुखी से जवाब दिया, "बैन अभी नहीं आया, वह नौ बजे के बाद आता है। आपको कहाँ ज्वायन करना है?"
मीरा को अब थोड़ा गुस्सा–सा आने लगा था, पर ज्यादा कुछ कह भी नहीं सकतीं थीं। बोली, "पेरोल में।"
"पर हमारे पास तो आपके अपायंटमेंट का कोई फ़ार्म नहीं पहुँचा?"
मीरा अब असमंजस में पड़ी। कुछ नर्म पड़ती बोली, "तब क्या करना है मुझे?" फिर सहसा उसे ध्यान हो आया, "आप एलिनोरा को फ़ोन करके पूछिए न, उसी ने मुझे यहाँ भेजा है। उसे मालूम है कि मैं आज ज्वाइन करूँगी।" 

मोटी औरत अपनी अधमुँदी आँखें खोलने की कोशिश करते हुए जैसे मीरा का चेहरा पहचानने की कोशिश कर रही थी, पर लगता है उसकी पहचान में आया नहीं। बिना कुछ कहे उसने एक और जम्हाई ली और कोने से ऑफ़िस डायरेक्टरी उठाकर एलिनोरा का नंबर खोजने लगी। मीरा को उसका चेहरा पहचाना–सा लग रहा था पर नाम याद नहीं था। उससे शायद मीरा का चेहरा भी पहचाना नहीं गया। फिर टेलीफ़ोन पर जिस तरह उसने एलिनोरा से बात की, उससे मीरा को लगा जैसे वह जबरदस्ती खुद को उस पर लाद रही हो। टेलीफ़ोन रखकर बोली, "आप पर्सनल दफ़्तर जाइए। वे जब हमें आप का अपायंटमेंट फ़ॉर्म भेजेंगे, तभी आप यहाँ आ सकती हैं।"

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