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     24. 12. 2007

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हास्य व्यंग्य

इस सप्ताह
समकालीन कहानियों में
भारत से सुभाष नीरव की कहानी जीवन का ताप
कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। उस पर पिछले कई दिनों से सूरज देवता न जाने कहाँ दुबके थे। दिनभर धूप के दर्शन न होते। रोज़ की तरह आज भी बिशन सिंह की आँख तड़के ही खुल गई, जबकि रात भर वह ठीक से सो नहीं पाया था। आँख खुलने के बाद फिर कहाँ नींद बिशन सिंह को। गर्मी का मौसम होता तो उठकर सुबह की सैर को चल देता। पर भीषण ठंड में किसका मन होता है बिस्तर छोड़ने का! वह उठकर बैठ गया था। उसने ठिठुरते-काँपते अपने बूढ़े शरीर के चारों ओर रज़ाई को अच्छी प्रकार से लपेट-खोंस कर दीवार से पीठ टिका ली थी। एक हाथ की दूरी पर सामने चारपाई पर उसकी घरवाली सुखवंती रज़ाई में मुँह-सिर लपेटे सोई पड़ी थी।

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हास्य-व्यंग्य में
रामकिशन भँवर से सांत्वना के बोल चिंता जिन करियो हम हूँ न
डोंट वरी। नो फिक्कर। परेशानी काहे की? सब निपट जाएगा, हम हूँ न, ऐसे तमाम हमदर्दियाना बातें अब ज़िंदगी से गुम होती जा रही हैं। इनकी जगह अब तू ही जानें फिर तेरा काम जाने, मेरे से क्या लेना-देना,  अब इस भीड़नुमा समाज में वह बिल्कुल अकेला है। कोई नहीं है जो उसकी पीठ पर हाथ रखकर ये कहे कि चिंता जिन किहौ हम तौ हन। ऐसा कहना मात्र अगले के लिए एक ज़बर्दस्त सामाजिक सुरक्षा का बंदोबस्त कर देता है। समाज से धीरे-धीरे मेलजोल, सांझापन और परस्पर सहयोग की भावना ख़लास होती जा रही है। मानवीय संबंधों में अब दूरियाँ अधिक हैं। पड़ोस में आदमी रहते है या उनके कुत्ते, क्या मतलब?

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दृष्टिकोण में
प्रभु जोशी की आवाज़ हिंदी की हत्या के विरुद्ध
अंग्रेजों की बौद्धिक चालाकियों का बखान करते हुए एक लेखक ने लिखा था - ''अंग्रेज़ों की विशेषता ही यही होती है कि वे बहुत अच्छी तरह से यह बात आपके गले उतार सकते हैं कि आपके हित में स्वयं आपका मरना बहुत ज़रूरी है। और, वे धीरे-धीरे आपको मौत की तरफ़ ढकेल देते हैं।''
ठीक इसी युक्ति से हिंदी के अख़बारों के पन्नों पर नई नस्ल के कुछ चिंतक, यही बता रहे हैं कि हिंदी का मरना, हिंदुस्तान के हित में बहुत ज़रूरी हो गया है। यह काम देश-सेवा समझकर जितना जल्दी हो सके करो, वर्ना, तुम्हारा देश सामाजिक-आर्थिक स्तर पर ऊपर उठ ही नहीं पाएगा। परिणाम स्वरूप, वे हिंदी को बिदा कर देश को ऊपर उठाने के काम में जी-जान से जुट गए हैं।

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विज्ञानवार्ता में डॉ. गुरुदयाल प्रदीप का आलेख
प्रजनन विज्ञान एवं क्लोनिंग : सफलता के नए आयाम
गांधारी के दृष्टांत को और ध्यान से देखा जाए तो ऐसा लगता हे कि जाने-अनजाने महर्षि व्यास ने क्लोनिंग की नींव भी रख दी थी। गांधारी की सभी एक सौ एक संतानों का विकास एक ही भूणीय पिंड से प्राप्त कोशिकाओं द्वारा हुआ था अत: उनमें शत-प्रतिशत अनुवांशिक समानता होगी ही। क्लोन्स की परिभाषा के अनुसार ये सभी संताने एक-दूसरे की क्लोन तो होंगी ही, गांधारी की क्लोन्स भले ही न हो। हाँ, इसमें एक पेंच अवश्य है- एक ही प्रकार की भ्रूणीय कोशिकाओं से विकसित होने के कारण इन सभी एक सौ एक संतानों का लिंग भी एक होना चाहिए, तो फिर एक मादा संतान की उत्पत्ति कैसे हुई? म्यूटेशन द्वारा शायद ऐसा संभव है।

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साहित्य समाचार में

 

अनुभूति में

महेंद्र भटनागर, अनूप कुमार, पवन दीक्षित, गुलशन सुखलाल
और
महिमा बोकारिया की नई रचनाएँ

पिछले सप्ताह
16 दिसंबर 2007 के अंक मे
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समकालीन कहानियों में
त्रिलोचन की कहानी
सोलह आने

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हास्य-व्यंग्य में
वीरेंद्र जैन के
ये अखबार निकालने वाले

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साहित्यिक निबंध में
अनंतकीर्ति तिवारी की विस्तृत विवेचना त्रिलोचन की कविता
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संस्मरण में
अनिल जनविजय की कलम से
नेह, बतरस
और कविताई-याद त्रिलोचन की

त्रिलोचन जी नहीं रहे। यह ख़बर इंटरनेट से ही मिली। मैं बेहद उद्विग्न और बेचैन हो गया। मुझे वे पुराने दिन याद आ रहे थे, जब मैं करीब-करीब रोज़ ही उनके पास जाकर बैठता था। बतरस का जो मज़ा त्रिलोचन जी के साथ आता था, वह बात मैंने किसी और कवि के साथ कभी महसूस नहीं की। गप्प को सच बना कर कहना और इतने यथार्थवादी रूप में प्रस्तुत करना कि उसे लोग सच मान लें, त्रिलोचन को ही आता था। शुरू में जब मुलाकात हुई थी तो मैं उनकी बातों को सच मानता था लेकिन बाद में पता लगा कि ये सब उनकी कपोल-कल्पनाएँ थीं।
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रसोईघर में
शाकाहारी मुगलई के अंतर्गत
दाल मक्खनी

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पुराने अंक
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सप्ताह का विचार
समय और बुद्धि बड़े से बड़े शोक को
भी कम कर देते हैं।
--कहावत

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
-|-
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