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९. ८. २०१०

सप्ताह का विचार- सारा जगत स्वतंत्रता के लिए लालायित रहता है फिर भी प्रत्येक जीव अपने बंधनो को प्यार करता है।- श्री अरविंद

अनुभूति में- इंदिरा मोहन, राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र वर्मा, कुमार विश्वास के साथ संकलन मेरा भारत में देशभक्ति की  रचनाएँ।

कलम गहौं नहिं हाथ- इस सप्ताह स्वतंत्रता दिवस के शुभ दिन अभिव्यक्ति अपने जीवन के दस वर्ष पूरे करेगी। इसका पहला अंक १५ अगस्त...आगे पढ़ें

रसोईघर से सौंदर्य सुझाव- कोमल हाथों के लिये तून के तेल से हाथों की मालिश करें, फिर इन्हें दो से पाँच मिनट तक नमक मिले पानी में भिगोकर रखें।

पुनर्पाठ में- १६ अगस्त २००६ को प्रकाशित अनूप कुमार शुक्ल और शोभा स्वप्निल का आलेख पार्षद और झंडागीत- 'झंडा ऊंचा रहे हमारा'

क्या आप जानते हैं? कि बनारस विश्व की ऐसी सबसे पुरानी नगरी है जो अपने प्राचीनतम स्थान पर निरंतर आज तक बसी हुई है।

शुक्रवार चौपाल- थियेटरवाला का वार्षिकोत्सव इंडिया क्लब में धूमधाम से संपन्न हुआ। इसके उपलक्ष्य में शुक्रवार चौपाल इस सप्ताह बंद रही।

नवगीत की पाठशाला में- कार्यशाला-१० के विषय की घोषणा हो गई है। इस बार का विषय है- मेघ बजे। विस्तृत विवरण के लिये पाठशाला का पृष्ठ देखें।


हास परिहास


सप्ताह का कार्टून
कीर्तीश की कूची से

इस सप्ताह
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर
समकालीन कहानियों में भारत से शुभदा मिश्र की कहानी मुक्ति पर्व

फँस गईं दीदी आप ...' सामने वाली पड़ोसिन अपने फाटक पर दोनों कुहनियाँ टिकाए, हथेलियों में चेहरा रखे विगलित दृष्टि से उन्‍हें देखती कह रही थीं।  जा रही थीं सामने सड़क पर, थकी-हारी क्‍लांत। एक हाथ में दवाइयों का पैकेट लिए और साथ ही साड़ी का पायचा उठाए, दूसरे हाथ में गर्म पानी की बोतल और छाता लिए। इधर दो दिन से लगातार बारिश हो रही थी। बुरी तरह फँसा दिया गया इन्‍हें तो...' अगले दरवाजे पर खड़ी कई एक पड़ोसिनों का झुंड दयार्द्र ही नहीं, परेशान भी हो उठा था।उसकी सेवा करते-करते कहीं ये खुद भी बीमार न पड़ जाएँ। वैसे भी मौसम खराब है। घर-घर में लोग बीमार पड़ रहे हैं।'तुम्‍हीं लोग ने तो फँसाया है मुझे ...', उनके शिथिल क्‍लांत चेहरे पर एक क्षीण सी मुस्‍कान उभरी और वे पड़ोसिनों के सामने स्थित उस विशाल भुतही हवेली में समा गईं। ...पूरी कहानी पढ़ें।
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संजीव सलिल का प्रेरक प्रसंग
भारतमाता का घर
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डॉ. बसंतीलाल बाबेल से जानकारी
हमारा संसद भवन

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गोपीचंद श्रीनागर का निबंध
डाकटिकटों में अशोक स्तंभ

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राजेश्वर प्रसाद नारायण सिंह का आलेख
वंदे मातरम की रचना

पिछले सप्ताह

शम्भूनाथ सिंह का व्यंग्य
बाजार में निकला हूँ
 
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योगेश विक्रान्‍त का आलेख
हिंदी रंगमंच : मंचन के पीछे की पीड़
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वीरेंद्र मेंहदीरत्ता की कलम से
सुषम बेदी का उपन्यास- गाथा अमरबेल की

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घर परिवार में गृहलक्ष्मी के सुझाव
रंग लाती है हिना

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वरिष्ठ कथाकारों की प्रसिद्ध कहानियों के स्तंभ गौरवगाथा में राजी सेठ की कहानी- तुम भी

रात जब उसकी नींद खुली तो आज फिर वह बिस्तर पर नहीं था। दो क्षण अडोल पड़ी रही। बाथरूम की दिशा में कान दिए...रात खामोश थी...कोई आवाज़ न होने से उसे लगा, दिन होने में देरी है...बीच रात का पहर है...सन्नाटे से भरा। दरवाज़े की साँकल हलकी-सी बजी...खिस्स-खिस्स की ध्वनि। पूर्व ज्ञान न होता तो शायद समझ न पाती कि बोरी घसीटी जाकर दरवाज़े के पीछे रख दी गई है। प्राण जैसे कहीं और बँधे हों, ऐसी सीने के भीतर टँगी जाती साँस...चुप पड़ी रही। वह आया...सुराही से पानी उँड़ेला...गटगट पिया और धीरे, बहुत धीरे खाट पर बैठ गया। ''क्यों करते हो तुम यह पाप?'' पत्नी ने उठकर उसकी कलाई पकड़ ली। पर यह उसके अपने हाथ में अपनी ही कलाई थी। पति की कलाई पकड़कर यों कह डालने का साहस उसमें नहीं था...पूरी कहानी पढ़ें।

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